काबुलीवाला से संयुक्त राष्ट्र- हम अफ़ग़ानिस्तान के ड्रायफ्रूट्स के लिए चिन्तित हैं!

ए. जयजीत, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 19/8/2021

काबुलीवाला … हाँ, वही काबुलीवाला। याद ही होगा सबको। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की कहानी का पात्र काबुलीवाला। पाँच साल की बच्ची मिनी का अधेड़ दोस्त काबुलीवाला। कोलकाता की गलियों में घूम-घूमकर सूखे मेवे (ड्रायफ्रूट्स) बेचता काबुलीवाला। मिनी में अपनी बेटी को याद करता काबुलीवाला। 

आज यह काबुलीवाला फिर आया है। चौराहे पर खड़ा है, अकेला। उसकी यादों में अब कोई बेटी नहीं है। बेटी को तो वह तालिबान के रहमो-करम पर छोड़ आया है। उसकी झोली में अब वे ड्रायफ्रूट्स भी नहीं हैं। कुछ हैं तो चन्द सवाल। कुछ पुराने, कुछ नए। वह शायद जानता है कि उसे या उसके सवालों को सुनने वाला भी कोई नहीं है। फिर भी उसने अपनी झोली में कम से कम कुछ सवाल तो बचा रखे हैं। 

जब आदमी को कोई सुनने वाला नहीं होता तो वह ख़ुद से बातें करने लगता है। तब वह पागल भी करार दिया जाता है। और जब कोई पागल जैसी हरक़तें करता है तो तमाशा बन ही जाता है। तमाशबीन जुट जाते हैं। काबुलीवाला भी आज पागल की तरह चौराहे पर खड़ा है। झोली से सवाल निकाल रहा है। उसके सवालों के ज़वाब किसी के पास नहीं हैं। या हैं भी तो ज़वाब कोई दे नहीं रहा है। लिहाज़ा अपने सवालों के ज़वाब भी वह खुद ही दे रहा है। 

पागलपन बढ़ते ही मज़मा बढ़ चला है। काबुलीवाले का तमाशा देखने के लिए पूरी दुनिया जुट गई है। यह लेखक भी चुपचाप उसी तरह तमाशबीन भीड़ का हिस्सा है, जैसे कई और हैं।

काबुलीवाले ने अपनी झोली से पहला सवाल निकाला। ख़ुद ही बड़बड़ाते हुए पूछने लगा, “हे संयुक्त राष्ट्र, तू क्यों चुप बैठा है? तुझ पर तो हर साल तीन अरब डॉलर खर्च होते हैं। यह इतना पैसा है कि हमारे जैसे कई मुल्कों के बाशिन्दों को एक वक़्त की रोटी मिल सकती है। मगर यहाँ रोटी भी नसीब नहीं है। न बहन-बेटियों को इज़्ज़त। फिर भी तू चुप बैठा है? तुझे हमारी कोई चिन्ता नहीं?” 

पागलपन में आदमी अक़्सर अदब भूल जाता है। नहीं तो काबुलीवाले की क्या औक़ात कि संयुक्त राष्ट्र के साथ तू-तड़ाक से बात करे! किसी और की भी क्या हैसियत संयुक्त राष्ट्र के सामने!

पर बेचारा संयुक्त राष्ट्र भी क्या करे। उसे तो मालूम भी नहीं होगा कि कोई काबुलीवाला उससे सवाल कर रहा है। पता नहीं, उसे यह भी मालूम है या नहीं कि दुनिया में अफ़ग़ानिस्तान नाम का कोई मुल्क भी है। और मालूम करके करेगा भी क्या!

अफ़ग़ानिस्तान जैसे तो न जाने कितने देश होंगे। सबकी इतनी फ़िक्र करेगा तो बड़े देशों की जी-हुज़ूरी करने का समय कब मिलेगा। जी-हुज़ूरी को छोटा काम न समझें। बड़े झंझट होते हैं इसमें। न जाने कितनी बार सिर झुकाना होता है। उनके प्रस्तावों पर दस्तख़त करने होते हैं। वह भी आँख बन्द करके। उफ्फ़! कितना मुश्किल होता होगा ये सब। तो अफ़ग़ानिस्तान जैसे छोटे मसलों में फँसना उसके लिए ठीक नहीं। इसलिए संयुक्त राष्ट्र से सवाल पूछने से बड़ा ‘तालिबानी ज़ुर्म’ और क्या होगा?

वैसे अगर संयुक्त राष्ट्र ख़ुद उस चौराहे पर उपस्थित होता, तब भी इस सवाल का ज़वाब देना उचित नहीं समझता। हालाँकि ये हो सकता है कि किसी अन्य भेष में वह उस चौराहे पर तमाशबीन बना बैठा हो। ख़ुद काबुलीवाला भी जानता है कि संयुक्त राष्ट्र से इसका ज़वाब नहीं मिलना है। तो उसने ख़ुद ही संयुक्त राष्ट्र की ओर से धीमी मगर सधी आवाज़ में ज़वाब देना शुरू किया। वैसे ही जैसे ऐसी सम्भ्रान्त संस्थाओं के कुलीन अफ़सर देते हैं।

“चिन्ता मत करो काबुलीवाला। हम बहुत ही शिद्दत से तुम्हारे साथ हैं। पिछले कई दिनों से हम तुम्हारे लिए चिन्ता जता रहे हैं। तीन दिन पहले ही हमारे महासचिव ने पूरी दुनिया को इस मामले में साथ आने को कहा है। और क्या चाहिए तुम्हें? वैसे क्या तुम्हारे लिए यह गर्व की बात नहीं कि हमारे सभी अफसर तुम्हारे यहाँ के ड्रायफ्रूट्स खाकर ही अपने दिन की शुरुआत करते हैं। कसम से, क्या क़माल के ड्रायफ्रूट्स पैदा करते हो तुम लोग। लेकिन यहीं पर हमारे लिए एक चिन्ता की बात और है।”

“और क्या चिन्ता रह गई?”, काबुलीवाला ने ख़ुद ही प्रतिप्रश्न किया। 

“अरे तुमने शायद वह क्लिपिंग नहीं देखी, जब तालिबान के नेता भी ड्रायफ्रूट्स खा रहे थे। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे यहाँ के सारे ड्रायफ्रूट्स पर तालिबान का कब्ज़ा हो जाए। कितनी बेरहमी से वे ड्रायफ्रूटस खा रहे थे। पूरी दुनिया ने देखे हैं वे दृश्य। वाक़ई दिल दहला देते हैं। बहुत ही बर्बर हैं, तुम्हारे यहाँ के तालिबान। अफ़ग़ानिस्तान के ड्रायफ्रूट्स को लेकर हम वाकई बहुत चिन्तित हैं। हम फिर कह रहे हैं, अपना ध्यान रखना और हमारे ड्रायफ्रूट्स का भी। हम ज़ल्द ही एक मीटिंग करने वाले हैं। उस मीटिंग में भी हम ज़ोरदार शब्दों में चिन्ता जताएँगे। तुम बिल्कुल भी चिन्ता मत करना।”

काबुलीवाला ठहरा पागल। संयुक्त राष्ट्र को तुरन्त छोड़कर उसने झोले से दूसरा सवाल निकाल लिया। यह सवाल अमेरिका से था। सवाल था तो घिसा-पिटा ही, फिर भी सुन लेते हैं, “तू तो ख़ुद को पूरी दुनिया का चौधरी मानता है। तो अब अचानक अफ़गानिस्तान को बीच भँवर में छोड़कर क्यों जा रहा है? तेरे सारे हथियार चूक गए हैं क्या?”

अमेरिका की तरफ़ से काबुलीवाला ने ही ज़वाब दिया, “क्यों भूल गया हमारे सारे अहसान? अहसान फ़रामोश! मैंने सालों तुम्हारे बेरोज़ग़ार मुज़ाहिदीन को पाला-पोसा। उनके हथियारों पर करोड़ों-अरबों का ख़र्च किया। बदले में मुझे क्या मिला? ओसामा बिन लादेन? फिर उससे छुटकारा पाने के लिए अरबों-ख़रबों खर्च करने पड़े। फ़िर अफ़ग़ानिस्तान की भ्रष्ट सरकारों को पालना-पोसना पड़ा। इतना तो किया? अब अफ़ग़ानिस्तान को बर्बाद करने का पूरा ठेका हमने ही थोड़े ले रखा है।”

अमेरिका का ज़वाब शायद काबुलीवाला ने सुना नहीं। हाँ, तमाशबीनों की भीड़ ने सुन लिया है। इसीलिए तालियों की आवाज़ आ रही है। 

काबुलीवाले के झोले में तो कई सवाल हैं। सो, अगला सवाल पाकिस्तान से। पर उसने तो सवाल को बड़ी ही हिक़ारत से देखा और ज़मीन पर फेंककर पैर से मसल दिया। फ़िर और भी कई सवाल निकले – रूस से, चीन से, पश्चिमी मुल्कों से। लोक-कल्याण का दावा करने वाली विश्व संस्थाओं से। पर कहीं से कोई ज़वाब नहीं..

अब तो काबुलीवाला ही इन तमाम सवालों को ज़मीन पर फेंकता जा रहा है। पूरा पागल जैसा बर्ताव करने लगा है। इसलिए तमाशबीनों को और मज़ा आने लगा है। तालियों की आवाज़ बढ़ गई है। वे सब भी शायद तमाशबीन का हिस्सा ही हैं, जिनसे पूछने के लिए काबुलीवाले के झोले में सवाल हैं।

अब उसके झोले में बस एक अन्तिम सवाल बाकी है। उसे निकालते ही उसने चूम लिया। उसे याद आ गई कोलकाता की वह गली जहाँ वह पहली बार उस बच्ची मिनी से मिला था। उसे ड्रायफ्रूट्स देता था। लेकिन अब न वह मिनी रही होगी, न गली। जिससे वह अन्तिम सवाल है, वह भी तमाशबीनों की भीड़ में शामिल नहीं है। मगर उसके साथ भी नहीं है। वह कहीं दूर उसकी ओर पीठ किए बैठा है। कारण कि वहाँ भी तो मानसिकता पर तालिबान चिपक गया है। तो ज़वाब देने का नैतिक साहस शायद उसके पास भी कहाँ होगा!

काबुलीवाला की आँखों के किनारे से आँसू की एक बूंद गिर पड़ी है। तमाशबीनों का हिस्सा बने इस लेखक की आँखें भी नम हैं, पर उसे तो तटस्थ रहना है। तटस्थता ही सबसे सुरक्षित होती है।

काबुलीवाला ने वह सवाल ससम्मान अपने झोले में वापस सरका दिया है। शायद यह सोचकर कि जब आमने-सामने मुलाक़ात होगी तो पूछेगा, “क्यों भुला दिया अपने काबुलीवाले को!! क्यों भुला दिया उस गान्धार को जिसे जीतने के लिए भीष्म ने एक पल की भी देरी नहीं की थी? अपने पितामह को याद करके भी अब क्यों तुम्हारी भुजाएँ फड़क नहीं रही हैं?” 

पूछेगा…. ज़रूर पूछेगा वह…। और ज़वाब भी देना ही होगा! 
——
(ए. जयजीत देश के चर्चित ख़बरी व्यंग्यकार हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के आग्रह पर ख़ास तौर पर अपने व्यंग्य लेख डायरी के पाठकों के उपलब्ध कराने पर सहमति दी है। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इसके लिए पूरी डायरी टीम उनकी आभारी है।)

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *