विवादित होने पर भी चार्वाक दर्शन लोकप्रिय क्यों रहा है?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 11/5/2021

इस श्रृंखला में ‘चार्वाक दर्शन’ की यह अन्तिम कड़ी है, ऐसा विचार कर चार्वाक दर्शन के विषय में संक्षेप में कुछ बातें रखने का प्रयास करते हैं।

भारतीय मत में ज्ञान का आदि स्रोत वेद है। इसमें सभी के सूत्र हैं, ऐसी मान्यता है। इसलिए शुरू वेद से ही करते हैं। 

चार्वाक भौतिक सुख की कामना को महत्त्वपूर्ण मानते हैं इस भौतिक उन्नति के लिए वेद में अनेकानेक मंत्रों में प्रार्थना की गई है।

अथर्ववेद का 19/71/1 मंत्र है :

“ओ३म् स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्।
मह्यं दत्तवा व्रजत ब्रह्मलोकम्।।”

ऐसे, बहुत से मन्त्रों में धन, पशु, सम्पदा, पत्नी की कामना की गई है।

निश्चित वहाँ वेद मंत्रों में इस भौतिक उन्नति की कामना निश्चित सीमाओं में बँधी है। केवल भौतिक उन्नति की ही कामना नहीं है। लेकिन एक सूत्र तो उपलब्ध करा ही देते हैं।

ऋग्वेद में यम-यमी सम्वाद अति प्रसिद्ध है। जिसकी अनेकानेक व्याख्याएँ उपलब्ध होती हैं। काम की अपेक्षा रखने वाली युवती इसके शमन हेतु युवक से निवेदन करती है। 

कठोपनिषद में आत्मा के प्रश्न पर कहा है, “देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा…(1/1/21)

तैत्तिरीय में ऋषि कहता है “आचार्याय प्रियं धनम् आहृत्य…(1/11) 

रामायण में कामपीड़ित विश्वामित्र सम्वाद तथा ऋषि धर्मरहित उपदेश देता है और परलोक का स्पष्ट रूप से निषेध करता हुआ कहता है,  “स नास्ति परमित्येतत्…(वा. रा.-2/108/17)

महाभारत तो राज्य/सत्ता अधिकार हेतु ही हुआ प्रतीत होता है, वहाँ दुर्योधन घोषणा करता है “शूच्यग्रम् नैव दास्यामि…।’

वहीं ऋषि च्यवन कातर हो राजकन्या की कामना करते हैं, “रुपौदार्य… राजन दुहितरं तव…(महा. भा. वन.122/ 24) 

महर्षि पराशर ने सत्यवती को देखते ही अपनी काम इच्छा प्रकट कर दी।

पुराणों में विविध प्रसङ्ग प्राप्त होते हैं, जहाँ वेद मत के विरुद्ध वर्णन विशद् रूप से किया गया है।

दर्शन ग्रन्थों में षड्दर्शन हैं। यह छह की संख्या कब निर्धारित हुई, स्पष्ट नहीं कहा जा सकता लेकिन तत्वसंग्रह के लेखक आचार्य शान्तरक्षित ने लोकेयत का उल्लेख किया है, इसी तत्वसंग्रह को दृष्टि में रखकर षड्दर्शन समुच्चय में श्री हरिभद्र सूरी ने लोकेयत का स्पष्टतः वर्णन किया है।

तदनन्तर बाद के आचार्य भी चार्वाक मत का खंडन अपने अपने मत की स्थापना हेतु करते रहे हैं। 

सर्वदर्शन संग्रह में आचार्य मध्व ने चार्वाक मत को संग्रहीत कर प्रस्तुत किया है।

यत्र-तत्र बिखरे चार्वाक मत के सूत्रों कथनों का कोई स्वतंत्र ग्रन्थ स्पष्टतः प्राप्त नहीं होता है। चार्वाक दर्शन का प्रभाव इस बात से समझ सकते हैं कि आज तक चार्वाक दर्शन में इसके प्रारंभिक आचार्य बृहस्पति एवं चार्वाक को छोड़कर किसी अन्य का उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

हाँ, यह सम्भव है कि चार्वाक मत के आचार्यों को उनके नाम की जगह “चार्वाक” सामान्य संज्ञा से पुकारा जाने लगा हो। चार्वाक दर्शन की उपस्थापना हेतु किसी ग्रंथ के अभाव में भी आज तक यह दर्शन मान्य है।

इस मत के किसी भी आचार्य ने अपने सिद्धान्तों की स्थापना हेतु किसी अन्य दर्शन के खंडन हेतु भी ग्रन्थ नहीं लिखा है। जबकि काव्य,दर्शन,व्याकरण, साहित्य आदि सभी क्षेत्रों के आचार्यों ने यत्र-तत्र चार्वाक दर्शन का खंडन यथा-अवसर किया है।

सम्भवतः यह दर्शन विवादित होने पर भी, अपने सहज रूप एवं विचारों के कारण जनों के मध्य लोकप्रिय रहा है। चाहे स्पष्ट रूप लोकोपवाद के भय से स्वीकारोक्ति न रहती हो। पुनरपि यह कहते हुए संकोच नहीं हो रहा कि आचार्य चार्वाक का दर्शन अपने नामों के अनुरूप ही है चारु और लोकप्रसृत।

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(अनुज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में रहते हैं और अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की 10वीं कड़ी है।)

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अनुज राज की ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की पिछली कड़ियां ये रहीं….

नौवीं कड़ी : दर्शन हमें परिवर्तन की राह दिखाता है, विश्वरथ से विश्वामित्र हो जाने की!

आठवीं कड़ी : यह वैश्विक महामारी कोरोना हमें किस ‘दर्शन’ से साक्षात् करा रही है? 

सातवीं कड़ी : ज्ञान हमें दुःख से, भय से मुक्ति दिलाता है, जानें कैसे?

छठी कड़ी : स्वयं को जानना है तो वेद को जानें, वे समस्त ज्ञान का स्रोत है

पांचवीं कड़ी : आचार्य चार्वाक के मत का दूसरा नाम ‘लोकायत’ क्यों पड़ा?

चौथी कड़ी : चार्वाक हमें भूत-भविष्य के बोझ से मुक्त करना चाहते हैं, पर क्या हम हो पाए हैं?

तीसरी कड़ी : ‘चारु-वाक्’…औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होए!

दूसरी कड़ी : परम् ब्रह्म को जानने, प्राप्त करने का क्रम कैसे शुरू हुआ होगा?

पहली कड़ी :भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

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