बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा, यह निश्चित नहीं है

संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से 14/8/2021

दिन के चौबीस घंटों में एकांत यूँ ही आता है, टुकड़ों में और हम उसमें एकसार होते हैं। फिर जीवन में लौट जाते हैं, जहाँ शोर है और सन्नाटा। 
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कभी दूध को गर्म करें, अपनी आँखों के सामने। बहुत एकाग्रता लगती है। फोकस करना पड़ता है और अक्सर इन दोनों के होने के बाद भी उफनकर दूध बाहर निकल जाता है। जीवन में मौके ऐसे ही होते है प्रायः।

सब कुछ पा लेना हैं। नाम, यश, धन, कीर्ति, समृद्धि, शान्ति, मोक्ष और वह सब, जो कोई नहीं पा सका। पर लगातार इस सबको पाने की होड़ में हम ख़त्म होते जाते हैं। यह भूल जाते हैं कि 60-70 बरस की छोटी सी उम्र में संसार जीतना चाहते हैं। वहाँ नाम लिखना चाहते हैं अपना, जहाँ कोई पढ़ भी न सके। 
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पहाड़ी पर चढ़ते हुए, नदियों को पार करते हुए, समुद्र की लहरों के संग मचलते हुए हम यह भूलते हैं कि ये अमर हैं, अजर हैं। इनके होने से ही प्रकृति है और सौंदर्य भी। पर हम होड़ लेते हैं और इनसे जीत लेना चाहते हैं। भोलेपन की कोई सीमा नहीं। 
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मुझे एक साथी शिक्षक की पत्नी का दुखद निधन हमेंशा याद आता है। वह भोपाल की एक रेलवे क्रॉसिंग पर शाम को लौट रही थी और फाटक बन्द होने के बाद भी नीचे से झुककर पार होना चाह रही थी, अपनी आदत के अनुसार। पर उसे न आती हुई रेल दिखी और न शोर सुनाई दिया। वह सैकड़ों लोगों के सामने तेजी से आ रही रेल के सामने कट कर मर गई। घर पर उसके बच्चे और पति इन्तज़ार कर रहे थे। आदतें कहीं का नहीं छोड़तीं। वे हमारी तन्द्रा भंग कर जीवन खत्म कर देती हैं।

मद्रास (अब चेन्नई) के अपोलो अस्पताल का वह दृश्य भूले नहीं भूलता, जब माँ को बायपास सर्जरी करवाने ले गया था 1992 में। एक 22 साल का लड़का गौहाटी से आया था अपने बड़े दिल के साथ क्योंकि वह ज़्यादा साँस लेता था। उसका दिल सामान्य आकार से दो गुना बड़ा था पर वह बच नहीं पाया था। दिलदार या बड़ा दिल होने से जीवन लम्बा हो जाएगा यह निश्चित नहीं है।

कहते हैं, अक़्सर श्मशान में उनकी लाशें पूरी तरह जल नहीं पातीं जो जीवन में एकल रह जाते हैं या जिनकी इच्छाएँ अधूरी और अतृप्त रह जाती हैं। घी, लकड़ी, कपूर, आटे के गोले, समिधा की सामग्री, काले तिल और सही दिशा में बहती हुई हवा भी शरीर को भस्म नहीं कर पाती। अपने को ही स्वीकारना होगा, मुक्त करना होगा। स्वयं की बनाई सीमाओं को तोड़कर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। तभी कबीर कहते हैं, “हद तके सो औलिया, बेहद तके सौ पीर। हद, बेहद दोऊ तके, वो ही सन्त फकीर।।”

अक़्सर डूबते वो हैं, जो बहुत अच्छा तैरना जानते हैं। जिसे नहीं आता, उसे कोई भी खींचकर बचा लेता है। दो झापड़ मारकर होश में भी ले आता है। पर जो सब जानता है, वह डूब भी गया तो कोई बचाता नहीं। यह समझकर विलोपित होने देते है कि प्रतिफल नहीं पाया होगा। इसलिए इहलीला समाप्त कर ली होगी। और पानी ने बाहर भी फेंका तो कोई ध्यान नहीं देता। अज्ञान बेहतर और अचूक है।

जीवन में तनाव, काम और लक्ष्य कम नहीं होंगे। हमारे लिए जिसने भी जो कुछ निर्धारित किया है, वह किश्तों में आता रहेगा और इतना ही आएगा, जितना करने की क्षमता होगी हम में। इसलिए यह मत सोचना कि हमको ही ज्यादा मिला और किसी को नहीं। सुख, दुख, धन, वासना या स्मृतियाँ, ये सब सबको समान मिली हैं, जो भी इस मार्ग से गुजरा है। बस फ़र्क यह है कि दृष्टि का उपयोग सबने अपनी अपनी आवश्यकता के अनुसार किया है।

एकांत में बुदबुदाना, किसी परम शक्ति को ध्यान करके हरदम माँगना ग़लत कतई नहीं है। नास्तिक भी एक मौके पर किसी सत्ता और परम शक्ति की बात करता है। फूलों की घाटी, जोशीमठ से ऊपर जाओ या बद्रीनाथ-केदारनाथ के रास्तों से गुजरो या उत्तर पूर्व की पहाड़ियों से सूर्यास्त के बाद लौटते हैं, तो मन के विश्वास डगमगाते ही हैं पर वही जीवन में लौटकर कुछ सार्थक करने की प्रचंड आशा और विश्वास हमें सुरक्षित ले आते हैं, दुनिया जहान में। हम मूल रूप से भागते हुए लौटने का नाटक करने के अभ्यस्त हैं। इसलिए सदैव दुखी रहते हैं। 

मरना ज़्यादा आसान है। यह एक सेकेंड के लाखवें हिस्से का खेल है। पर जीना 50 से 70 बरस की यातना है, जिसे अपनी तसल्ली के लिए हम भाषाई शब्दों, मुहावरों और कुछ कथनों के आसपास गूँथकर जीने का अभ्यास करते हुए प्रक्रियागत रिवाज़ पूरे करते हैं। जो इन रिवाज़ों के परे होकर जी लेता है, उसका नाम उस पहाड़ी पर लिखा जाता है जहाँ अब भी प्रार्थना की घंटियाँ किसी मधुर मालकौंस के राग की तरह बजती रहती हैं।

शाम और रात के बीच का पहर ख़तरनाक होता है। इसमें सतर्क रहने की आवश्यकता है।

जिसने भोर में उठकर शुक्र तारा नहीं देखा, कभी वह हँस भी नही सकता।

(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 23वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।) 

इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ  ये रहीं : 

22वीं कड़ी : जो जीवन को जितनी जल्दी समझ जाएगा, मर जाएगा

21वीं कड़ी : लम्बी दूरी तय करनी हो तो सिर पर कम वज़न रखकर चलो

20वीं कड़ी : हम सब कहीं न कही ग़लत हैं

19वीं कड़ी : प्रकृति अपनी लय में जो चाहती है, हमें बनाकर ही छोड़ती है, हम चाहे जो कर लें!

18वीं कड़ी : जो सहज और सरल है वही यह जंग भी जीत पाएगा

17वीं कड़ी : विस्मृति बड़ी नेमत है और एक दिन मैं भी भुला ही दिया जाऊँगा!

16वीं कड़ी : बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है?

15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..

14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…

13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा

12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं

11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है

10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!

नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…

आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…

सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे

छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो 

पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!

चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा

तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!

दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…

पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!

 

 

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