हर आँकड़े का सच प्रजा को मालूम होना ही चाहिए, राजन!

ए. जयजीत, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 26/8/2021

सुबह नित्य कर्म, योगासन और ध्यान-स्नान से फ़ारिग होते ही वे अपने बालों को सँवारने के लिए हमेशा की तरह दर्पण के सामने थे। लेकिन बाल सँवारते-सँवारते आज उन्हें दर्पण में कुछ हलचल महसूस हुई। शायद दर्पण कुछ कहना चाहता है। हालाँकि दर्पण कहना तो काफी दिनों से चाहता था, लेकिन महसूस उन्होंने आज किया। पर उनके सामने कुछ कहने की क्या कोई मज़ाल कर सकता है? इसलिए उनके दम्भ को हल्की-सी ठेस लगी। वे एक कदम पीछे हो गए। फिर दर्पण से मुँह फेर लिया। लेकिन तभी उन्हें आवाज़ सुनाई दी, “राजन ओ राजन…”। यह आवाज़ दर्पण से ही आ रही थी।

मगर आवाज़ों को अनसुना करना तो उन्होंने काफ़ी पहले सीख लिया था। क्योंकि राजा चाहे कोई भी हो, सुनी को अनसुनी कर देना (जो उसके मतलब की हो) और अनसुनी को सुन लेना (जो बात मतलब की हो) धीरे-धीरे उसका स्थाई भाव बन जाता है। ऐसें राजा चाहते तो इस आवाज़ को भी अनसुना कर अपनी राह में आगे बढ़ सकते थे। यह उनकी प्रतिष्ठा में चार चाँद ही लगाता। लेकिन अभिमानी मन आड़े आ गया। दर्पण से दूर होते उनके क़दम ठिठक गए। चेहरा फिर से दर्पण की ओर घूम गया। मानो, चुनौती देते हुए कह रहे हैं कि ऐ! “तुच्छ दर्पण, बता, तेरी रज़ा क्या है?”

दर्पण धीरे से कुछ बुदबुदाया…. लेकिन आवाज़ साफ़ नहीं आ पाई। राजा से बात करने के लिए अभी आत्मविश्वास ही नहीं बटोर पाया था वह।

“क्या तू कुछ कहना चाहता है दर्पण?”

“जी जी, मैं कुछ बातें करना चाहता हूँ…।” दर्पण के मुँह से हक़लाते हुए कुछ शब्द फूटे।

“अच्छा, अपने मन की बात करना चाहता है?” राजा अपनी चिर-परिचित शैली में मुस्कुराए।

“मन की बात तो राजन आप बहुत कर चुके, मैं तो दिल की बात करना चाहता हूं…”

“अच्छा! तू मेरा दर्पण होकर दिल की बात करना चाहता है? तुझे पता नहीं, राजाओं के महलों में लगे दर्पण कभी अपने दिल की नहीं करते?”

“हाँ, राजन। अच्छे से पता है। राजाओं के महलों के दर्पण भी बस राजाओं के प्रतिबिम्ब होते हैं। वे तो केवल राजाओं के मन की बात ही करेंगे। फिर भी आज दिल की कुछ कहना चाहता हूँ, मग़र …”

“मग़र क्या?”

“बता तो दूँ, पर डरता भी हूँ।”

”अरे, तू मेरा दर्पण है, तुझमें मेरा ही प्रतिबिम्ब है। तुझे इस बात का इल्म नहीं कि हमने कभी डरना नहीं सीखा। फिर तू कैसे डर सकता है?” राजाओं का अभिमान पल-पल में जागता रहता है।

“डरता इसलिए हूँ क्योंकि दिल, वह भी दर्पण का, कभी झूठ नहीं बोलता। और सच सुनाने की हिम्मत नहीं हो रही।”

“अच्छा, लेकिन ऐसा कौन-सा सच है जो हमसे छिपा हुआ है? मेरे दरबारी मुझे हमेशा सच से बाख़बर रखते हैं।”

“लेकिन दरबारी वही सच सुनाते हैं जो राजा सुनना चाहता है।”

“मग़र तुम सच ही बोलोगे, इसका क्या भरोसा?”

“क्योंकि कहा न, दर्पण झूठ नहीं बोलते।”

“इतना अभिमान?”

“सब आपसे ही सीखा है राजन। आपके ही महल में रहते-रहते।” शायद ज़्यादा बोल गया था दर्पण। इस बात का तुरन्त अहसास भी हुआ उसे। सो, मिमियाती सी आवाज़ में खीसें निपोर दीं उसने। ऐसा करने से तनाव थोड़ा दूर हो जाता है। इतने सालों में यह भी सीख लिया है उसने।

“हमसे और क्या-क्या सीखा?” राजा ने भी चुटकी ली।

“खुद को पॉलिश करके रखना। देखिए, कितना चकाचक हूँ, आपके ही वस्त्रों की तरह।” दर्पण अब थोड़ी सीमा उलाँघने की ग़ुस्ताख़ी करने लगा है।

“मतलब सूटेड-बूटेड होना ग़लत नहीं है न?” राजा को उसकी बातों में मज़ा आने लगा है। बातचीत अनौपचारिक होने लगी है।

“बिल्कुल नहीं। यह तो विकास का एक बड़ा पैमाना है।” राजा का दर्पण है, तो बात कुछ-कुछ राजा के मनमाफ़िक करना भी ज़रूरी है।

“वाह दर्पण, तू ही है जो मेरे मन की बात अच्छे से समझता है। तू तो विकास का शोकेस बन सकता है, विकास का प्रतिबिम्ब”

“अभी तो केवल आप मेरे सामने हैं। तो मैं फिलहाल आपका ही प्रतिबिम्ब हूँ।” अब दर्पण ने चुटकी ली। दर्पण थोड़ा-थोड़ा खुलने लगा है।

“बहुत डिप्लोमैटिक भी हो गया है रे तू”

“यह भी आपसे ही सीखा है, राजन।”

“तूने अच्छा किया जो मुझसे बात कर ली। मैं तो भूल ही गया था कि तेरा भी हम राज्य के हित में बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं।” वही राजा कुशल होता है, जो हर मौके पर अपने काम की बात निकाल ले।

“वह कैसे भला?” दर्पण चौंका। राजा की मंशा पर मन की मन शक करने की ग़ुस्ताख़ी की।

“इन दिनों प्रजा के बीच विश्वास का बड़ा संकट है। राज्य के विकास सम्बन्धित तमाम आँकड़े हम तेरे जरिए ही दिखाएँगे, तो लोग सच मान लेंगे। क्योंकि भोली प्रजा भी तो यही मानती है कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता।”

“मग़र गरीबी, बेरोज़ग़ारी, महँगाई जैसे आँकड़ों का सच मैं कैसे छिपाऊँगा, राजन? मैं धोख़ा नहीं दे सकता। दर्पण जो हूँ।” दर्पण ने अचानक अपनी औक़ात से बाहर कदम रख दिया है।
लेकिन दर्पण की इस बात से राजा को गुस्सा नहीं आया। बल्कि उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा भर दिए। राजा चाहते तो हँस भी सकते थे। बात ही इतनी हास्यास्पद थी। फिर भी मुस्कुराए भर।

“हर आँकड़े का सच प्रजा को मालूम होना ही चाहिए, राजन।” दर्पण अब नैतिकता पर उतरने का दुस्साहस करने लगा है।

“तू बहुत छोटा है दर्पण। हर आँकड़ा तुझ में नहीं समा सकता। तो हम वही आँकड़े दिखाएँगे, जो राज्य के विकास का प्रतिबिम्ब दर्शाएँ।” राजा ने बाग़ी होते जा रहे दर्पण को बहलाने की कोशिश की।

“लेकिन मैं सहमत नहीं हूँ।” दर्पण की बदतमीज़ी बढ़ रही थी अब।

“तू एक राजा के महल का दर्पण है। यह बात कैसे भूल गया?” राजा का धैर्य ज़वाब दे गया। इसलिए मुट्‌ठी भींचकर राजा चीख पड़े। दर्पण भी एक पल के लिए काँप उठा। फिर सँभलकर बोला, “ग़ुस्ताख़ी माफ़ राजन, दर्पण तो दर्पण होता है, फिर वह गरीब की झोपड़ी में लगा हो या किसी राजा के महल में।”

दर्पण की ज़बान कड़वी होती जा रही है। वह थोड़ा-थोड़ा स्वाभिमानी हो रहा है। इससे बात आगे बढ़ती गई… और बढ़ती ही चली गई… फिर इतनी बढ़ी कि दर्पण ने औक़ात की तमाम सीमाएँ पार कर लीं।

मग़र राजा तो राजा है। सो, ग़ुस्ताख़ दर्पण के साथ वही हुआ, जिसके वह लायक था। वह अब ज़मीन पर है। टुकड़े-टुकड़े। उसको सज़ा मिल चुकी है। राजा की सहृदयता पर ग़ुस्ताख़ी करने का नतीज़ा क्या होता है, दर्पण के उन टुकड़ों से यही कहने के लिए राजा नीचे की ओर झाँके, थोड़ा झुके भी। लेकिन अब वहाँ एक दर्पण नहीं है। टुकड़े-टुकड़े कई दर्पण हैं। सभी ग़ुस्ताख़ी कर रहे हैं। अपने दिल की बात सुना रहे हैं। बात एक दर्पण ने शुरू की थी। अब कई दर्पण तक पहुँच चुकी है। राजा ने घबराकर अपने हाथों से कान ढँक लिए हैं। आँखें बन्द कर ली हैं। मुँह फेर लिया है। आख़िर, वह राजा जो हैं।

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(ए. जयजीत देश के चर्चित ख़बरी व्यंग्यकार हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के आग्रह पर ख़ास तौर पर अपने व्यंग्य लेख डायरी के पाठकों के उपलब्ध कराने पर सहमति दी है। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इसके लिए पूरी डायरी टीम उनकी आभारी है।)

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