दो जासूस, करें महसूस कि जमाना बड़ा खराब है…

ए. जयजीत, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 29/7/2021

दो जासूस, दोनों के दोनों प्रगतिशील किस्म के। देश-दुनिया की समस्याओं पर घंटों चर्चा करके कन्क्लूजन को अपनी तशरीफ़ वाली जगह पर छोड़कर जाने वाले। दोनों एक कॉफ़ी हाउस में मिले। वैसे तो दोनों अक्सर इसी कॉफ़ी हाउस में मिलते रहते हैं। लेकिन आज का मिलना ज्यादा क्रान्तिकारी है। अब ये जासूस कौन हैं? क्या हैं? इसका खुलासा न ही करें तो बेहतर है। देखो ना, पेगासस नाम के किसी जासूस का खुलासा होने से कितनी दिक्कतें आ गईं। विपक्ष को हंगामा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। कांग्रेस कहाँ पंजाब में अपने दो सरदारों के बीच संघर्षविराम करवाने के बाद थोड़ा आराम फरमा रही थी कि उसे फिर जागना पड़ा। और बेचारी सरकार। कब तक छोटे-छोटे हंगामों को ‘राष्ट्र को बदनाम करने की साज़िशें’ घोषित करती रहेगी। उसकी भी तो कोई गरिमा है कि नहीं। कई बड़े-बड़े पत्रकार, नेता, बिल्डर, वकील, तमाम तरह के माफ़िया इस बात से अलग चिन्तित हैं कि उनका नाम सूची में क्यों नहीं है! तो एक ख़ुलासे से कितनी उथल-पुथल मच गई। इसलिए हम भी इन दोनों जासूसों के नाम नहीं बता रहे। हाँ, एक को करमचन्द जासूस टाइप का मान लीजिए और दूसरे को जग्गा जैसा कुछ। वैसे भी जासूस तो विशेषण है, संज्ञा का क्या काम। काले रंग का कोट, बड़ी-सी हैट, काला चश्मा, हाथ में मैग्नीफाइंग ग्लास वग़ैरह-वग़ैरह कि आदमी दूर से ही पहचान जाए कि देखो जासूस आ रहा है। दूर हट जाओ। पता नहीं, कब जासूसी कर ले।

तो जैसा कि बताया, ये दो जासूस एक कॉफ़ी हाउस में मिले। इसी कॉफ़ी हाउस में दोनों का उधार ख़ाता पता नहीं कब से चला आ रहा है। कई मैनेजर बदल गए, पर ख़ाता अजर-अमर है। कॉफ़ी हाउस में मुँह लगने वाले हर कप को मालूम है कि इन दिनों ये भयंकर फोकटे हैं। इन दिनों क्या, कई दिनों से ही ये फोकटे हैं। कई बार कोट से बदबू भी आती है। जब किसी के पास ज़्यादा पैसे न हों तो ड्रायक्लीन पर ख़र्च अय्याशी ही माना जाना चाहिए। तो ये जासूस अक़्सर इस तरह की अय्याशी से बचते हैं। वैसे इन दोनों जासूसों ने अपने बारे में यह किम्वदन्ति फैला रखी है कि जब ये वाकई जासूसी करते थे, तो उनके पास जूली या किटी टाइप की सुन्दर-सी सेक्रेटरी भी हुआ करती थीं। एक नहीं, कई-कई। देखी तो किसी ने नहीं, पर अब जासूसों से मुँह कौन लगे। कपों की तो मजबूरी है। बाकी बचते हैं।

खैर, मुद्दे पर आते हैं। इन दो प्रगतिशील जासूसों की जासूसी भरी बातें सुन लेते हैं। आज तो चर्चा का एक ही विषय है – पेगासस।

“और बताओ, क्या जमाना आ गया?’ पहले ने शुरुआत वैसे ही की, जैसी अक्सर की जाती है।

“सही कह रहे हो। पर ये पेगासस है कौन?’ दूसरा तुरन्त ही मूल मुद्दे पर आ गया, क्योंकि आज तो फ़ालतू बातों के लिए इन दोनों के पास बिल्कुल भी वक्त नहीं है।

“कोई जासूस है स्साला। फ्री में हर ऐरे-गैरे की जासूसी करता फिरता रहता है।’ पहले ने थोड़ा ज्ञानी होने के दम्भ के साथ कहा।

“बताओ, ऐसे ही जासूसों के कारण हमारी कोई इज्ज़त नहीं रही।’ दूसरे ने यह बात इतनी संजीदगी से कही, मानों उनकी कभी इज्ज़त रही होगी।  

“और एक-दो की नहीं, पूरी दुनिया की जासूसी करने का ठेका उठा लिया है, इस पेगासस ने।’ पहले ने जताया कि मामला वाकई गम्भीर है।

“हाँ, रोज ही लिस्ट पे लिस्ट आ रही है, मानों चुनाव में खड़े होने वाले उम्मीदवारों की सूचियाँ निकल रही हों।’ दूसरे ने गम्भीरता की हवा निकाल दी।

दोनों जोर से हँसते हैं। फिर अचानक अपने-अपने होठों पर उँगली रखकर शान्त रहने का इशारा करते हैं। लोगों को लगना नहीं चाहिए कि दो जासूस मूर्खतापूर्ण टाइप की बातें कर रहे हैं, जो हँसी की वज़ह बन रही है। भले ही बातें करें, पर लगे नहीं। इसलिए दोनों फिर धीमी आवाज़ में चर्चा शुरू देते हैं…

“यह भी क्या जासूसी हुई? अब आप नेताओं की जासूसी करवा रहे हो? नेताओं की जासूसी करता है क्या कोई?’ पहला फिर गम्भीर हो गया।

“हाँ, मतलब नेताओं के नीचे से आप क्या निकाल लोगे? कोई बड़ा राज़ निकाल लोगे? और जासूसी करके बताओगे क्या? इतने करोड़ रुपए स्विस बैंक में, इतने करोड़ घर में, इतने करोड़ की बेनामी सम्पत्ति, इतने लोगों को ठिकाने लगाने के लिए ये प्लनिंग, वो प्लानिंग। जो चीज़ सबको मालूम है, वो आप बताओगे? ये क्या जासूसी हुई भला?” दूसरे ने पहले की गम्भीरता में पूरी गम्भीरता से साथ दिया।

“बताओ, क्या ज़माना आ गया?” पहला फ़िर ज़माने को दोष देने लगा।

“पर ये जासूसी करवा कौन रहा है?’ दूसरा अब पॉलिटिकल एंगल ढूँढने की जासूसी में लग गया है।

“कोई भी करवाए, हमें क्या मतलब?’ पहले के भीतर का प्रगतिशील जासूस अब आम मध्यमवर्गीय औक़ात में आने की तैयारी करने लगा है। कप की कॉफ़ी खत्म जो होने लगी है।

दूसरा भी तुरन्त सहमत हो गया। उसकी भी कॉफ़ी खत्म हो रही है। वह इस बात पर सहमत है कि हमें ऐसे फ़ालतू के मामलों में ज्यादा चिन्ता की जरूरत नहीं। चिन्ता या तो सरकार करे, जिसे हर उस मामले में देश की फ़िक्र रहती ही है, जिसमें उस पर सवाल उठाए जाते हैं। या फिर विपक्ष करे, जो अब इस भयंकर चिन्ता में मरा जा रहा है कि मामले को ज़िन्दा रखने के लिए कुछ दिन और एक्टिव रहना होगा। संसद सत्र अलग शुरू हो गया है। रोज हंगामा खड़ा करना होगा। कैसे होगा यह सब!

ख़ैर, दोनों की कॉफ़ी खत्म हो गई है। तो चर्चा भी ख़त्म। तशरीफ़ को झाड़कर दोनों उठ खड़े हुए। कॉफ़ी हाउस अब राहत की साँस ले रहा है।  
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(ए. जयजीत देश के चर्चित ख़बरी व्यंग्यकार हैं। उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी के आग्रह पर ख़ास तौर पर अपने व्यंग्य लेख डायरी के पाठकों के उपलब्ध कराने पर सहमति दी है। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इसके लिए पूरी डायरी टीम उनकी आभारी है।)

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