संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 26/6/2021
रास्ते थे, सड़के थीं, नदियाँ, पहाड़, हवाई किलों से गुजरने वाले पथ और चलने वाले असंख्य पाथेय, जो अपनी-अपनी छाप देकर वहाँ चले गए हैं, जहाँ की आबादी आज की धरती पर बसे इन ज़िन्दा लोगों से बहुत-बहुत ज्यादा है। सक्षम, दक्ष और अनुभवी है। बस इतना है कि वे सब सदैव के लिए चुप हो गए हैं। उनके नामों का डंका जरूर आज भी गाहे-बगाहे लोग पीट लेते हैं पर उनमें से कोई आज हुँकार नहीं भरता।
एक ओर तवांग लिखा था। कहीं कोहिमा, कहीं नाडियाद, कहीं गजपति, किरन्दुल, कोंडागाँव, सुकमा, गरियाबन्द, अलैपी, कोदमंगलम, आलुवे, त्रिचि, सत्यमंगलम, डिंडौरी, बालाघाट, छोटा उदयपुर, सातारा, चोपड़ा, शिंगणापुर, धुले, खम्मम, वारंगल, मैसुरू या कन्याकुमारी। हर रास्ता कहीं से आ रहा था और कहीं जा रहा था। ठहरे हुए थे तो वे सूचना फलक जो यात्रियों को मंजिलों की दूरी बताते थे।
पीठ पर अतीत का बोझ, आँखों में खोजने का सुरूर, दिमाग मे कौतूहल और पाँवों पर चलने का दबाव लिए जीवन बढ़ता जाता था। कभी चम्बल के बीहड़ पार किए, कभी अबूझमाड़ के जंगल, दुधुआ का बड़ा जंगल या काजीरंगा के गैंडों से भरा रोमांचित करने वाला सघन वन। मांदल की थाप सुनते हुए पगडंडियों पर से गुजरा, तो महुआ और ताड़ी का स्वर्गिक स्वाद लेते हुए झूमकर हलमा (सामूहिक श्रमदान) देखा। असम के जंगलों के बीच से चिंघाड़ते ब्रह्मपुत्र का रौरव देखा, तो सूखी हुई महानदी को देखा। कूनो के किनारे सहरियाओं को भूख से मरते देखा तो माही, रेवा, ताप्ती किनारे लोगों को निश्छल हँसते देखा। नर्मदा, क्षिप्रा में लाशों के ढूह जलते देखे, तो गंगा के मणिकर्णिका घाट पर लाशों को इन्तज़ार करते देखा। कृष्णा-कावेरी किनारे अघोरियों को नरमुंड की माला फेरते जीवन से भरपूर तृप्ति से सराबोर देखा।
सोमनाथ के समुद्र से क्या सीखा याद नहीं, पर रामेश्वरम के चारों ओर खारी धरा पर मीठे पानी के कुंड देखे। महाबलीपुरम में रेत के अटल महल और कलाकृतियाँ देखीं, तो कन्याकुमारी में बीच समुद्र में योगी का तपस्या-स्थल देखा। अरविन्द की साधना जहाँ समा गई, वह पांडिचेरी का समुद्र देखा और कोच्चि के पानी का उद्दाम उछाल देखा। चन्द्रभागा के किनारे से कोणार्क के आधे-अधूरे मन्दिर का जीर्ण-शीर्ण भाग्य देखा।
हर रास्ते पर दिशाएँ थीं। दाएँ, बाएँ, सीधे, मुड़िए, पलटिए, घूमिए, रुकिए…. आँखों, पाँवों और हौसलों के सहारे बित्ते भर कदमों से दुनिया नापने की भरपूर कोशिश की। दुनिया में रंगों की कमी नहीं थी। एक हरे या कि नीले या लाल के इतने प्रकार और भिन्नताएँ थीं कि उन्हें ही समेटने की कोशिश करता तो सहस्र जीवन कम पड़ जाते। हर जगह के सूरज और चाँद अलग थे। हर सुबह, शाम और रात का अपना नशा था। हर मध्य रात्रि और भुनसार में शुक्र तारे की जगह अलग थी। मैं हर भोर में एक अलग आलाप में प्रार्थना के स्वरों को बुदबुदाता था और निश्छल मन से आगे बढ़ जाता कि आज का सूरज किसी और मिट्टी से उगता देखूँगा।
हर जंगल से गुजरते हुए, हर बार नीलकंठ की आकृति छोटी-बड़ी दिखाई देती। हर बार दिखने पर मैं पूरी बेशर्मी से माँग लेता था, बहुत आप्त और कातर स्वरों में। कई बार बल्कि बहुधा, नदियों किनारे और समुद्र के लम्बे रेत पसरे दुरूह मार्ग पर दौड़ता नीलकंठों के पीछे कि एक बार हाथ मे पकड़ लूँ कसकर और उसकी आँखों मे आँखें डालकर पूछूँ कि मेरी प्रार्थनाएँ कहाँ हैं? वो सुगठित दुआएँ और माँगे गए सभी अनमोल वचन कहाँ है? बता नीलकंठ, इस गरल विष का रहस्य क्या है? क्या मेरे सारे प्रश्न यहीं कहीं क़ैद हैं या उनके भी कहीं बोर्ड लगे हैं- दाएँ, बाएँ, आगे, पीछे या आगे खतरनाक मोड़ है, जैसे कुछ चिह्न, जिन्हें मैं चीन्ह नहीं पा रहा।
आगे इतना आ गया हूँ कि अब न ऊँचाई दिखाई दे रही और न तराई। न बीहड़ है, न स्वच्छ आसमान के नीचे कोई संकरी राह। धरती का अक्ष भी अपनी धुरी पर नहीं लगता है और मेरी प्यास बढ़ रही है। एक अक्षुण्णता, अभय की वेदना, पीड़ाओं के सन्ताप, कोलाहलों का प्रलाप, बेचैनियों की गल्प कथाएँ मुझे फिर घेरकर नर्मदा किनारे ले जाने को विवश कर रही हैं। कोवलम के तट, मुन्नार के जंगल, कालाहांडी की भूख, जोरहाट की बाढ़, कोशी का गन्दला पानी, तवा किनारे टकरा गए लाशों के ढेर और गौहाटी के छिन्नमस्ता देवी के कामाख्या मन्दिर के पुजारी का प्रश्न याद आता है, जो भोलेनाथ मन्दिर के बाबा बालकदास महाराज ने भी मुझसे कभी पूछा था, “बाबू चलने और दौड़ने के लिए तो उम्र पड़ी है। जोश, ताकत, सब है तुम्हारे पास। मगर सड़कों पर, पगडंडियों पर, पानी में, समुद्र की ऊँची लहरों और हवाओं की पीठ पर लिखे दिशाओं के बोर्ड पढ़ना जानते हो न? यदि कभी पढ़ नहीं पाए तो सोच लेना, वहीं थमना होगा।”
इस बवंडर में उड़ती धूल और कचरे के बीच अपनी आँखों को आहिस्ते से पोछता हूँ। कोरों पर लुढ़क आए आँसुओं के स्वाद को चखता हूँ। मुझे दिशाओं का ज्ञान नहीं हो रहा। विस्मृति का अहसास हो रहा है। सब कुछ धुँधलाता जा रहा है।
मैं किसी को थामना नहीं चाहता। न काँधा और न हाथ। मुझे मेरे कमरे के गाढ़े नीले रंग की दीवार दिखती है बस….
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की 16वीं कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ ये रहीं :
15वीं कड़ी : दूर कहीं पदचाप सुनाई देते हैं…‘वा घर सबसे न्यारा’ ..
14वीं कड़ी : बाबू , तुम्हारा खून बहुत अलग है, इंसानों का खून नहीं है…
13वीं कड़ी : रास्ते की धूप में ख़ुद ही चलना पड़ता है, निर्जन पथ पर अकेले ही निकलना होगा
12वीं कड़ी : बीती जा रही है सबकी उमर पर हम मानने को तैयार ही नहीं हैं
11वीं कड़ी : लगता है, हम सब एक टाइटैनिक में इस समय सवार हैं और जहाज डूब रहा है
10वीं कड़ी : लगता है, अपना खाने-पीने का कोटा खत्म हो गया है!
नौवीं कड़ी : मैं थककर मौत का इन्तज़ार नहीं करना चाहता…
आठवीं कड़ी : गुरुदेव कहते हैं, ‘एकला चलो रे’ और मैं एकला चलता रहा, चलता रहा…
सातवीं कड़ी : स्मृतियों के धागे से वक़्त को पकड़ता हूँ, ताकि पिंजर से आत्मा के निकलने का नाद गूँजे
छठी कड़ीः आज मैं मुआफ़ी माँगने पलटकर पीछे आया हूँ, मुझे मुआफ़ कर दो
पांचवीं कड़ीः ‘मत कर तू अभिमान’ सिर्फ गाने से या कहने से नहीं चलेगा!
चौथी कड़ीः रातभर नदी के बहते पानी में पाँव डालकर बैठे रहना…फिर याद आता उसे अपना कमरा
तीसरी कड़ीः काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
दूसरी कड़ीः जब कोई विमान अपने ताकतवर पंखों से चीरता हुआ इसके भीतर पहुँच जाता है तो…
पहली कड़ीः किसी ने पूछा कि पेड़ का रंग कैसा हो, तो मैंने बहुत सोचकर देर से जवाब दिया- नीला!