किस्सा 1967-68 का है। जाने-माने व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय के संस्मरण के रूप में यह किस्सा ‘दैनिक भास्कर’ अख़बार के फीचर पेज ‘साहित्य रंग’ में प्रकाशित हुआ है। प्रसंग प्रख्यात कथाकार नरेन्द्र कोहली से जुड़ा हुआ है। जनमेजय के मुताबिक, “मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हस्तिनापुर कॉलेज (आज मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय) में हिन्दी ऑनर्स में प्रवेश लिया था। नरेन्द्र कोहली जैसे दिग्गज साहित्यकार मेरे अध्यापक थे। उस दिन मेरी कक्षा कुछ विलम्ब से थी। जब मैं रामकृष्णपुरम के सेक्टर-एक से साइकिल घसीटते हुए पहुँचा तो पता चला कि कॉलेज बन्द है। एक लड़के ने हत्या के इरादे से दूसरे पर चाकू से तीन वार कर दिए थे।”
वे लिखते हैं, “अधिकांश ने तमाशाई बन इस घटना को देखा। दो-ढाई सौ छात्र थे वहाँ लेकिन किसी की हिम्मत न हुई कि बीच-बचाव करे। पर नरेन्द्र कोहली बीच-बचाव करने कूद पड़े। उन्हें देख चाकू मारने वाला लड़का भाग गया।… बाद में नरेन्द्र कोहली ने इसी घटना के आधार पर ‘आतंक’ नामक उपन्यास लिखा। इसकी भूमिका में इस घटना का जिक्र करते हुए कोहली लिखते हैं…..“मुझे लगा कि मैं समाज में हूँ पर समाज कहीं नहीं है। कोई भी किसी को सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में चाकू मार सकता है। पुलिस है किन्तु प्रशासन कहीं नहीं है। वह पैसा लेकर चाकू मारने वाले के गिरोह से मिल जाती है। उसकी पक्षधर हो जाती है।”
इत्तिफ़ाक से मैंने यह प्रसंग तब पढ़ा, जब दो दिन पहले ही मैं ‘देश के बँटवारे’ जैसे हालात से गुजरते, मरते, कुचले जाते हुए लोगों को अपनी आँखों से देखकर आया था। इसीलिए क्षण भर भी नहीं लगा मुझे इन शब्दों में छिपी वेदना-संवेदना के साथ जुड़ने में। उसे महसूस करने में। तभी से सोच रहा हूँ कि हम 1967-68 से चलकर 2020 तक आ तो गए। लेकिन तब से अब तक पाँच दशक बीत जाने के बाद भी हमारी सामाजिक ‘संवेदनशीलता’ में क्या फ़र्क आया है, भला?
दुर्घटना, प्रताड़ना, अत्याचार से पहले प्रताड़कों-अत्याचारियों की निग़हबानों-रहनुमाओं के साथ मिलीभगत तब भी हो जाती थी। आज भी हो जाती है। बल्कि अब तो कई जगहों पर हमें प्रताड़ना देने वाले, हम पर अत्याचार करने वाले, हमारे क़ातिल ही ‘मुन्सिफ़’ बन बैठे हैं। और आपसी मिलीभगत से अपने कामों को अंज़ाम दे रहे हैं। और हम? हम उस वक़्त भी दुर्घटनाओं, प्रताड़नाओं, अत्याचारों के तमाशबीन ही थे। आज भी हैं। बीच-बचाव करने, आवाज़ उठाने, मदद करने का हौसला तब भी हम में से चन्द लोगों के पास ही था। आज भी वही हाल है।
ऐसा न होता तो भला आज लाखों-लाख कामगार यूँ ही पाँव-पाँव या अपनी पूरी जमा पूँजी लगाकर छोटे-बड़े ट्रकों, ऑटो रिक्शों से अपने ‘देस’ को निकलते क्या? वह भी ढोर-डंगरों की तरह? चिलचिलाती धूप में तपती सतह पर छोटे-छोटे बच्चे बिना चप्पलों के चलते हुए दिखाई देते क्या? कई-कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहकर हजारों मील लम्बे रास्ते तय करते क्या? इस तरह गुजरते हुए क़रीब-क़रीब रोज़ लावारिस-से सड़कों पर यूँ मारे-कुचले जाते क्या? शायद कभी नहीं।
सुना है, हमारे देश में 16,154 से ज़्यादा कामगार संगठन हैं। देश के सिर्फ़ 15 राज्यों में ही इनके 90 लाख से ज़्यादा सदस्य हैं। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय के 2012 में जारी आँकड़े ऐसा बताते हैं। ये संगठन अक्सर, कथित तौर पर, कामगारों के ही हित में आवाज़ उठाते हुए हड़तालें किया करते हैं। सड़कें जाम कर दिया करते हैं। लेकिन आज जब कामगार ही ‘लावारिसों’ से सड़क पर हैं तो उनके हितों की वक़ालत करने वाला कोई संगठन नज़र नहीं आ रहा है। सोच रहा हूँ, अगर इन संगठनों के सदस्य पानी की बस एक-एक बोतल, बिस्किट का एक-एक पैकेट, एक मुट्ठी चावल, एक-एक जोड़ी चप्पल ही दान कर देते तो? कोई कामगार तब न भूखा रहता, न प्यासा। वह न नंगे पैर ही चलता हुआ दिखता।
इतना ही नहीं। केन्द्र सरकार के ही आँकड़ों के मुताबिक 2015 तक हमारे देश में 42,273 स्वयंसेवी संगठन पंजीकृत थे। ये संगठन अपने आप को ‘समाजसेवी’ कहते हैं। समाज की कथित सेवा में इनमें से कई संगठनों के सदस्य भी अक्सर धरने, प्रदर्शन करते दिखाई देते हैं। बताया जाता है कि इन संगठनों को इस ‘समाज सेवा’ के लिए देश-विदेश से करोड़ों-अरबों रुपए का चन्दा मिला करता है। इसी से ये ‘समाज सेवा का माहौल’ बनाया करते हैं। हालाँकि कभी-कभी सरकारों को यह ‘माहौल’ नाग़वार गुजरता है तो वे इन संगठनों पर कार्रवाई कर दिया करती हैं। जैसे, 2015 में ही ऐसे 8,875 संगठनों की मंज़ूरियाँ केन्द्र ने रद्द कर दी थीं।
इस सबके बावज़ूद यह तो तथ्य है कि ऐसे सभी संगठन समाज सेवा के ही उद्देश्य से बनते तथा चलते हैं। और इनके पास पैसे की भी कोई कमी नहीं है। बल्कि कुछ संगठनों (बड़े कारोबारियों के ट्रस्ट आदि) के पास तो इतना है कि उनका पैसा किसी काली, अन्धेरी गुफ़ा से होते हुए सरकारें बनाने-बिगाड़ने तक में इस्तेमाल हो जाया करता है। बताते हैं कि चुनावों के दौरान नेताओं के लिए हवाई जहाजों, हैलीकॉप्टरों का इन्तज़ाम वग़ैरह भी काफी-कुछ इसी पैसे से होता है। ताकि भविष्य में ‘अपनी वाली सरकार’ बन सके और ‘समाज सेवा’ के रास्ते में कोई बाधा न आए।
अलबत्ता सड़कों से गुजरते हुए ज़िन्दगी-मौत से संघर्ष कर रहे कामगारों को ऐसे ‘समाजसेवी संगठनों की कारीगरी’ से कभी लेना-देना नहीं रहा। और न अभी है। पर हो ज़रूर सकता था। बशर्ते, ये संगठन अपना थोड़ा पैसा इन कामगारों की आवाज़ाही के लिए वाहनों के प्रबन्ध में लगा देते तो। यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि उस सूरत में ये कामगार ज़िन्दगी भर के लिए ऐसा करने वाले संगठनों के मुरीद हो जाते। पर होता तब न?
इसीलिए फिर नरेन्द्र कोहली के शब्द, “लगता है जैसे हम (‘मैं’ की जगह इस्तेमाल किया क्योंकि दायरा बढ़ गया है) समाज में हैं पर ‘समाज’ कहीं नहीं है।” होता तो भला फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्स ऐप, जैसे कथित ‘सामाजिक मंचों’ से नीचे उतरकर ख़ालिस समाज में दिखाई न देता अभी? जबकि उसकी सख़्त ज़रूरत महसूस हो रही है!