महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास शुक्रवार (आठ मई) तड़के एक मालगाड़ी पटरी पर सो रहे 16 कामगारों को कुचलते, काटते गुजर गई। इस हादसे की जो तस्वीरें आईं, उनमें रेल पटरी पर पड़ी हुई खून से सनी रोटियों की भी तस्वीर थी। वे रोटियाँ जो मज़दूरों ने शायद अगले दिन के लिए बचा रखी थीं। मगर वे उनको खाते, इससे पहले मौत उन्हें खा गई।
यह तस्वीर सामने आने के बाद मीडिया के तमाम माध्यमों पर सम्वेदनाओं का जैसे ज्वार आया हुआ है। गुस्सा भी खूब नज़र आ रहा है। और दुख तो स्वाभाविक है ही। क्योंकि एक तो घटना ऐसी दिल दहला देने वाली। ऊपर से यह तस्वीर, जो दिल के साथ दिमाग का भी कोना-कोना झिंझोड़ दे। पर बात इससे आगे की है। और आगे तक जाने वाली है।
दरअसल पटरी पर पड़ीं रोटियों से जुड़ी सम्वेदनाओं का ज्वार तो दो-चार दिन में उतर जाएगा। लेकिन लगातार बेपटरी हो रही रोजी की वेदना आने वाले कई महीनों-सालों तक महसूस की जाने वाली है। बीते दो-ढाई महीने से इस वेदना की चुभन महसूस होना शुरू हुई है। हालाँकि अब तक यह कथित बौद्धिक विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकी है।
सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इन्डियन इकॉनॉमी (सीएमआईई) नाम की एक प्रतिष्ठित संस्था है। इसके आँकड़ों पर केन्द्र और राज्य सरकारें तक भरोसा करती हैं। सीएमआईई के मुताबिक आठ मई तक भारत की बेरोज़गारी दर 24.6 फ़ीसदी तक हो चुकी थी। यही नहीं, बेरोजग़ारी बढ़ने की दर गाँवों के मुकाबले शहरों में कहीं ज़्यादा देखी जा रही है।
संस्था के आँकड़ों के अनुसार, बेरोज़गारी की दर शहरों में आठ मई तक 25.1 और गाँवों में 24.4 प्रतिशत दर्ज़ की गई है। अप्रैल के अन्त तक पूरे देश में लगभग 12.15 करोड़ लोग बेरोज़गार हो चुके थे। इन बेरोज़गारों में सिर्फ़ छोटे कामग़ार या दिहाड़ी मज़दूर बस शामिल नहीं हैं। बल्कि नौकरी खोने वाले करीब पौने दो करोड़ वेतनभोगी भी हैं।
पूरे और विस्तृत आँकड़े सीएमआईई की वेबसाइट पर मौज़ूद हैं, जो सिर्फ़ आज की ही नहीं, कल की भी भयावह तस्वीर दिखा रहे हैं। क्योंकि इन्हीं आँकड़ों के मुताबिक मार्च के महीने में देश की बेरोज़गारी दर 8.74 फ़ीसद थी। लेकिन वह अप्रैल और मई के शुरुआती सप्ताह तक लगभग तीन गुना बढ़ चुकी है। यही मुख्य चिन्ता का विषय है।
चूँकि अगले कुछ और महीनों तक महामारी और तालाबन्दी का प्रभाव रहने ही वाला है। लिहाज़ा, इन्हीं आँकड़ों को आधार बनाकर अगर हम भविष्य की कल्पना करें तो ‘बेपटरी रोजी’ की वेदना हमारी रगों में चुभती महसूस होगी। हमें मज़बूर कर रही होगी कि हम इस पर बात करें। अपने स्तर पर ऐसे प्रयास करें कि ख़ुद के साथ-साथ कुछ और हाथों को भी काम मुहैया करा सकें। और कुछ नहीं तो अपनी सम्प्रेषण क्षमता, तार्किकता, अपने विमर्श कौशल आदि का इस्तेमाल कर माहौल ही बनाएँ। ताकि सरकारों पर, कारोबारियों पर दबाव बने। वे किन्हीं हाथों से काम छीनने की जगह अतिरिक्त हाथों को काम देने पर विवश हों।
अगर हम ये कर सके तभी शायद हमारा पढ़ा-लिखा और ‘समझदार’ होना असरदार हो पाएगा। किसी काम का कहला सकेगा। वरना तो बातें हैं, बातों का क्या…!