दीपक गौतम, सतना मध्य प्रदेश
मेरे प्यारे बाशिन्दे,
मैं तुम्हें यह पत्र लिखते हुए थोड़ा सा भी खुश नहीं हो पा रहा हूँ कि इस बार मेरी अमराई (आम का बगीचा) में करहों (बौर) भी ढंग से नहीं आई है। तुम सोच रहे होगे कि ऐसा क्यों हो गया? तो मैं तुम्हें ये बता देना चाहता हूँ कि ये सब तुम्हारी नई पीढ़ी की उदासीनता की वजह से हुआ है। कभी यूँ भी होता था कि सयाने लोग खेल-खेल में पौधे रोपते-रोपते बड़े-बड़े बाग खड़े कर देते थे। लेकिन तुम्हारी पीढ़ी ने सिर्फ और सिर्फ मुझसे लेना सीखा है। शायद इसीलिए तुमने बचपन में मेरी अमराई के आम तो खूब चखे हैं, लेकिन कोई एक आम का पौधा तुमने नहीं लगाया। यदि लगाया होता, तो आज मेरी अमराई में बस कुछ गिने-चुने बचे आम के पेड़ नहीं होते। वह आम और आम के रसीलेपन से यूँ महरूम नहीं होती। अमराई के पास से गुजरने वाला हर आदमी आम से यूँ महरूम नहीं होता। गोया कि कुछ आम-जामुन के झाड़ बचे होते। अब इससे ज्यादा बेतकल्लुफी क्या होगी कि आम की बौर तो छोड़ो, आम के पेड़ ही नहीं बचे हैं। प्यारे अब मैं बहुत बदल गया हूँ कि तुमसे और किस-किस बात का रोना रोऊँगा। लेकिन आज की चिठ्ठी में गर्मी के इस मौसम में तुम्हारे बचपन की यादें ताजा करते हुए तुम्हें अपनी उस अमराई के हाल सुनाता हूँ, जिसमें लोट-पोटकर तुमने आम खाने सीखे हैं। तुम आम की मिठास शायद नहीं भूले होगे, भले ही तुमने अमराई के पेड़ों को मिट्टी-पानी और खाद डालना भुला दिया हो। वरना यूँ ही वो तबाह नहीं हुई होती। तुम्हें याद तो है न, कि दादू के बगीचे से लेकर गिरिजाबाग तक मेरी सौंधी मिट्टी में कितने आम के बगीचे हुआ करते थे।
मेरे प्यारे बाशिन्दे
मैं तुम्हारे बचपन की यादें लिखने बैठूँ, तो मुझे ही बूढ़ा होने का एहसास होने लगता है। इसीलिए इन्हें साझा करने से बचता हूँ। निमोर्ही आंँसू भी बह निकलते हैं। जरा-जरा नासूर सा चुभता है करेजे में और फिर कोई दर्द का सोता फूटता है कि धीरे-धीरे सब बह निकलता है। सालों बीत गए तुम्हें मेरी सीमा रेखा को लाँघे हुए। तुम लौटकर मेरी सुध लेने नहीं आए। बचपन से जवानी तक तुमने यहीं मुझसे साँसें उधार लेकर खुद को सींचा है। बात और है कि तुम मेरी अमराई को सींचना भूल गए। लगभग दो दशक बीतने को है। अब यहाँ सब बदल गया है। अब तो आम के वो दरख्त भी नहीं रहे, जिनके नीचे तुम्हारी गर्मी की दोपहर और सवेरे के कई घंटे बीते हैं। ठंड के मौसम में जहाँ शाम को आग का कूड़ा (अलाव) लगाकर गप्प और किसी के खेत से चोरी किए चने का होरा भुना जाता था। वह भी अब अपने अन्तिम चरण में हैं। खैर, सर्दियों के हाल फिर कभी कहूँगा। पहले मेरी अमराई में लगे पेड़ों के नाम तो सुन लो। शायद इनमें से कुछ तुम्हें याद भी हों। तुम्हारी अमराई का करिया, बसैधां, मालधा, लम्बी वाली, कोयलहा, सुपाड़ी, बदबदू, लदबदू, चपटुआ, नतनगरा, गुल्ला, झपर्रा, ठिर्री, कुशैलहा, खटुआ, लोढ़ामा और अकेलबा तुम्हें याद हैं? ये सब आम के पेड़ तुम्हारे बुजुर्गों की अदद मेहनत और परिश्रम का नतीजा थे, जो अब न के बराबर बचे हैं।
मेरे प्यारे
क्या तुम जानते हो कि हर आम का नाम उसकी खूबी के हिसाब से रखा गया था जैसे ‘अकेलबा’ मतलब जो बगीचे से दूर अकेले लगा है। इसीलिए ‘अकेलबा’ उसका नाम हो गया। ‘लम्बी वाली’ मतलब जिसके आम लम्बे से होते थे। ‘चपटुआ’ मतलब जिसका आकार चपटा होता था। जो आम सुपाड़ी की तरह था वह ‘सुपाड़ी’ ही कहलाता था। ‘लदबदू’ मतलब जो फलों से लदा रहे। अब इनके अवशेष ही बचे हैंं। तुम्हारा कितना समय बीता है इनकी छाँव में। इनके नीचे तपती दोपहर काटते हुए। तुम्हारी टोली आमरस से लेकर रोटी, अचार और चटनी तक सब यहीं चट करती थी। भूल गए कि तुम्हारी बचपन की पूरी गर्मियों की छुट्टियों वाली दोपहर यहीं गुजरी थीं। अब तो नए छोकरों को टीवी और मोबाइल से फुर्सत ही नहीं है कि अमराई की बची हुई जन्नत का मजा उठा सकें। हालांकि मैं उन्हें दोष नहीं दूँगा और न ही उनसे शिकायत है, क्योंकि जब तुमने ही मुझसे मुँह मोड़ लिया, तो वह अभागा मुझे क्या समझेगा जो शहर की कंक्रीट के जंगल में पलकर बड़ा हुआ है। अब न ही वह दौर है, और न मेरी अमराई में जान बची है कि मैं उसे लुभा सकूँ।
मेरे प्यारे
मुझे नई पीढ़ी से कोई गिला-शिकवा नहीं है। शिकायत तो मुझे बस तुमसे और तुम्हारी पीढ़ी से ही है। तुमने तो वह मिठास चखी है। आम को यूँ ही ‘फलों का राजा’ नहीं कहते, यह तुमसे बेहतर भला कौन समझ पाएगा। तुमने आम की विदेशी किस्में तो मुझसे बिछड़ने के बाद शहर में ही चखी होंगी। लेकिन छककर आम का मज़ा तो तुमने यहीं मेरी अमराई में लिया है। याद करो, जब ताजा-ताजा साहें (पका हुआ देशी आम) ‘लम्बी बाली’ (पेड़ का नाम) में चढ़कर गिराते थे। तुम्हें पता है, वह ‘लम्बी बाली’ तुम्हारे हाथों तक पके आम से लदी अपनी शाखा जानबूझकर झुका देती थी। कैसे तुम्हें साहें खिलाने को ‘लदबदू’ (पेड़ का नाम) भी आमादा हो जाती थी। सोचो जरा कि आम होकर भी उसका नाम स्त्रीलिंग में क्यों रखा गया था। तुम्हारे पूर्वजों ने एक जननी की तरह उसको देखा और समझा। जैसे माँ जीवन भर आखिरी साँस तक दुलार लुटाती है, वो ‘लदबदू’ भी सूखकर गिर जाने तक सबको अपना आमरस पिलाती रही।
मेरे प्यारे
मुझे ये सब लिखते हुए बेहद तकलीफ हो रही है कि धीरे-धीरे वो दरख्तों से भरी अमराईं अब शेष बचे दो-चार पेड़ों को लिए ही बेबस खड़ी हैं। मुझे बेहद खुशी होती यदि समय रहते तुम उनके साथ खड़े नजर आते। तुम शहर क्या गए कभी गर्मियों में अमराई की ओर मुड़कर तक नहीं देखा कि ‘लंबी बाली’ चली गई। ‘लोढ़ामा’ खत्म हो गया और न जाने मेरे दूसरे बगीचों के कौन-कौन से पेड़ खत्म हो गए। एक पेड़ का नाम ‘दीदी बाली’ था। उसकी साहें कितनी सुगंधित होती थीं। उससे तुमने बहुत आम चुराए हैं। कितनी शैतान टोली थी तुम्हारी बचपन वाली। याद करो रक्कू, पिन्टू, रज्जन, राजन, रामसेवक और तुम। सब भाइयों के साथ तुम्हारे दूसरे साथी। मामा, बुआ, मौसी, काकी और दूसरे रिश्तेदारों के बच्चे जो अक्सर गर्मियाँ यहीं बिताते थे। कभी गर्मियों में भी वह नाले से बनी नदी, जिसे ‘धपसिया’ कहते हैं लबालब भरी रहती थी और बहती भी थी। बस पूरी दोपहर बगीचे में आम और घर से लाई रोटियों का तुम मजा लेते थे। जब मर्जी आए एक डुबकी पानी पर मार लेते थे।
मेरे प्यारे
मैं तुम्हें और क्या-क्या याद दिलाऊँ कि बगीचे में ही एक झोपड़ी का अदद आशियाना बनाया जाता था। तुम लोगों को उसमें अपनी जरूरत का सारा सामान उपलब्ध हो जाता था। कुछ जरूरी तेजधार हथियार जो साँप-बिच्छू सहित बगीचे में उगे अनावश्यक झाड़ी-झंखाड़ की सफाई के लिए काम आते थे। ऐसे ही टॉर्च, बोरिया-बिस्तर और नमक-मसालों का भी इंतजाम जरूरी रहता था। आम पकने के समय रात का बसेरा भी तुम लोग बड़े भाइयों की निगरानी में करते थे। आँधी-तूफान आने पर बगल वाली अमराई के सारे पके आम बीनकर उसका खूब फायदा भी उठाते थे। क्योंकि उसका बूढ़ा सेवादार कक्काजी अक्सर रात में गायब रहता था। मेरी अमराई में बचपन में पेड़ों पर खेलने वाला एक प्रमुख खेल भी होता था ‘इमली का डंडा’। इसमें पेड़ के नीचे एक डंडा रखा जाता था और बारी-बारी सबको दाम देना होता था। पेड़ पर सारे खिलाड़ी छुपते थे, जो बच्चा दाम देता था उसे नीचे पड़े डंडे को चूमने से पहले सबको पकड़ना होता था। अगर किसी एक को पकड़ लिया तो वह दाम देगा। अमूमन एक ही छोकरा पूरी दोपहर दाम देता-देता थक जाता था, क्योंकि गिनती शुरू होते ही सब पेड़ पर टँग जाते थे और उससे बच-बचाकर इमली का डंडा चूम लेते थे। वे कब ऊपर से कूदकर नीचे आ जाते थे, नीचे वाले बच्चे को पता ही नहीं चलता था। क्योंकि वह पेड़ पर कभी इस बच्चे के पीछे उसे पकड़ने को भाग रहा होता था तो कभी किसी और को। तुम्हें याद नहीं काफी कसरत भरा मगर रोचक खेल होता था। इसमें कई बार कुछेक छोकरों के हाथ-पैर भी टूटे। कुछ भागने के चक्कर में ऊपर से ऐसे फिसले कि सीधा अस्पताल में प्लास्टर चढ़ाने की नौबत आ गई। ये सब उस याद का हिस्सा हैं, जिनके जुबाँ पर आते ही न जाने उस गोष्ठी के कितने बालसखा और सखियाँ तुम्हें अब भी बरबस याद आ जाती होंगी। मेरी अमराई में तुम्हारे बचपन की छिटकी ऐसी हजारों यादें हैं, जिन्हें लिखकर मैं तुम्हें और कुरेदना नहीं चाहता हूँ। क्योंकि धीरे-धीरे मैं अपना पुराना स्वरूप खोता जा रहा हूँ।
मेरे प्यारे
मैं तुम्हें इस पत्र के साथ सालों पहले लिया ये एक चित्र साझा कर रहा हूँ, जो तुम्हें मेरी अमराई का हाल बयाँ करेगा। शर्त बस यही है कि तुम फिक्र मत करना। ये उस दरख्त का चित्र है, जिसके आम खाकर तुमने आम खाना सीखा। याद करो अब तो दादू बब्बा भी नहीं रहे, जिनके बगीचा का यह पेड़ है। राम मन्दिर के किनारे बने खेल के मैदान के पास का दृश्य तो तुम्हें याद होगा। पता है अब वह कितना बदल गया है। मेरे इस प्यारे बगीचे को ईंट बनाने वाले भट्ठा ठेकेदारों ने सालों पहले रौंदकर रख दिया है। कभी इसी अमराई के बीच में तुम अपने बाबा के साथ खलिहान में रात बिताने आते थे। तब यहाँ तुम्हारा खलिहान रखा जाता था। क्या भूल गए, वे गर्मी की चाँदनी भरी रातें? जिनकी ठंडक तुम्हारे सीने में अब तक जज्ब होगी? तुम्हीं कहो कि शहर जाकर कितनी रातें खुले आसमान के नीचे तुम्हें सोना नसीब हुआ है? तुमने अपने बाबा के साथ खलिहान में खुले आसमान के नीचे कितनी रातें चाँद तारे गिनते हुए सुकून से नींद की चादर ओढ़कर बिताई हैं। निर्लज्ज, क्या तुम सब भूल गए हो?
मेरे प्यारे
मुझे माफ करना। मैं तुम्हें अपशब्द नहीं कहना चाहता हूँ, लेकिन तिल- तिल के मर रही मेरी अमराई को देखने के लिए मैं अभिशप्त हूँ। अब मैं तुम्हें अपना हाले दिल और नहीं लिख पाऊँगा कि मेरे बाग-बगीचे अपने चरम पर पहुँचकर अब अपने अन्त की ओर हैं। कुछ तो आधुनिक विकास की भेंट चढ़ गए हैं, तो कुछ अपनी उम्र पूरी कर सूख गए हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो केवल और केवल लापरवाही की वजह से सूख रहे हैं। अब तुम ही कहो कि तुम्हारे जैसे गाँव के कितने शैतान छोकरों का बचपन यहाँ अमराई में कैद है। मुझसे तुम और क्या चाहते हो कि मैं तुम्हारा बुढ़ापा आने तक मैं ही नहीं रह जाऊँ। इससे पहले कि मैं तुम्हारी सुखद यादों का खंडहर बन जाऊँ तुम चले आओ। मेरी अमराई तुम्हें बुला रही है…तू आ मेरे प्यारे….रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ…!!
— तुम्हारा गाँव
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पिछली चिटि्ठयाँ
3- मेरे प्यारे गाँव, शहर की सड़क के पिघलते डामर से चिपकी चली आई तुम्हारी याद
2 – अपने गाँव को गाँव के प्रेमी का जवाब : मेरे प्यारे गाँव तुम मेरी रूह में धंसी हुई कील हो…!!
1- गाँव की प्रेम पाती…,गाँव के प्रेमियों के नाम : चले भी आओ कि मैं तुम्हारी छुअन चाहता हूँ!
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(दीपक मध्यप्रदेश के सतना जिले के छोटे से गाँव जसो में जन्मे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से 2007-09 में ‘मास्टर ऑफ जर्नलिज्म’ (एमजे) में स्नातकोत्तर किया। मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में लगभग डेढ़ दशक तक राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, राज एक्सप्रेस और लोकमत जैसे संस्थानों में कार्यरत रहे। साथ में लगभग डेढ़ साल मध्यप्रदेश माध्यम के लिए रचनात्मक लेखन भी किया। इन दिनों स्वतंत्र लेखन करते हैं। बीते 15 सालों से शहर-दर-शहर भटकने के बाद फिलवक्त गाँव को जी रहे हैं। बस, वहीं अपनी अनुभूतियों को शब्दों के सहारे उकेर दिया करते हैं। उन उकेरी हुई अनुभूतियों काे #अपनीडिजिटलडायरी के साथ साझा करते हैं, ताकि वे #डायरी के पाठकों तक भी पहुँचें। यह श्रृंखला उन्हीं प्रयासों का हिस्सा है।)