मनुष्य का सार है ‘रस’, नहीं तो जीवन ‘नीरस’

जीवन ‘चाहना’ का नाम है। ‘चाहना,’ वस्तुत: रस की होती है। और ‘रस’ हमारे हर ज्ञान का आधार बनता है। उदाहरण के लिए, सूर्योदय पूर्व का अरुणाभ आकाश हमारे नेत्रों को रस देता है। पक्षियों का कलरव कानों में रस घोलता है। बेला-जुही की सुगन्ध लिए कोई हवा का झोंका नासिका को रस-बोध कराता है। स्पर्श से त्वचा और स्वाद से रसना काे रस की अनुभूति होती है। और इस अनुभूति से हमें भिन्न-विभिन्न ज्ञान होता है।

रस शास्त्र की सिद्धि रूपान्तरण में है। रस शास्त्र में ‘पारद’ को रसराज कहा गया है। यानि रसों का राजा। वह सर्वगुणसम्पन्न है। रसायनविद् कहते हैं कि पारद का घनत्व सर्वाधिक होता है। केन्द्र में पहुँचना उसका स्वभाव है। लेकिन वह कहाँ पहुँच कर क्या प्रभाव डालेगा, यह उसको मिले संस्कार और पथ्य विधि पर निर्भर करता है।

ज्ञानी जो पारद तैयार करते हैं, वह मस्तिष्क को मजबूत करता है। योगियों द्वारा बनाया पारद हृदय को बल देता है। वैद्य, पारद से रससिन्दूर बनाते हैं। वह शरीर के लिए पुष्टिकर होता है। तान्त्रिकों द्वारा बनाया पारद काम-केन्द्र को मजबूत करता है। उसी पारद को विरक्त महात्मा विशिष्ट विधि से भस्म कर ग्रहण करते है तो वह कामशक्ति को क्षीण कर देता है।

रसराज में यह विलक्षण रूपान्तरण की शक्ति जिस प्रक्रिया से आती है, वह कन्द, मूल, वनस्पति के रस, प्रक्रियाओं के संस्कार से सम्भव होती है। अन्यथा आधुनिक औषध विज्ञान और धातु विज्ञान तो सुदीर्घ शोध अध्ययन के बाद भी पारद को विष धातु ही मानता है।

इसी तरह पाकशास्त्र में भी रस हाेते हैं। मुख्य रूप से छह तरह के – तिक्त, मधुर, कषाय, लवण, अम्ल और कटु। रसना से इनका ज्ञान होता है। लेकिन भोजन में सब पदार्थ मिलकर एक पूर्णता और पुष्टि देते हैं। इस पूर्णता से जो संतृप्ति मिलती है, जिस आनन्द का अनुभव होता है, वह भी रस-रूपान्तरण को समझने का एक सरल उदाहरण है।

मनुष्य का सार भी रस है। चाहे वह आन्तरिक जीवन का हो या बाह्य जीवन का। संसार में जो विविध भावों का विनिमय और संचरण होता है, उसका सार सर्वस्व रस ही होते हैं। ये न हों तो जीवन ‘नीरस’ बन जाता है। यही संसार का रंगमंच है। और भाव की दृष्टि से ‘अहंकार’ तो अभिनयशील पात्रों की, रंगमंच से अलग, निजी प्राकृत अवस्था भर लगती है।

सारे रस और रंग तो अभिनीत पात्रों के चरित्र में ही दिखते हैं। भरतमुनि ने इन्हीं रस और भावों के आधार पर नाट्य शास्त्र रच डाला। आठ रसों में शृंगार, रौद्र, वीर, वीभत्स, ये चार प्रधान हैं। जबकि हास्य, करुण, भयानक और अद्भुत, ये गौण रस माने जाते हैं। रति, क्रोध, उत्साह, घृणा, ह्रास, शोक, भय और आश्चर्य क्रमश: इन रसों के स्थायी भाव हैं। इन्हीं भावों के संचरण में नाट्य की सृष्टि है। अद्भुत!

हमारे जीवन की हर चेष्टा इन्हीं भावों का परिणाम तो होती है। मम्मट अभिनवादि के अनुसार नौंवाँ ‘शान्त’ रस है। इसका स्थायी भाव समाधि या तन्मयता है। यहाँ रस नाट्य और कला से अद्वैत दर्शन की ओर उन्मुख होता है। काव्य का आरम्भ भी रस से ही हुआ है, ऐसा मानते हैं।

एक आख्यान प्रसिद्ध है। किसी वन में व्याध ने क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर को तीर चलाकर मार दिया। क्रौंच की संगिनी विरह क्रन्दन करने लगी। उसे सुनकर महर्षि वाल्मीकि का हृदय करुणा से भर गया। फिर वह क्रोध में परिणीत हो व्याध के प्रति श्राप के रूप में सामने आया। उसे ही भारतीय काव्य इतिहास का प्रथम श्लोक भी माना गया…

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥

अर्थात्… “हे निषाद! तुमने प्रणय-क्रिया में लीन, काम से मोहित क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक का वध कर दिया। तुझे अनन्त काल तक शान्ति (प्रतिष्ठा) न मिले।”

आदिकाव्य रामायण भी तो विधि द्वारा शरसंधान कर राम और सीता के विरह दग्ध हृदय की गाथा ही है। करुण रस अद्भुत है। ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध तो मौन को प्राप्त हो गए थे। कहते है करुण रस का आश्रय लेकर ही वे धम्म का उपदेश देने के लिए प्रवृत्त हुए।

दृश्यमान जगत की सीमाओं का अतिक्रमण रस से ही सम्भव है। भाव प्राकृत हैं। भाव पशुओं में भी होते हैं। मनुष्य में स्वयं प्रकाश प्रत्यभिज्ञा भी होती है। प्रत्यभिज्ञा प्रति+अभिज्ञा इन दो शब्दाें से जुड़कर बना है। प्रति यानी पहले और अभिज्ञा यानी जानना। अर्थात् वह बोध जाे विविध अवस्थाओं, इन्द्रियादि से होने वाले ज्ञान का आधार होता हो। यह प्रत्यभिज्ञा नित्य, निरन्तर होने से अनन्तता का भास देती है। उसके भाव के साथ मिलने से रस चैतन्य हो उठता है। मनुष्य में भावों का संस्कार होता है तो वह रस स्थूल से सूक्ष्म, अनात्म से आत्म, भौतिकता से आध्यात्मिकता की यात्रा को सम्भव करता है।

रसायन में पारद की तरह ही रसिकाचार्य ‘शृंगार’ को रसराज मानते हैं। कारण यह कि भक्ति के पाँचों रस- शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य की पूरे उत्कर्ष के साथ अभिव्यक्ति शृंगार में ही होती है। इस श्रृंगार में भी प्रियतम के संयोग से अनन्त गुणा सुख वियोग में माना गया है। क्योंकि संयोग में तो प्रियतम ही होता है। लेकिन वियोग में, विरह के वेग में ह्रदय का हर स्वर गोपीगीत बन जाता है। इसे सुनकर खुद भगवान को ह्दय में अवतरित होना पड़ता है। हर कण, हर कोने में।

गोपी के हृदय में आत्यन्तिक विरह को भी ‘तत्सुखेसुखित्वं’ भाव से ग्रहण करने की स्थिति बनती है। इसमें जो परम शरणागति होती है, उसके बदले में भगवान उन्हें दे ही क्या सकते हैं? वो बिक जाते हैं। और ऐसे रसिकों को अपनी लीला में प्रवेश देने के लिए वे श्रीजी (राधा रानी) से प्रार्थना करते हैं।

इस रस जगत में रूपान्तरण की खरी ‘कीमिया’ (सस्ती धातुओं को बहुमूल्य बनाने की कला) संस्कार से होती है। संस्कार का अर्थ है- परिष्कृत करना, पूर्ण करना। उदाहरण के लिए संस्कृत। लोक में यत्र-तत्र प्रचलित धातु रूपों को नियमों में संस्कारित करने पर, संस्कृत का उद्भव होता है। इसी तरह सनातन इतिहास, धर्मशास्त्र, दर्शन, पुराणादि साहित्य और आप्त जनों की अनुभूति से गुरु के माध्यम से हमारे जीवन में संस्कार उतरते हैं। ये जीवन में रूपान्तरण लाते हैं। तो हमारा जीवन ‘सरस’ होता है।

दरद की मारी बन-बन डोलूँ, बैद मिल्या नहिं कोय।

मीरा की प्रभु पीर मिटे, जद बैद साँवरिया होय।।

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(समीर, भोपाल में एक निजी कंपनी में काम करते हैं। लिखने-पढ़ने में रुचि रखते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के नियमित पाठक हैं।)

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