किस डर ने अंग्रेजों को अफ़ग़ानिस्तान में आत्मघाती युद्ध के लिए मज़बूर किया?

माइकल एडवर्ड्स की पुस्तक ‘ब्रिटिश भारत’ से, 23/8/2021

लॉर्ड हेस्टिंग्स भले साम्राज्य विस्तार के समर्थक रहे, लेकिन उन्होंने प्रशासनिक व्यवस्था में काफ़ी सुधार भी किए। उनके कार्यकाल में कई उल्लेखनीय प्रशासक सामने आए। जैसे- मोंस्टुअर्ट एल्फिंस्टन (दक्षिण), कर्नल टॉड (राजपुताना) और थॉमस मुनरो (मद्रास)। ये लोग हिंदुस्तान की वास्तविकताओं, यहाँ की भौगोलिक, प्रशासनिक आवश्यकताओं से अच्छी तरह परिचित थे। लिहाज़ा उन्होंने इन्हीं के मुताबिक अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों को संज़ीदगी से स्वीकारा और उनका निर्वहन किया।

लॉर्ड हेस्टिंगस के बाद 1823 में हिंदुस्तान आए लॉर्ड एमहर्स्ट। बर्मा के ख़िलाफ़ पहला युद्ध इन्हीं के कार्यकाल में लड़ा गया। उसी दौर में बंगाल के बैरकपुर में स्वदेशी पैदल सेना (47वीं बंगाल नेटिव इंफेंट्री) में विद्रोह (1824) हुआ। इस सैन्य टुकड़ी को युद्ध के लिए बर्मा जाने को कहा गया था। लेकिन प्रचलित भारतीय मान्यताओं के मुताबिक समुद्र पार कर यात्रा करना धर्मविरुद्ध माना जाता था। लिहाज़ा, भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों का आदेश का मानने से इंकार कर दिया। गुस्साए अंग्रेजों ने विद्रोही सैनिकों को गोली से उड़ा दिया। इस तरह विद्रोह का दमन किया और सेना बर्मा रवाना हुई। 

हालाँकि अन्य गवर्नर जनरलों ने प्रशासनिक और सामाजिक सुधारों पर भी ध्यान दिया। इनमें लॉर्ड विलियम बेंटिंक का नाम प्रमुख है। वे 1828 से 1835 तक गवर्नर जनरल रहे। उनके शासन के दौरान हिंदुस्तान में ईसाइयत का प्रचार-प्रसार खूब हुआ। संभवत: इसी के परिणामस्वरूप सती प्रथा का उन्मूलन (1829) हुआ। कुछ ऐसी हिंदु मान्यताओं पर भी कुठाराघात किया गया, जिन्हें कम-मानवीय माना जाता था। इस दौर में ईसाई धर्म के प्रचारक अपने ‘धार्मिक विचारों’ को ग़ैरईसाइयों पर थोपने का इरादा कर चुके थे। जबकि ग़ैरईसाई इसके इच्छुक नहीं थे। इससे टकराव की भूमिका बन रही थी। सही मायने में यहीं से अंग्रेजों को बोझ समझने वाली धारणा बनने की भी शुरूआत हो चुकी थी। बेंटिंक्स के समय भारतीय राजाओं और अंग्रेजों की सत्ता के बीच आधुनिक संबंधों की रूप-रेखा भी मुकम्मल हो चुकी थी। इसका 1947 में भारत की आज़ादी तक पालन किया गया। इस बीच, मैसूर में प्रशासनिक अव्यवस्था के ख़िलाफ़ 1831 में किसानों ने विद्रोह किया था। उसे कंपनी की फौज़ ने कुचल दिया। 

बेंटिंक के बाद सर चार्ल्स मेटकाफ गवर्नर जनरल बने। वह कंपनी की लोक सेवा के सदस्य थे। मगर चूँकि उस समय नियम था कि कंपनी का कोई कर्मचारी गवर्नर जनरल नहीं बन सकता। लिहाज़ा 1836 में लॉर्ड ऑकलैंड को गवर्नर जनरल बनाया गया। उस समय लॉर्ड पामर्सटन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने ऑकलैंड को विशिष्ट निर्देश देकर भेजा था। इन निर्देशों ने ऑकलैंड को यह मानने पर विवश किया कि भारत पर रूस हमला कर सकता है। रूस के हमले का भय उनके मन में समा गया था। उन्हें लगता था कि रूस उनके दरवाज़े तक आ गया है। जबकि सच यह था कि रूस का भारत से नज़दीकी आधार शिविर, ऑरेनबर्ग, पश्चिम में आख़िरी ब्रिटिश चौकी से करीब दो हजा़र मील दूर था। इन दोनों स्थानों के बीच पंजाब और अफ़ग़ानिस्तान था। फिर भी ऑकलैंड के भय के कारण ही अंग्रेज ग़ैरज़िम्मेदार अफ़गान युद्ध (1838-1842) की ओर उन्मुख हुए। यह युद्ध लॉर्ड ऑकलैंड को दी गई ग़लत सलाहों का नतीज़ा था। शुरू में ही यह अंग्रेजों के लिए आत्मघाती साबित हुआ। ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों की 16,000 की फौज़ इस युद्ध के लिए भेजी गई थी। इनमें से अधिकांश या तो मारे गए या क़ैद कर लिए गए। फिर भी अंग्रेज लड़ते रहे। हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान पर अंतिम विजय से पहले उन्हें तमाम कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ा। 

इसके बाद सिलसिलेवार प्रतिक्रियाएँ हुईं। इन्हीं के तहत 1845 में पहला आंग्ल-सिख युद्ध हुआ। उस वक़्त महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु (1839) के बाद पंजाब में उत्तराधिकार के संघर्ष और गृहयुद्ध की स्थिति थी। उन्हीं हालात में सिख लड़ाकों की टुकड़ी ब्रिटिश भारत की सीमा में जा घुसी। परिणामत: तीन महीने से कम समय में चार लड़ाईयाँ हुईं। अंग्रेजों को इन लड़ाईयों में भी भारी नुकसान हुआ। हालाँकि अंत में जीत उन्हीं की हुई। इसके बाद कुछ समय के लिए शांति स्थापित हो गई। दोनों पक्षों में समझौता हुआ। इसके तहत हेनरी लॉरेंस को पंजाब के किशोरवय राजा का संरक्षक बनाकर लाहौर में बिठा दिया गया।

लॉर्ड ऑकलैंड 1842 में इंग्लैंड लौटे। उनकी जगह लॉर्ड एलेनबरो गवर्नर जनरल बने। मगर कंपनी के निदेशकों के प्रति उनका व्यवहार ऐसा था कि उन्हें दो साल में ही वापस बुला लिया गया। हालाँकि उनके छोटे से कार्यकाल में भी अंग्रेजों ने ग्वालियर पर आधिपत्य जमा लिया। एलेनबरो के बाद 1848 तक लॉर्ड हार्डिंग वायसराय (गवर्नर जनरल) रहे। उनके दौर में अंग्रेजों ने मुस्लिम बहुल कश्मीर को हड़प लिया और उसे हिंदु राजा गुलाब सिंह को बेच दिया। यहाँ से ‘कश्मीर की वह समस्या’ शुरू हुई जो आज भी बनी हुई है।

लॉर्ड डलहौजी ने 1848 में हिंदुस्तान के वायसराय का पद सँभाला। उनके समय पंजाब में दूसरा विद्रोह हुआ। मुल्तान में अंग्रेाजों के प्रतिनिधि की हत्या से इसकी शुरूआत हुई। इसके बाद हुई लड़ाईयों में ब्रिटिश सेना का नेतृत्व सर ह्यू गफ ने किया। वह इससे पहले चिलियाँवाला की लड़ाई में हारते-हारते बचे थे। इसलिए इस बार चिलियाँवाला का सबक याद रखा और आसानी से जीत हासिल की। ब्रिटिश सेना ने 1849 में गुजरात में लड़ाई जीती और करीब-करीब इसी के साथ पंजाब को भी हड़प लिया।

ब्रिटिश भारत में डलहौजी का कार्यकाल तेज निर्णायक गतिविधियों वाला रहा। डलहौजी ने ही ‘विलय का सिद्धांत’ लागू किया। इसके मुताबिक भारतीय राजा दत्तक संतान को अपना उत्तराधिकारी नहीं बना सकते। इसके जरिए अंग्रेजों ने सबसे पहले सातारा पर कब्ज़ा किया। फिर झाँसी, नागपुर और अन्य पर। इसी बीच 1851 में आख़िरी मराठा पेशवा का निधन हो गया। वे तीन दशक से अंग्रेजों के पेंशनर थे। लेकिन डलहौजी ने उनके पुत्र नाना साहिब को पेंशन देने से मना कर दिया। इसी दौर में हिंदुस्तान में पहली रेल लाइन की शुरूआत (1853) हुई। हिंदुस्तानियों का परिचय इलेक्ट्रिक टेलीग्राफ (तार) से हुआ। अंग्रेजों ने 1856 में अवध पर भी कब्ज़ा कर लिया और इसी साल डलहौजी ने भारत छोड़ा। हालाँकि उनके उत्तराधिकारी लॉर्ड कैनिंग भी उन्हीं की नीतियों पर चले। इससे भारतीय राजाओं तथा सिपाहियों में असंतोष बढ़ता गया और अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बड़े विद्रोह की भूमिका तैयार हुई।

(जारी…..)

अनुवाद : नीलेश द्विवेदी 
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(नोट : ‘ब्रिटिश भारत’ पुस्तक प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से जल्द ही प्रकाशित हो रही है। इसके कॉपीराइट पूरी तरह प्रभात प्रकाशन के पास सुरक्षित हैं। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ श्रृंखला के अन्तर्गत प्रभात प्रकाशन की लिखित अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर इस पुस्तक के प्रसंग प्रकाशित किए जा रहे हैं। देश, समाज, साहित्य, संस्कृति, के प्रति डायरी के सरोकार की वज़ह से। बिना अनुमति इन किस्सों/प्रसंगों का किसी भी तरह से इस्तेमाल सम्बन्धित पक्ष पर कानूनी कार्यवाही का आधार बन सकता है।)
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