भारतीय दर्शन की उत्पत्ति कैसे हुई होगी?

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 9/3/2021

भारतीय संस्कृति में समस्त विद्याओं का स्रोत यानि पैदा होने का स्थान वेद को माना जाता है। इसीलिए यह निश्चित है भारतीय दर्शन का मूल भी वेद ही हैं।

यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक स्तर पर अत्यधिक उन्नत संस्कृति रही है। कारण शायद ‘भौतिक समृद्धि’ रहा होगा। जब पेट भरा हो, तब भजन ठीक से होता है। भोजन से तन की भूख शान्त होती है। भजन मन की भूख शान्त करने के लिए किया जाता है। जब मन की भूख शान्त होती है, तो आत्म यानि स्वयं को जानने की भूख पैदा होती है। बस, यहीं से दर्शन की उत्पत्ति शुरू हुई होगी।

सोचकर देखें। भारतीय प्राचीन मानव कितना समृद्ध रहा होगा? वह भौतिक सम्पत्ति से ऊब गया होगा। भोग-विलास उसके लिए बहुत छोटी चीजें लगने लगी होंगी। ‘कामसूत्र’ का आचार्य मोक्ष चाहता है। फिर वह आध्यात्म की तरफ बढ़ा होगा। अपने आप की तरफ चला होगा। जो पिंड में वही ब्रह्माण्ड में। हम हैं तो उस परम सत्ता के एक कण ही। सो, उसके जैसे ही तो होगें? इसका परिणाम व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य खुद को जानना हो गया। आत्म को जानना। जगत को जानना। सबके कारण को जानना। और वह चीख पड़ा “आत्मानम् विद्धि:”। मतलब ‘स्व’ का अन्वेषण करो, स्वयं को जानो, पहचानो, क्या हो तुम…

फिर मिला क्या? आनन्द परम् आनन्द। और आनन्द क्या है…

…‘अहम् ब्रह्मास्मि’। कमाल है ना! मैं खुद ईश्वर हूँ। ढूँढ लिया। खुद को जान लिया। खुद निकल पड़ा, पथ पर अकेला और कह उठा, “मैं ब्रह्म, मैं मुक्त, मैं अद्वैत, मैं चिरन्तन सत्य। बाकी सब माया, जिसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं।” 

——————————————-
(अनुज राज, मूल रूप से बरेली, उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। वे #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में से हैं। उनका यह लेख, उनकी ‘भारतीय दर्शन’ श्रृंखला की कड़ी है।)

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *