संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 24/3/2021
इसी गाढ़ी नीली दीवार के पीछे लटका है, माघ के शुक्ल पक्ष का चाँद, जो पूनम से होते हुए आज चौथ पर एक चौथाई कम हो गया है। बस यही, हाँ यही चाँद मुझे पसन्द है – पूनम का बड़ा सा खिला-खिला दूधिया रोशनी में नहाता चाँद मुझे पसन्द नही है, जिसे सारी दुनिया देखती है। आज के चाँद को देखने वही लोग देर तक जागते हैं, जो उपवास करते है, हिम्मत से भूखे रहकर बाट जोहते रहते हैं कि कब आसमान में चौथ का उदय होगा और चाँद निकलेगा।
यह उदासी और सन्ताप के बीच हल्की सी खुशियाँ बटोरता – बिखेरता चाँद है जो अपनी कलियाँ बिखेरते हुए आहिस्ता-आहिस्ता कम होता जाएगा। इसमें वो प्रचंड आशावाद नही है कि अब कभी अमावस की ओर प्रस्थान नही करूँगा – सारी रात मैं निहारता हूँ और सोचता हूँ कि काश, चाँद की आभा भी नीली होती, सितारे भी और अंधेरा भी नीला हो जाता!
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दूर कहीं वीरान घर में एक बूढ़ा हारमोनियम बजा रहा है। उसकी पत्नी अभी-अभी बहरी हुई है। उसके बच्चे घर से लड़कर निकल गए हैं। वो सारी उम्र एक चादर में अपनी पुश्तैनी हारमोनियम को बाँधे रहा। किराए के मकान-दर-मकान में भटकता रहा। अपनी आत्मा को ज्यों शरीर की गठरी में दबा रखा था यमदूतों से बचाकर, ठीक उसी तरह इस हारमोनियम को एक मैली चादर में बाँधकर समेटे रहा सारी उम्र। इस उम्मीद में कि कभी उसकी अपनी छत होगी। पक्की दीवारों का घर, एक आँगन वाला घर, जिसके बाहर पीपल, नीम और गुलमोहर के पेड़ होंगे। मोगरे और मधुमालती के साथ रातरानी महकेगी और वह एक टाट बिछाकर मालकौंस (राग) गाएगा। फिर धीरे-धीरे भैरवी (रागिनी) पर आकर उसकी साँसें धौंकनी की तरह चलने लगेंगी और भोर के शुक्र तारे को देखकर वह एक पतली सी गोदड़ी ओढ़कर सो जाएगा।
हारमोनियम जीवन में काली चार (Musical Note) से आगे गया ही नही। बहुत सुर साधे। खूब हवा भरी। इतनी कि उसके फेफड़े शुष्क हो गए। कभी पानी भर गया, कभी बलगम निकलता रहा। कभी इन्हीं फेफड़ों को ज़िन्दा रखने के लिए दिल-दिमाग़ को गिरवी रखना पड़ा। फिर भी हारमोनियम के काले-सफ़ेद बटनों के पीछे दबे तारों को साध नही पाया। एक सुर है, एक चाँद और गाढ़े नीले रँग में डूबी दीवार। मानो किसी मरघट के चारों ओर ये बिम्ब उसके लिए ही खड़े किए गए हैं। अभेद्य किलों की तरह।
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अचानक कभी आमेर का किला दिखता है। कभी कुशलगढ़, कभी गोलकुंडा या कभी खम्मम में बना चालुक्य वंश का लम्बा किला या मैसूर के किले पर बैठे हुए कबूतर, जो हमेशा अनिष्ट होने की घोषणा करते हैं। समुद्र किनारे उसे किलों के ध्वंसात्मक स्वरूप दिखते हैं। नेमावर में नर्मदा के बीचों-बीच बना वो किला याद आता है जहाँ सूखी घास है, चारों ओर पानी होने पर भी आग लग जाती है। काजीरंगा के जँगलों के बीच टूटा हुआ वो बड़ा सा मकान याद आता है, जहाँ बरसों से कोई नही रहता। अब वहाँ जाना भी खतरे से खाली नहीं। मण्डला में गौंड राजाओं के किले में चमगादड़ों से भरा हाल याद आता है, तो उसकी बदबू से विचलित हो जाता है और उनकी आवाजें उसे सोने नही देतीं।
कितना घूमा हूँ मैं… अब कोई कह दे कि एक बार फिर चले जाओ… एक जीवन और देते हैं,… तो हिम्मत न हो शायद, क्योंकि इस गाढ़े नीले रँग की दीवार से नीला इश्क हो गया है।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। यह लेख उनकी ‘एकांत की अकुलाहट’ श्रृंखला की तीसरी कड़ी है। #अपनीडिजिटलडायरी की टीम को प्रोत्साहन देने के लिए उन्होंने इस श्रृंखला के सभी लेख अपनी स्वेच्छा से, सहर्ष उपलब्ध कराए हैं। वह भी बिना कोई पारिश्रमिक लिए। इस मायने में उनके निजी अनुभवों/विचारों की यह पठनीय श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी की टीम के लिए पहली कमाई की तरह है। अपने पाठकों और सहभागियों को लगातार स्वस्थ, रोचक, प्रेरक, सरोकार से भरी पठनीय सामग्री उपलब्ध कराने का लक्ष्य लेकर सतत् प्रयास कर रही ‘डायरी’ टीम इसके लिए संदीप जी की आभारी है।)
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