रामायण का एक रोचक प्रसंग है। दूरदर्शन पर फिर से प्रसारित हो रहे ‘रामायण’ धारावाहिक में अभी दो दिन पहले ही यह दिखाया गया। भगवान राम की सेना में शामिल नल और नील नाम के दो वानरों से यह प्रसंग जुड़ा है। इसके मुताबिक सेना सहित लंका जाने के लिए तीन दिन से भगवान राम समुद्र से रास्ता माँग रहे हैं। लेकिन वह नहीं माना तो उन्हें क्रोध आ गया। भगवान के कोप से घबराकर समुद्र तमाम भेंटें लेकर उनके सामने प्रकट हो गया। दोनों के बीच समुद्र के उस पार लंका तक पहुँचने के विकल्पों पर कुछ सम्वाद हुआ। इसी दौरान समुद्र ने भगवान राम को नल-नील के बारे में बताया कि ये “दोनों बचपन में बहुत ऊधमी थे। ऋषियों के पूजा-पाठ के दौरान उनके शालग्राम आदि उठाकर पानी में फेंक देते थे। परेशान होकर ऋषियों ने दोनों को शाप दे दिया- तुम दोनों के हाथ से छुई गई कोई भी वस्तु अब पानी में नहीं डूबेगी।” समुद्र ने यह बताते हुए सुझाव दिया कि इन दोनों के हाथ से पानी पर पत्थरों का सेतु बनवाया जा सकता है। भगवान राम और उनके सचिवों को यह बात जँच गई। और नल-नील का अभिशाप उनके जीवन का सबसे बड़ा वरदान बन गया। वे सेतु निर्माण में भगवान राम के सबसे बड़े सहायक बन गए।
हम सबके जीवन में भी ऐसे अवसर आते हैं, जब पहले अभिशप्त सी लगने वाली कोई स्थिति बने। फिर वही हमारे लिए वरदान बन जाए। कोरोना महामारी का वैश्विक संकट भी हमारे लिए ऐसा ही है। यहाँ नल-नील के रूप में हम इंसान हैं। हमने जाने-अनजाने विकास के नाम पर ‘ऋषि प्रकृति’ को सालों-साल से बहुत तंग किया है। शायद इसीलिए उसने विशेष रूप से हम इंसानों को ही ये महामारीरूपी अभिशाप दिया है। ग़ौर करने लायक है कि पूरी दुनिया में इससे सबसे ज़्यादा तबाही उन देशों में हो रही है, जो कथित विकास की अंधी दौड़ में लगे थे। और यह भी कि जो ज़िन्दगियाँ ये महामारी लील रही है, वे सब इंसानी ही हैं। वह भी ज़्यादातर शहरी। हालाँकि यही अभिशाप हमारे लिए वरदान भी बनता दिख रहा है। जानकार बताते हैं कि इस महामारी का प्रकोप अगले कई महीने-सालों तक रह सकता है। भले इसकी तीव्रता कम-ज़्यादा होती रहे। इसी के मद्देनज़र तमाम तरह की खोजें और आविष्कार हो रहे हैं। प्रकृति अपने तरीके से भी ख़ुद में परिवर्तन कर रही है। यह सब निश्चित रूप से आने वाले कल के लिए वरदान हो सकता है। कैसे? उसे पाँच बिन्दुओं से समझा जा सकता है…
1.आने वाले कुछ समय में पूरी दुनिया में तीन चीजों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत पड़ने वाली है। उनमें से एक है, वेन्टिलेटर। यानी वह मशीन जो गम्भीर स्थिति में मरीज को साँस लेने में मदद करती है। विकसित हों या विकासशील, हर देश में आज इसकी कमी है। सो फिलहाल, कनाडा के डॉक्टर एलेन गॉथियर ने तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक मशीन से ही नौ मरीजों कों साँस देने का इन्तज़ाम किया है। बस, इन सभी मरीज़ों के फेंफड़ों का आकार-प्रकार एक जैसा होना चाहिए। क्योंकि उन्होंने मशीन से ऑक्सीजन आपूर्ति करने वाली मुख्य नली में रबर की नौ अन्य नलियाँ (हौज़ पाइप) जोड़कर यह बन्दोबस्त किया है। इसके अलावा कई स्थायी इन्तज़ाम भी हो रहे हैं। जैसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईडी) रुड़की और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान (एम्स) ऋषिकेश के एक दल ने सस्ता वेन्टिलेटर बनाया है। यह छोटा सा है। आसानी से एक से दूसरी जगह ले जाया जा सकता है। तेजी से इसका उत्पादन हो सकता है। पुणे के कुछ छात्र भी महज 50,000 रुपए की कीमत वाला वेन्टिलेटर बना रहे हैँ। सस्ते और आसानी से लाए ले जा सकने वाले वेन्टिलेटर के सफल प्रयोग अन्य देशों में भी हो रहे हैं।
2. दूसरी महत्वपूर्ण चीज, बीमारी की जाँच करने वाले उपकरण (किट)। इस सिलसले में पुणे की महिला विशेषज्ञ मिनाल भोसले ने जो जाँच किट बनाई, वह 1,200 रुपए में 100 नमूने जाँचती है। यानी 12 रुपए में एक जाँच। नतीज़ा भी सिर्फ ढाई घंटे में दे देती है। भोपाल, मध्य प्रदेश में भी एक कंपनी ने इतने ही समय में जाँच रिपोर्ट देने वाली किट बनाई है। नागपुर में केन्द्र सरकार की एक संस्था ने स्वदेशी तकनीक से महज आधा घंटे में रिपोर्ट देने वाली किट बनाई है। वहीं अमेरिका की कंपनी एबॉट की जाँच किट पाँच मिनट में रिपोर्ट दे देती है।
3.तीसरा मामला पीपीई यानी निजी सुरक्षा साजो-सामान का है। इसकी ज़रूरत ख़ास तौर पर चिकित्सकों व अन्य चिकित्सकर्मियों को पड़ती है। इस सिलसिले में उत्तर रेलवे का ज़िक्र हो सकता है। उसने अपने देश के अनुकूल पीपीई का निर्माण किया है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की मंज़ूरी मिलने के बाद इसका उत्पादन भी शुरू हो चुका है। वहीं भोपाल, मध्य प्रदेश के एक सामाजिक कार्यकर्ता राकेश अग्रवाल ने तो महज 600-800 रुपए में तैयार हो जाने वाली किट बना ली है। इसे भारतीय चिकित्सा शोध परिषद (आईसीएमआर) की मंज़ूरी के लिए भेजा गया है। इसके बाद उसका उत्पादन शुरू किया जा सकता है।
4.काम-काज और मनोरंजन के क्षेत्र में भी नवाचार हो रहा है। ख़बरें बतातीं हैं कि भारतीय टेलीविज़न उद्योग ने कई लोकप्रिय धारावाहिकों की शूटिंग इस तरह से शुरू की है कि कलाकार, तकनीशियन अपने घर पर रहकर ही काम कर सकें। संगीत जगत से जुड़े तमाम कलाकार इन दिनों फेसबुक, यू-ट्यूब जैसे ‘सामाजिक मंचों’ से अपनी कला का सीधा प्रदर्शन कर रहे हैं। जबकि देश-विदेश की अधिकांश निजी कम्पनियों ने कर्मचारियों को घर से काम करने की सुविधा दे रखी है। इसके मद्देनज़र लगभग एक दर्जन ऐसी एप्लीकेशन आ चुकी हैं, जिनके जरिए एक साथ 100 लोग अपनी-अपनी जगह पर रहते हुए बैठक कर सकते हैँ।
5.और फिर प्रकृति का अपना परिष्करण् भी। राजस्थान के जयपुर विश्वविद्यालय से पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई करने वाले अविनेश दुबे ने हाल ही में फेसबुक पर एक जानकारी साझा की। इसमें अमेरिकी टीवी चैनल ‘द वेदर चैनल’ और ब्रिटेन के ख्यात अख़बार ‘द गार्जियन’ में प्रसारित-प्रकाशित कुछ अध्ययनों का हवाला दिया गया। उनके मुताबिक रॉयल ऑब्ज़रवेटरी ऑफ़ बेल्ज़ियम के वैज्ञानिकों ने पहली बार धरती में होने वाले कम्पनों में कमी महसूस की है। नेपाल के भूकम्प विज्ञानियों (सीस्मोलॉजिस्ट्स) ने भी ऐसे कम्पनों में गिरावट देखी है। फ्रांस की राजधानी पेरिस के इंस्टीट्यूट ऑफ़ अर्थ फ़िज़िक्स तथा अमेरिका की कैलटेक यूनिवर्सिटी द्वारा लॉस एंजिलिस में किए गए शोध में भी इसकी पुष्टि हुई है। अविनेश बताते हैं कि उपग्रह से लिए गए चित्रों में प्रदूषणकारी गैसों- सल्फर डाईऑक्साइड और नाइट्रोजन डाईऑक्साइड की मात्रा वातावरण में काफी कम देखी गई है। नदियों के पानी में प्रदूषण का स्तर भी काफ़ी कम हुआ है। यानी धरती शान्त और हवा-पानी साफ हो रहा है।
ऐसा और भी बहुत कुछ हो रहा है दुनियाभर में। यह सब भला वरदान नहीं तो क्या है? इससे भविष्य में हमारी जीवनशैली में यक़ीनन बड़े बदलाव आने वाले हैं।