सम्यक आजीविका : ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 3/8/2021

कोरोना काल में न जाने कितने लोगों को अपनी आजीविका से विरत होना पड़ा। बहुतों ने इसे नई आजीविका के अवसर के रूप में देखा और नए उपक्रम खड़े कर दिए। इस दौर में एक तरफ़ कई लोग आजीविका खोने के कारण निर्धनता को प्राप्त हुए, वहीं दूसरी ओर कई लोगों ने विविध उपायों से खूब धन अर्जित किया। मुझे याद आ रहा है कि हमारे कई मित्रों को ज़रूरत के वक़्त जीवन-रक्षक औषधियों और जीवन-रक्षक यंत्रों  का कई गुना अधिक मूल्य चुकाना पड़ा। क्योंकि बहुत से औषधि विक्रेता निर्ममतापूर्वक उस समय केवल धन कमा रहे थे। अस्पतालों तक ने मानव जीवन के मुकाबले धन कमाने को वरीयता दी। यहाँ तक सुनने में आया कि कोरोना की आड़ में मानव अंगों का अवैध व्यापार भी खूब फला-फूला। ऐसे लोगों के लिए यह धन कमाने का अभूतपूर्व अवसर था। वे इसे किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहते थे। उनके मन में कहीं भी मानवता के लिए आग्रह नहीं दिखाई दे रहा था। पीड़ित लोगों में कई इन औषधियों के अभाव में काल-कवलित हो गए। लेकिन इन ‘धन-पशुओं’ ने धन-अर्जन के अपने आग्रह या कहना चाहिए कि दुराग्रह को नहीं छोड़ा। इन उपायों से आजीविका कमाने को किसी भी परिस्थिति में मानवीय नहीं कहा जा सकता। निश्चित रूप से प्राणी जीवन से महत्त्वपूर्ण कुछ नहीं हो सकता। लेकिन प्राणी के प्रति संवेदनशीलता उसी मन में हो सकती है, जिसका मन शुद्ध हो। जिसके हृदय में मानवीय भाव हो। जो संवेदनाओं, भावनाओं जैसे मानवीय गुणों से भरपूर हो। अन्यथा वह पाषाण-हृदय नर-पिशाच ही होगा, जिसे केवल धन से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ न लगता हो।

मतलब आजीविका किन उपायों से अर्जित की जा रही है, यह बेहद महत्वपूर्ण है। बुद्ध आजीविका के उपायों को, साधनों को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। इसीलिए वे कहते हैं…

“एक व्यक्ति सम्यक-जीवी होता है। वह जिस तरह के साधन से जीविका चलाता है, भिक्षुक उसे “सम्यक आजीविका”कहते हैं। असल में यही सम्यक सम्पत्ति है। इससे अलग सब विपत्तियाँ हैं।” (अंगुत्तर निकाय)।

‘सम्यक आजीविका’ अर्थात् ऐसा कार्य, आय का ऐसा स्रोत जो ‘सद्’ हो, अच्छा हो। बुद्ध इस शुचि भाव के सम्बन्ध में भी बड़ी सुन्दर बात कहते हैं.. 

“कायसुचि, वाचासुचि, चेतोसुचि अनासव।
सुचि सोचेय्यसम्पन्न आहु निन्हात-पापक।।” (अंगुत्तर निकाय)  अर्थात्- जिसका कार्य पवित्र है, वाणी पवित्र है, मन पवित्र है, ऐसे शुचि-भाव सम्पन्न व्यक्ति को पाप से स्वच्छ हुआ मानते हैं।

अब थोड़ा विचार करें, जहाँ मनुष्य अपने लाभ के लिए, अपने स्वार्थ के लिए, धन कमाने के लिए, दूसरे मनुष्यों के अंगों का व्यापार कर ले, क्या वह मनुष्य जन्म में पवित्र हो पाएगा? किन पुण्य कर्मों के कारण इस पाप से वह मुक्त हो सकेगा? किस तरह अपनी सन्तति को बताएगा कि मैंने तुम्हारे लिए ऐसे अशद्ध साधनों से अथाह धन कमाकर दिया है?

मुझे एक कथा स्मरण हो रही है। एक डाकू ने किसी महात्मा को पकड़ लिया और बोला, “जो कुछ है, वह मुझे दे दो। नहीं तो तुम्हें मार दूँगा।” महात्मा बोले, “ठीक है। सब तुम्हें दे दूँगा। लेकिन पहले यह बताओ कि यह चोरी और हत्या किसके लिए कर रहे हो?” डाकू बोला, “अपने और परिवार के लिए।” महात्मा ने थोड़ी देर विचार किया और बोले, “क्या चोरी और हत्या के पाप में तुम्हारा परिवार तुम्हारे साथ भागीदारी करेगा?” डाकू ने ज़वाब दिया, “बिल्कुल करेगा।” लेकिन महात्मा उसे परिवार से पूछकर आने की सलाह देते हैं। महात्मा को वहीं पेड़ से बाँधकर डाकू अपने परिवार से पूछने घर पहुँच जाता है। एक-एक सदस्य से प्रश्न करता है, “क्या तुम मेरे पाप में भागीदार बनाेगे।” लेकिन परिवार का हर सदस्य उसे मना कर देता है।

यानि व्यक्ति परिवार के भरण-पोषण के लिए किन उपायों से धन कमा रहा है, यह स्वयं उसके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि उसके द्वारा अर्जित धन का उपयोग तो पूरा परिवार करेगा। लेकिन अगर धन-अर्जन के लिए आपराधिक कृत्य किए गए हैं, तो उनका दंड सिर्फ़ उसे मिलेगा, जिसने वह किए हैं। उसमें कोई भी हिस्सेदारी नहीं करेगा। कर ही नहीं सकता। इसीलिए, निश्चित रूप से यह व्यक्ति का दायित्व है कि वह परिवार का भरण पोषण करे। लेकिन वे उपाय सद् हों, सम्यक हों, पुण्योत्पादक हों। तभी इस लोक और परलोक में वह मानवीय गरिमा के अनुरूप स्थान का हक़दार होगा।
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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 22वीं कड़ी है।)
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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….

21वीं कड़ी : सम्यक कर्म : सही क्या, गलत क्या, इसका निर्णय कैसे हो?

20वीं कड़ी : सम्यक वचन : वाणी के व्यवहार से हर व्यक्ति के स्तर का पता चलता है

19वीं कड़ी : सम्यक ज्ञान, हम जब समाज का हित सोचते हैं, स्वयं का हित स्वत: होने लगता है

18वीं कड़ी : बुद्ध बताते हैं, दु:ख से छुटकारा पाने का सही मार्ग क्या है

17वीं कड़ी : बुद्ध त्याग का तीसरे आर्य-सत्य के रूप में परिचय क्यों कराते हैं?

16वीं कड़ी : प्रश्न है, सदियाँ बीत जाने के बाद भी बुद्ध एक ही क्यों हुए भला?

15वीं कड़ी : धर्म-पालन की तृष्णा भी कैसे दु:ख का कारण बन सकती है?

14वीं कड़ी : “अपने प्रकाशक खुद बनो”, बुद्ध के इस कथन का अर्थ क्या है?

13वीं कड़ी : बुद्ध की दृष्टि में दु:ख क्या है और आर्यसत्य कौन से हैं?

12वीं कड़ी : वैशाख पूर्णिमा, बुद्ध का पुनर्जन्म और धर्मचक्रप्रवर्तन

11वीं कड़ी : सिद्धार्थ के बुद्ध हो जाने की यात्रा की भूमिका कैसे तैयार हुई?

10वीं कड़ी :विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?

नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!

आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है? 

सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?

छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है

पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?

चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?

तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!

दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?

पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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