संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 21/8/2021
यूँ तो रोज ही छुट्टी है, लेकिन इन दिनों रविवार का अपना मज़ा है। लिहाज़ा उस रोज़ सोचा कि कुछ बटन टूट गए हैं, उन्हें टाँक लूँ कमीज़ में। सो, सुई धागा खोजा पर मिला नहीं। दोपहर को याद आया। फिर जब सुई धागा मिला, तो बटन नहीं मिले। बटन मिले तो उनमें से लाल वाले गायब थे, जिनकी ज़रूरत थी। अन्त में वह कमीज़ ही भूल गया, जिसके बटन टूट गए थे।
जीवन में हर खोज का अर्थ और अन्त इसी तरह नई खोज को जन्म देता है। और हम तमाम उम्र ऐसे ही व्यस्त रहने का स्वाँग रचते रहते हैं। इसी में सुख है।
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कई दिनों से गमलों में ख़रपतवार उग आई है। मिट्टी साफ नहीं की, खाद अच्छा बन गया है। पर उसे भी गमलों में डाल नहीं पाया हूँ। पंखे पर धूल, आलमारी पर धूल, कमरे में धूल, किताबों पर धूल। अर्थात् हर जगह धूल का ही साम्राज्य है पर मैं हटा नहीं रहा हूँ। धूल का हर जगह होना शुभ है। यदि हटा दूँगा तो चीज़ें मूल स्वरूप में सामने आ जाएँगीं और मैं, हम सब ही मूल बातों, मुद्दों या अतीत से बेहद डरते हैं। इसलिए धूल बर्दाश्त करते हैं, फिर वह चाहे चीज़ों पर पड़ी हो। स्मृतियों के फलक पर या मन के किसी कोने में।
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तीसरे माले पर पानी की टंकी है। पानी उसमें ज़मीन के अँधेरे तलों से लम्बी यात्रा कर आता है। लम्बे-लम्बे लगभग चार सौ फीट के पाइप हैं। बिजली की ताक़त जाया होती है, पानी को इतने ऊपर लाने में। दिन में दो बार यह पानी खींचा जाता है, जमीन के गहरे अँधेरे तल से। पर जब यह ऊपर आता है, टँकी में, तो मेरा मन पुलकित हो जाता है। मैं कुछ देर अपने हाथ के पंजे उस पानी की धार में डुबो देता हूँ। पानी की ठंडक महसूस करता हूँ।
यह समझ साफ बनी है कि बहुत अन्दर से जब कुछ बड़ी ताकत के साथ आता है, तो वह पुलकित और प्रफुल्लित कर देने वाला तथा ठंडा होता है। उसे छूकर या उसमें डूबकर हम अपना संताप, अवसाद भूल जाते हैं। हमें अपने जीवन में वह खोजना होगा, जिससे हम प्रफुल्लित हो जाएँ। उसमें डूबकर मन किसी बच्चे सा सहज हो जाए।
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मेरी छत पर दो पिंजरे हैं। इनमें लव बर्ड्स की जोड़ियाँ थीं। भतीजे ने लाकर उपहार में दी थीं, जब वह पढ़ाई करने मुम्बई जा रहा था। सोचकर कि बच्चे घर में नही होंगे तो हमारा मन लगा रहेगा। लेकिन तीन साल पहले भीषण गर्मी में एक-एक करके सब पंछी मर गए। पहले एक मरा, फिर उसकी याद में शेष चीं, चीं, चीं करते रहते। फड़फड़ाते रहते। धीरे-धीरे वे भी सिधार गए। अब शेष रह गए हैं पिंजरे। जब हम इस मकान में रहने आए थे, तो एक कुत्ता पाला था अल्सेशियन नस्ल का। आठ साल बाद वह मर गया। फिर एक डाबरमैन पाला। वह भी मर गया। पंछियों को मुक्त नहीं किया। कुत्ते मरते रहे। लोहे की साँकलों में जकड़े जीवन काट दिया। अब पिंजरे और मोटी साँकलें शेष हैं घर में, जो अक्सर याद दिलाती हैं कि जब जीवन था तब जिए ही नहीं। मुक्त नहीं हुए, अपनी ही वर्जनाओं और बन्धनों से। सब कुछ मिलता रहा, समय-समय पर, तो कुछ नहीं किया। अब, जब जीवन ही खत्म हो गया तो हम उन सबको याद कर द्रवित हो रहे हैं।
पिंजरे हो या साँकलें, हमें ही तोड़ना होंगी। क्योंकि तापमान तो स्थिर नहीं है। मौसम का अर्थ ही बदलना है। मिट्टी होती ही है, सबको अपने भीतर समाहित कर लेने के लिए। तो फिर इन पिंजरों और साँकलों को कौन तोड़ेगा? जीना है तो जोख़िम लेना ही होगा।
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बहुत दिनों से एक काम कर रहा हूँ। शुरू में लगा था कि नहीं कर पाऊँगा पर बार-बार अपने को समझाता रहता हूँ कि हो जाएगा, कर लूँगा। जब जीवन में मुश्किल घड़ियाँ गुजार लीं, तीन-तीन मौतों को गोद में देख लिया, तो यह काम उस तुलना में बहुत आसान है। लेकिन काम नहीं हो पा रहा है। दृढ़ता से मना भी नहीं कर पा रहा हूँ। इसीलिए अब सोचा है कि इसके बाद जीवन मे ऐसा कुछ नहीं करूँगा, जिससे तनाव हो और चौबीसों घँटे अपराध-बोध या ग्लानि होने लगे। वैसे 54 वर्षों में भरपूर जीवन जिया। यायावरी की। बेहद सामान्य बुद्धि का मनुष्य होने के नाते सही, गलत सब किया। आज यह कहने, मानने में भी कोई गुरेज़ नहीं कि बेहद ओछी हरक़तें भी कीं। मगर अब उम्र के इस पड़ाव पर ही सही, न कहने की हिम्मत आ गई है।
सच कहता हूँ यदि हम न कहने का साहस अपने भीतर जुटा लें, तो जीवन के उत्तरार्ध में कभी पछतावे के पुलिन्दे उठाने का हौसला करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
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हम सब याचक हैं, भले कितने भी शक्तिशाली हों। अदना सा कद है हमारा, आकांक्षाएँ लाख कितनी भी ऊँची हों। इसीलिए ध्यान रखें कि हमारे छोटे-छोटे काम, व्यवहार और प्रेम से बोले गए दो मीठे बोल ही हमें सही मायनों में बड़ा बनाएँगे।
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मैं कुछ किसी को दे नहीं सकता सिवाय उम्मीदों और दुआओं के। जिनके बिना किसी का जीवन नहीं चल सकता, वह सब आपको देता हूँ।
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माफ़ी माँगने से कुछ नहीं होता। पर गठानों को खुलने का रास्ता मिल जाता है।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 24वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
23वीं कड़ी : बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है
22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा
21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो
20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं
19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!
18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा
17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!
16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!