नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 4/2/2021
कमाल यूँ ही नहीं होते। सालों-साल लगते हैं, उनके होने में। गढ़ने में, बढ़ने में। लेकिन जब होते हैं, तो यक़ीनी तौर पर सालों-साल ही नहीं, मुद्दतों तक याद रखे जाते हैं। हिन्दी सिनेमाई फ़नकार कमाल अमरोही, उनकी बेगम मीना कुमारी और इन दोनों का मिला-जुला शाहकार (रचना) ‘फिल्म पाकीज़ा’ ऐसे ही कमाल हैं। आज, यानि 4 फरवरी को ‘कमाल की पाकीज़ा’ का 50वाँ साल लग गया है, जो 2022 में पूरा होगा। ‘पाकीज़ा’ 1972 में फिल्मी पर्दे पर आई थी।
वैसे, ‘पाकीज़ा’ का सफ़र शुरू बहुत पहले हो चुका था। जुलाई 16, 1956 यानि वह तारीख़ जब ‘पाकीज़ा’ की नींव रखी गई, ‘ताज़महल’ की मानिन्द। हाँ, क्योंकि कमाल अमरोही ने अपनी बेगम की मोहब्बत में इसे तामीर किया था, शाहजहाँ की तरह। मंसूबा बड़ा बाँधा था उन्होंने, तो उसके पूरे होने में 16 साल का वक़्त लग जाना कोई बड़ी बात कैसे हो सकती है भला। तो, जब इसकी शुरुआत हुई तब फिल्मी पर्दा काला-सफेद (Black and White) हुआ करता था। शुरुआत में सभी तैयारियाँ उसी हिसाब से की गई थीं। लेकिन तैयारियों के हिसाब से ‘कमाल’ होने लगें तो कहने ही क्या! उनकी तो अपनी तैयारी हुआ करती है। इस लिहाज़ से कुछ तवारीख़ों और उनके बाद की घटनाओं पर ग़ौर करना लाज़िमी हो रहेगा।
पहली तारीख़, साल 1964 के मार्च महीने की शायद पांच। जिस बेगम के लिए यह ‘सिनेमाई ताजमहल’ तामीर कराया जा रहा था, वह शौहर और उनके शाहकार, दोनों से दूर हो गई। कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को ‘तीन तलाक़’ कह दिया। इसके बाद मीना कुमारी ने ‘पाकीज़ा’ को। उन्होंने इसमें काम करने से मना कर दिया। जबकि वे ही इसकी वज़ह थीं। इसकी जान और शान भी। कहते हैं, सुनील दत्त और उनकी पत्नी नर्गिस ने उन्हें बहुत मनाया। तब कहीं जाकर वे इस फिल्म में लौटने को राजी हुई थीं।
इसके बाद दूसरी तारीख़। जून 11, 1967, जब इस ‘सिनेमाई कमाल’ को कैमरे में सहेज रहे चलचित्रकार (cinematographer) जोसेफ विर्सचिंग (Josef Wirsching) दुनिया छोड़ गए। दिल का दौरा पड़ा था उन्हें। वे नहीं रहे पर सफर चलते रहना था, सो चलता रहा। फिल्मी ज़ूनून को जीने वाले फिल्मकार गुरुदत्त ने उस वक्त अपने चलचित्रकार वीके मूर्ति को भेजा। उन्हीं के जैसे कुछ और लोगों ने मदद की और शाहकार गढ़ा जाता रहा।
हालाँकि साल के भीतर ही तीसरी तारीख़ रोड़ा बन आई। मार्च, 17 1968, जब ‘पाकीज़ा’ के संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद सबको अलविदा कह गए। पर ‘कमाल’ को होना था, सो नौशाद उससे बावस्ता हो रहे।
पर अब तक बीते 10-12 सालों में वक़्त बहुत बदल चुका था अलबत्ता। फिल्मी पर्दा रंगीन हो गया था। लिहाज़ा दोबारा से तमाम तब्दीलियाँ करनी पड़ीं। ‘पाकीज़ा’ के कई हिस्से फिर गढ़े गए। उन्हें रंगीन किया गया। इन्हीं हिस्सों में एक गाना भी था, जो वक़्त के साथ वक़्त की दहलीज़ पर कभी नहीं बँधा। ‘इन्हीं लोगों ने ले लीन्हा, दुपट्टा मेरा…’।
दिलचस्प किस्से हैं, इस गाने के भी। कोई कहता है कि ये असल में अमीर खुसरो ने लिखा था और तवायफों के कोठे पर गाया जाता था। फिर कुछ लोग बताते हैं कि इसे अज़ीज़ कश्मीरी ने लिखा, जिसे 1941 में फिल्म ‘हिम्मत’ में फिल्मकार पंडित गोबिन्दराम ने फिल्माया भी। हालाँकि मज़े की बात यूँ बनी कि जब इसी गाने को 1943 में पंडित गोबिन्दराम ने ही ‘आबरू’ के लिए फिल्माया, तो तनवीर नक़वी को इसका गीतकार बताया गया।
बहरहाल, ‘पाकीज़ा’ में भी यह गाना दो बार फिल्माया गया। एक बार श्वेत-श्याम और दूसरी दफ़ा रंगीन माहौल के साथ। इस बार कहा गया कि यह गाना ‘मज़रूह सुल्तानपुरी’ ने लिखा है। अलबत्ता ये गाना भी तो एक ‘कमाल’ ही था न? है भी। इसीलिए शायद नामों और दोहरावों के दायरों से बाहर निकला हुआ है। यक़ीन न हो तो सुनकर, देखकर, ख़ुद महसूस कर सकते हैं। सिर्फ़ ये गाना ही नहीं, ‘पाकीज़ा’ भी, जो ‘शाहजहाँई ताज़महल’ से कहीं कमतर न बैठेगी।
अलबत्ता, फ़र्क लगेगा भी तो बस इतना कि मुमताज़ महल ‘ताज़’ तामीर होने से पहले सोई थीं और महज़बीं बानो (मीना कुमारी) ख़ुद ‘अपना ताज़ पाकीज़ा’ मुकम्मल कर लेने के बाद। वह साल 1972 ही था। तारीख़, मार्च की 31 थी, जो आने ही वाली है। ‘मीना’ के खो जाने का 50वाँ साल भी बस लगने ही वाला है।