गजेन्द्र सोनी, जौनायचा खुर्द, अलवर, राजस्थान से, 27/3/2021
चाय। चाय केवल इसीलिए नहीं पी जाती कि अच्छी लगती है। चाय पीने के और भी कई कारण हो सकते हैं। चाय आदर-सत्कार की अनिवार्य वस्तु मानी जाती है। चाय पर न जाने कितने रिश्ते बन-बिगड़ जाया करते हैं। और फिर मैं तो ठहरा चाय का शौकीन। कोई मुझसे उसकी बात भी छेड़े, तो बातचीत का विस्तार फिर चाय की चुस्कियों के साथ ही होता है।
बहरहाल, ऐसे ही आज शाम छोटे भाई जैसे मेरे एक अनुज मित्र से मुलाकात हुई। उसने पूछा, “भैया चाय?” मैंने कहा, “भाई छोड़ दी।” उसने हैरत से कहा, “क्या बात कर रहे हो?” अचम्भे से भरे सवालिया लहज़े में फिर कहा, “आपने चाय छोड़ दी?” मैंने फिर कहा, “हाँ भाई। छोड़ दी।” उसने पूछा, “भैया कैसे?” मैंने उसे तफ़सील से अपनी चाय छोड़ने की कहानी बताई। सुनकर उसने इसरार किया, “भैया आप चाय ही नहीं, कोई भी लत छुड़वाने के लिए बहुत बढ़िया मिसाल हो। कुछ लिख दो।”मैंने उसे अपने गाँव की ही बोली में कहा, “भाई मैं ठहरो दुकानदार आदमी। मैं के लिखूँगो।” (मैं ठहरा दुकानदार आदमी, मैं क्या लिखूँगा)। लेकिन उसने फिर से कहा, “नहीं भैया, आप कुछ लिखो, मैं उसे ठीक कर लूँगा।” तो मैंने उससे पूछा, “मैं लिख दूँगा। पर तू उसका क्या करेगा?” तो उसने मुझे #अपनीडिजिटलडायरी के बारे में बताया। तभी मुझे लगा कि यार ये बात है तो डायरी में दर्ज करने की ही। सो, मैं ये ‘डायरी’ में लिख रहा हूँ।
साल 2021, मार्च का महीना, 27 तारीख। कल होली है। आज मुझे ये एहसास हो रहा है कि मैंने अपने जीवन में इतना बड़ा फैसला किया है। इतनी बड़ी ज़िद की है। मैंने कुछ ठाना है। और ठाना भी वो है, जिसका मैं शौकीन हुआ करता हूँ। कोई मुझे लतखोर भी कह सकता है। मैं ये नहीं कहूँगा कि मेरा चाय का शौक खत्म हो गया। मुझे आज ही छोटे भाई जैसे इस मित्र से पता चला कि चाय को मराठी में ‘चहा’ कहते हैं। हमारे गाँव की बोली में भी एक ‘चहा’ होती है। हमारे यहाँ जिसकी चाहत हो, उसे ‘चहा’ कहते हैं। दोनों शब्दों में कितनी साम्यता है। भाव की साम्यता। चाय की चाहत होती है। हर पीने वाले को होती है। चाय का अपना नशा होता है।
मैं सुबह पत्नी के साथ 4 चाय पी लेता था। खाली पेट। लोग मुझे कहते थे, “खाली पेट इतनी चाय नहीं पीते।” मैं उन्हें कहता था, “हम चाय को नहीं पीते, हम उन लम्हों को जीते हैं, जिन लम्हों में हम साथ बैठा करते हैं।” मैंने कुछ यार-दोस्त तो केवल इसलिए बना रखे हैं कि उनसे बोलूँ, चल यार चाय पीते हैं और वो तुरन्त मेरा साथ देने आ जाएँ।
चूँकि दुकान पर बैठता हूँ, तो चाय वाले को जैसे ही बोला, “2 चाय!”, तो अगले 5 मिनट के अन्दर-अन्दर काउन्टर पर 2 चाय हाज़िर। अब सुनार आदमी हूँ। सोने-चाँदी का काम है। ग्राहक आते हैं तो उन्हें भी चाय पिलाते रहते हैं। कुछ ग्राहकों के साथ उनके मान-सम्मान में, प्रेम में, ख़ुद भी पीने लगते हैं। इस तरह दिन की 14-15 चाय हो ही जाती थी।
अच्छा, कॉफी वाले आदमी हम हैं नहीं। हमें जब तक वो अदरक कूटकर, उसमें लौंग डालकर, तेज़ पत्ती और फिर ऊपर से मसाला डालकर चाय न मिले, दिल को तसल्ली ही नहीं होती। मैं बरसों से ऐसी ही चाय पीता आ रहा था। लेकिन फिर एक बार पेट ऐसा खराब हुआ कि लगा अब चाय छोड़ देनी चाहिए। मैंने ख़ुद से कहा, यार तू चाय पीकर अपना पेट ही जला रहा है। अब छोड़ इसे। मैंने ठान ली। छोड़नी है। और बस छोड़ दी, उस दिन।
मेरे बच्चे बाहर पढ़ते हैं। पत्नी बच्चों के साथ रहती है। मैं आजकल अकेला रहता हूँ। मैंने पत्नी को फोन पर बताया, “यार, मैंने चाय छोड़ दी।” मुझे पलटकर जवाब मिला, “आप छोड़ ही नहीं सकते। रहने दो।” लेकिन अबकी बार इरादा पक्का था। मैंने कहा, “अबकी बार वादा कर रहा हूँ। छोड़कर दिखाऊँगा।” हालाँकि मुझे चाय छोड़ने में उतनी ही तकलीफ़ हुई, जितनी किसी सिरगेट, चरस या गाँजे का नशा करने वाले को उसे छोड़ने पर होती होगी।
दो दिन मुझे उल्टी हुई। मैंने बर्दाश्त किया। मन ने कहा- यार पी ले। लेकिन फिर तुरन्त दिमाग ने हस्तक्षेप किया। फिर ख़ुद को याद दिलाया, ख़ुद से किया वादा, कि चाय नहीं पीनी है। नहीं पी। पत्नी को बताया तकलीफ़ के बारे में। उसने भाव-विभोर होकर कहा, “आप पी लो ना चाय। कम कर लो। धीरे-धीरे छोड़ लेना।” लेकिन नहीं। मैंने कहा, “अब तो छोड़नी है।”
धीरे-धीरे कुछ नहीं छूटता। हमें जो करना होता है, उसके लिए केवल मन में ठानना होता है। फिर चाहे जितनी भी तकलीफ़ हो, जितनी भी बाधाएँ आएँ, लोग चाहे जो भी कहें, हमने जो भी करने की ठानी है, अगर हमारे इरादे पक्के हैं, तो फिर दुनिया की कोई ताकत हमें रोक नहीं सकती कि हम वो काम न कर पाएँ। बल्कि अपने इरादे को अंजाम तक पहुँचाने के लिए हमें भीतर से एक शक्ति मिलने लगती है। ऊर्जा मिलने लगती है, जो हमारे इरादे के लिए ईंधन का काम करती है और हम उस काम को कर गुज़रते हैं। फिर भले वो कोई भी काम क्यों न हो।
मैं अगर चाय छोड़ सकता हूँ, तो यक़ीन करना चाहिए, कोई कुछ भी कर सकता है। बस केवल इरादा पक्का रहना चाहिए।
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(गजेन्द्र पेशे से स्वर्णकार हैं। इसके साथ लिखने-पढ़ने में भी रुचि रखते हैं। उन्होंने व्हाट्सएप सन्देश के जरिए अपना यह अनुभव #अपनीडिजिटलडायरी को भेजा है। वे ‘डायरी’ के साथ लगातार जुड़ रहे नए पाठकों में से एक हैं।)