एक किस्सा है। हम में से कई लोगों ने थोड़े-बहुत फ़र्क के साथ बचपन से ही सुना होगा। एक बार हमारे शरीर के अंगों में बहस हो गई कि उनमें श्रेष्ठ कौन है? पैर ने कहा, “मैं पूरे शरीर का बोझ ढोता हूँ। उसे यहाँ से वहाँ ले जाता हूँ। यह शरीर मुझ पर टिका है। मैं श्रेष्ठ हूँ।” हाथों ने कहा, “सारे काम मैं करता हूँ। मैं काम न करूँ तो न आजीविका मिलेगी न शरीर का भरण-पोषण ही हो पाएगा। इसलिए मैं ही श्रेष्ठ हुआ।”
ऐसे ही मुँह, नाक, कान, आँखें सबने अपने-अपने काम गिनाए। अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश की। पेट ने भी ‘गुड़-गुड़’ कर अपनी बात रखने का प्रयास किया तो उसकी तरफ़ अन्य अंगों का ध्यान गया। मुँह ने तुरन्त उस पर आरोप जड़ दिया, “यह जो पेट लाला है न? यह कुछ करता नहीं। बस, खाता-पचाता है।” दूसरे अंगों ने भी समर्थन किया, “हाँ, हाँ! काम हम सब करते हैं। लेकिन यह खा-खाकर मोटा हुआ जाता है। कोई काम नहीं करता। सो, अब हम भी नहीं करेंगे।”
इस तरह पेट की बात सुने-समझे बग़ैर अन्य अंगों ने कामबन्दी कर दी। काम में कुशल अंगों ने ‘अकर्म’ का रास्ता चुना। उसे ही ठीक समझा। इस हाल में एक पहर बीता कि गला सूखने लगा। कुछ समय बाद आँखें भारी होने लगीं। फिर हाथ अचेत-से हो गए। पैर अकड़ने लगे। कान कुछ सुनने में असमर्थ महसूस करने लगे। दूसरे तमाम अंग भी शिथिल हो रहे थे। इस बीच पेट ने कई बार ‘गुड़-गुड़’ कर संकेतों में अपनी बात रखी। मगर कोई उसकी सुनने-समझने को तैयार नहीं दिखा।
सो पेट भी सपाट-सा हो गया। लेकिन दिन का दूसरा पहर बीतते-बीतते विभिन्न अंगों को अपनी ग़लती का अहसास हो गया। उन्हें समझ आ गया कि वे नहीं बल्कि उनका ‘सकर्म’ श्रेष्ठ है। सो तुरन्त पैरों ने सक्रियता दिखाई और वे शरीर को ले गए भोजनालय की तरफ़। हाथ, नाक, मुँह, दाँत, जीभ आदि ने भी अपना-अपना काम किया और पेट ने तत्परता से अपना। सम्पूर्ण शरीर इस तरह तुष्ट-पुष्ट हो फिर सक्रिय हो सका।
दरअसल ऐसा ही कुछ हम सबके साथ हो रहा है। हम सह-अस्तित्व का भाव भूल रहे हैं। सिर्फ़ अपनी अहमियत, अपनी श्रेष्ठता की तरफ़ ध्यान दे रहे हैं। उसे स्थापित करने में लगे हैं। हमने किसी अहंकारवश, स्वार्थवश अथवा भ्रमवश अपने कर्त्तव्य भूला दिए। इसलिए हमारा ‘शरीर’, जो परिवार से शुरू होकर क्रमश: समाज और राष्ट्र के रूप में आकार बढ़ाता है, न तुष्ट हो पाता है, न पुष्ट ही। टुकड़ों में बँटा दिखता है।
परिवार रूपी शरीर के अंग हैं, माता-पिता, पुत्र-पुत्री। लेकिन पिता ‘पापा’ बनकर रह गए। और माता ‘मॉम’ हो गई। ‘पापा’ अपनी आपाधापी में व्यस्त हैं। इसलिए पुत्र को मार्गदर्शन देने का उनके पास समय नहीं। जबकि ‘मॉम’ फैशन, पार्टी, आदि में समय दे रही हैं। सो, पुत्री को राह दिखाने का वक़्त उनके पास भी नहीं। इधर, पुत्र-पुत्री अपने पापा-मॉम का ही अनुसरण कर अलग स्वायत्त इकाई का रूप लेते जा रहे हैं।
इस तरह परिवार के चार अंग, चारों अलग-अलग रास्ते पर। ऐसे में परिवार तुष्ट-पुष्ट कैसे हो? यही हाल समाज का है, जो तमाम वर्गों में बँटा दिखता है। धार्मिक-आधर्मिक, अमीर-ग़रीब, शासक-शासित, सुन्दर-असुन्दर, शिक्षित-अशिक्षित, गुणी-दुर्गुणी, सज्जन-दुर्जन। ऐसे न जाने कितने वर्ग। इन सबका क्या कारण हो सकता है? कभी साेचकर देखें तो? मैं सुबह उठकर जब भी छज्जे से नीचे देखता हूँ तो गली में घूमते, बैठे, खड़े, बातें करते, हॅंसते, झाडू लगाते लोगों के प्रति तरह-तरह के विचार आते हैं। कि ‘वह सज्जन है। यह झगडालू है। वह निन्दा करने वाला है। यह दिखावा करता है। वह सुन्दर है। यह कुरूप है। वह अमीर। यह ग़रीब।
ऐसा क्यों होता है, भला? सोचें तो पाएँगे कि जीवन में जो हमने देखा, उसके आधार पर हमारी धारणाएँ बनी। ये पूर्व निर्धारित धारणाएँ ऐसे विभाजन में हमारी उत्प्रेरक होती हैं। उनकी वजह से हम में इस तरह की भेद दृष्टि विकसित होती जाती है। समय के साथ-साथ। बड़े स्वाभाविक रूप से। और कुछ हद तक संकुचित भी। यही संकुचित दृष्टि हमें ‘समाज को बड़े शरीर के रूप में’ स्वीकृति देने से रोकती है। और हम फिर टुकड़ों में बँटे स्व-अर्थ चिन्तन तक सीमित हो जाते हैं।
ठीक यही स्थितियाँ हम ‘राष्ट्ररूपी शरीर’ में देख सकते हैं। बल्कि देखते ही हैं। इसीलिए जब कोई हमें ‘आत्मनिर्भर’ होने का सूत्र देता है तो प्रश्न उठता है। ये कि टुकड़ों में बँटे हम क्या ‘समाज या राष्ट्ररूपी शरीर’ काे आत्मनिर्भर बना सकते हैं? वर्ग-उपवर्ग भेद का भाव हमें हमारे कर्त्तव्यों के निर्वहन से दूर करता है। बस याद रहता है तो ‘अपने अधिकार और दूसरों के कर्त्तव्य’। हम ख़ुद को भूल समाज को सुधारने का चिन्तन करते रहते हैं। दूसरे अर्थों में कहें तो उसकी ख़ामियों का चिन्तन करते हैं। क्योंकि ‘सुधार’ के बारे में सोच की शुरुआत ही ख़ामी पर दृष्टि जाने से होती है।
जबकि समग्र आत्मनिर्भरता के लिए तो आवश्यक ये है कि हम अपने-अपने कर्त्तव्यों को पहचानें। और उनका ठीक-ठीक निर्वहन करें। ऊपर बताई गई कहानी के ज़रिए ही सोचें कि यदि हाथ, पैर, मुँह, आँखें, आदि अंग अलग-अलग ही भागते रहते, अपनी सोचते रहते तो क्या शरीर आत्मनिर्भर हो पाता? नहीं न? बल्कि जब सब ने अपने कर्त्तव्य सही ढंग से निभाए, तब आत्मनिर्भरता सही मायने में हासिल हुई। बस यही हमारे लिए मूल मंत्र है।
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(रोहित कौशिक, सपनावत, हापुड़ के उदय प्रताप इंटर कॉलेज में संस्कृत शिक्षक हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के लिए विशेष तौर पर यह लेख भेजा है।)
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