हिन्दी के मुहावरे, बड़े ही बावरे

अखिलेश जैन, छतरपुर मध्य प्रदेश से, 11/8/2021

हिन्दी का थोडा़ आनन्द लेते हैं। हिन्दी के मुहावरों की भाषा, उनकी अहमियत, उनकी ख़ासियत समझने की कोशिश करते हैं। हालाँकि इस ख़ूबसूरती से इन मुहावरों को चन्द लाइनों में सहेज लेने का यह काम मैंने नहीं किया है। काश! किया होता। पर सच ये है कि व्हाट्स एप सन्देश के तौर पर किसी परिचित ने मुझे ये पंक्तियाँ भेजीं और मैंने इसे #अपनीडिजिटलडायरी पर सहेज लेने का यत्न किया है। अपने लिए। डायरी के पाठकों के लिए। हमेशा के लिए। डायरी के भाषायी सरोकार के कारण। उस पर अक़्सर ही आने वाली रोचक-सोचक, प्रेरक सामग्री के मद्देनज़र। ‘मुहावरों की मुहावरेदार पंक्तियाँ’ कुछ यूँ हैं…   

हिन्दी के मुहावरे, बड़े ही बावरे हैं
खाने-पीने की चीजों से भरे हैं
कहीं पर फल हैं तो कहीं आटा-दालें हैँ
कहीं पर मिठाई है, कहीं पर मसाले हैं
चलो, फलों से ही शुरू कर लेते हैं
एक-एक कर सबके मज़े लेते हैं

‘आम के आम और गुठलियों के दाम’ मिलते हैं
कभी ‘अंगूर खट्टे’ हैं
कभी ‘खरबूजे, खरबूजे को देख कर रंग बदलते हैं’,
कहीं ‘दाल में काला’ है,
तो कहीं किसी की ‘दाल ही नहीं गलती’ है,

कोई ‘डेढ़ चावल की खिचड़ी’ पकाता है,
तो कोई ‘लोहे के चने चबाता’ है,
कोई ‘घर बैठा रोटियाँ तोड़ता’ है,
कोई ‘दाल भात में मूसलचन्द’ बन जाता है,
‘मुफ़लिसी में जब आटा गीला’ होता है,
तो ‘आटे दाल का भाव मालूम पड़ जाता’ है,

सफलता के लिए ‘कई पापड़ बेलने पड़ते हैं’,
‘आटे में नमक’ तो चल जाता है,
पर ‘गेहूँ के साथ, घुन भी पिस जाता’ है,
अपना हाल तो बेहाल है, ‘ये मुँह और मसूर की दाल’ है,

‘गुड़ खाते हैं, गुलगुले से परहेज़’ करते हैं,
और कभी ‘गुड़ का गोबर’ कर बैठते हैं,
कभी ‘तिल का ताड़’, कभी ‘राई का पहाड़’ बनता है,
कभी ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ है,
कभी कोई ‘जले पर नमक छिड़कता’ है,
किसी के ‘दूध के दाँत’ हैं,
तो कई ‘दूध के धुले’ हैं,

कोई ‘जामुन के रंग सी चमड़ी’ पा के रोई है,
तो किसी की ‘चमड़ी जैसे मैदे की लोई’ है,
किसी को ‘छठी का दूध याद आ जाता’ है,
‘दूध का जला छाछ को भी फूँक-फूँक कर पीता’ है,
और ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ हो जाता है,

‘शादी बूरे का लड्डू’ है, जिसने खाए वो भी पछताए,
और जिसने नहीं खाए, वो भी पछताते हैं,
पर शादी की बात सुन, ‘मन में लड्डू फूटते’ हैं,
और शादी के बाद, ‘दोनों हाथों में लड्डू’ आते हैं,

कोई ‘जलेबी की तरह सीधा’ है, कोई ‘टेढ़ी खीर’ है,
किसी के ‘मुँह में घी-शक्कर’ है, सबकी अपनी अपनी तकदीर है…
कभी कोई ‘चाय-पानी करवाता’ है,
कोई ‘मक्खन लगाता’ है
और जब ‘छप्पर फाड़ कर मिलता’ है,
तो सभी के ‘मुँह में पानी आ जाता’ है,

भाई साहब अब कुछ भी हो,
‘घी तो खिचड़ी में’ ही जाता है, ‘जितने मुँह, उतनी बातें’ हैं,
‘सब अपनी-अपनी बीन बजाते’ है, पर ‘नक़्कारखाने में तूती की आवाज़’ कौन सुनता है,
‘सभी बहरे हैं, बावरे हैं’ ये सब हिन्दी के मुहावरे हैं…

ये गज़ब मुहावरे नहीं, बुज़ुर्गों के अनुभवों की खान हैं…
सच पूछो तो हिन्दी भाषा की जान हैं..!
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(अखिलेश पेशे से व्यवसायी हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के नियमित पाठक हैं। उन्होंने इस ख़ूबसूरत पंक्तियों के लेखक के प्रति तह-ए-दिल से आभार के साथ इन्हें डायरी को भेजा है।)

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