नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से, 3/10/2020
विषाणु (Virus) हमारे जीवन में सिर्फ़ विष यानि नकारात्मकता नहीं लाते। वे हमें काफी कुछ सकारात्मक भी देते हैं। बल्कि कुछ विषाणु तो अच्छे ही माने जाते हैं। मतलब कि वे हमारी सेहत, शरीर के लिए फायदेमन्द (Good Virus) होते हैं। वहीं जो ख़तरनाक होते हैं, घातक और मारक होते हैं, जैसे कि कोरोना, उनका भी दूसरा पहलू सकारात्मकता से भरपूर है। ऐसे विषाणु भी हमारे लिए कई अच्छे बदलावों के माध्यम बनते हैं।
निश्चित रूप से यही मूल कारण है कि लगभग हर अहम अवसर को विशिष्ट दिवस के रूप में मनाने वाला पश्चिमी जगत विषाणुओं की तारीफ़ करने का भी एक दिन मनाता है। वह दिन आज यानि तीन अक्टूबर को होता है। और अभी जब पूरी दुनिया में कोरोना के संक्रमण का दौर चल रहा है। दुनिया में 13 लाख और भारत में एक लाख से अधिक लोग कोरोना संक्रमित होकर जान गँवा चुके हैं। विश्व में 3.5 करोड़ व देश में 63 लाख से ज्यादा लोग बीमार पड़ चुके हैं, तब यह दिवस अधिक अहम हो जाता है। कारण कि ऐसे नकारात्मक दौर में भी सकारात्मक चिह्न ढूँढ़ने से हमें हौसला मिलता है। हमारी हिम्मत बढ़ती है और जैसा कि चिकित्सा विज्ञान ख़ुद मानता है कि अगर हमारा हौसला न टूटे, हिम्मत बनी रहे तो शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ जाती है। रोग-प्रतिरोधक क्षमता, जो कोरोना से लड़ने की वर्तमान में उपलब्ध सबसे कारगर दवा है। तो क्यों न इस दिवस के बहाने ‘कुछ अच्छा हो जाए’!
‘विषाणु प्रशंसा दिवस’ यानी वायरस एप्रीशिएन डे का ज्ञात इतिहास बहुत पुराना नहीं है। यह 1980 के आस-पास की बात है, जब ये आयोजन शुरू हुआ। उस जमाने में बीती दो सदी से वैरोला विषाणु (Variola Virus) का आतंक पूरी दुनिया में फैला हुआ था। इससे लोगों में चेचक (SmallPox, ChickenPox) हो जाता था, जिसे भारत के कई हिस्सों में ‘छोटी माता’, ‘बड़ी माता’ भी कहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन से सम्बद्ध एक शोध-अध्ययन के मुताबिक 20वीं सदी तक चेचक से पूरी दुनिया में करीब 30 करोड़ लोगों की जान जा चुकी थी। हर साल लगभग चार लाख लोग मारे जा रहे थे। इससे ही वैरोला की घातकता का अन्दाज़ लगाया जा सकता है। उसी दौरान जब चेचक का टीका विकसित किया जा रहा था, तब अध्ययन के दौरान यह सामने आया कि जो लोग गायों के सम्पर्क में आते हैं, दूध दुहते हैं, उन पर वैरोला का असर नहीं होता। लिहाज़ा थोड़ी और जाँच-पड़ताल की गई। तब पता चला कि वैरोला जैसा ही एक अन्य विषाणु गायों को, गौवंश को बीमार करता है। लेकिन वही इंसानों को वैरोला यानि चेचक के जानलेवा प्रभावों से बचाता भी है। जब ये निष्कर्ष सामने आए तो वैज्ञानिकों ने गायों में पाए जाने वाले विषाणु, जिसे काउपॉक्स (CowPox) कहा गया, की मदद से चेचक का टीका बना लिया। यह सफलता वैज्ञानिक एडवर्ड जेनर ने हासिल की थी, 1796 में. इसके बाद जेनर द्वारा बनाई गई दवा से पूरी दुनिया में चेचक उन्मूलन का लम्बा और विस्तारित अभियान चला। आख़िरकार आठ मई 1980 को पूरी दुनिया को चेचक-मुक्त घोषित कर दिया गया।
बस, इतनी ही कहानी ‘विषाणु प्रशंसा दिवस’ की पृष्ठभूमि में बताई जाती है। इससे यह तो समझ आता है कि एक विषाणु से दूसरे को ख़त्म करने में सफलता हासिल कर लेने के कारण 1980 से इस आयोजन की शुरुआत हुई। लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि तारीख तीन अक्टूबर की ही क्यों चुनी गई। इस बारे में कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध भी नहीं है। सिवाय इसके कि तीन अक्टूबर को यूरोप में ‘काउपॉक्स’ से प्रेरित एक अवकाश होता था। और चूँकि ‘काउपॉक्स’ की वज़ह से चेचक के उन्मूलन में सफलता मिली थी, इसलिए उस अवकाश के दिन को ही ‘विषाणु प्रशंसा दिवस’ के तौर पर मनाया जाने लगा। फायदेमन्द विषाणु या विषाणु के फायदों का धन्यवाद करने के लिए। हालाँकि इस तारीख़ पर ऐसे आयोजन के पीछे कोई अन्य तार्किक और दिलचस्प कारण भी हो, तो कहा नहीं जा सकता।
बहरहाल इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बाद अब बात करते हैं वर्तमान की। कोरोना की। निश्चित रूप से यह जानलेवा है। जिन्होंने इस विषाणु के संक्रमण से अपने अपनों को खोया है, जीवनभर वे उनकी जगह भर नहीं पाएँगे। ऐसे लोग शायद ही इसकी नकारात्मकता में कोई सकारात्मकता देख सकें। इसकी तारीफ़ कर सकें।द उनसे अपेक्षा भी नहीं की जानी चाहिए। फिर भी ऐसी बड़ी आबादी है, जो कोरोना संक्रमण से जुड़े दूसरे पहलुओं को देख सकती है। समझ सकती है। उनसे सीख सकती है। और इसीलिए इसकी प्रशंसा भी कर सकती है।
मिसाल के तौर पर कोरोना के दौर में दुनिया के सभी देशों में अलग-अलग समय पर महीनों की तालाबन्दी (Lockdown) चली। इससे लोग घरों में कैद हो रहे। आर्थिक गतिविधियाँ थम गईं। कल-कारखाने बन्द हो गए। इस मुश्किल दौर में परिवारों से लेकर पूरे देश का बजट गड़बड़ा गया। अर्थव्यवस्था डाँवाडोल हो गई। तब छोटे स्तर से लेकर बड़े तक छोटी-छोटी बचतों ने हमें पूरी तरह टूटने से बचाय। उदाहरण के लिए कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) का एक आँकड़ा है। यह बताता है कि सिर्फ़ भोपाल में ही 67,765 लोगों के लिए उनके भविष्य निधि खाते की बचत राशि मुश्किल वक्त में काम आई। इस तरह हमें छोटी बचतों की बड़ी अहमियत पता चली।
तालाबन्दी का असर पर्यावरण पर भी दिखा। सामाजिक माध्यमों (Social Media) पर उस दौरान देश ही नहीं, पूरी दुनिया से कई तस्वीरें साझा की गईं। कहीं मोर नाचते दिखे तो कहीं जंगली जानवर शहरी सड़कों पर स्वछन्द घूमते हुए। दिल्ली के लोगों को ही दिन में साफ वातावरण और रात में स्वच्छ आकाश पर तारे दिखाई दिए तो यह उनके लिए यादगार लम्हे बन गए। गंगा, यमुना जैसी प्रदूषित कही जाने वाली नदियों के साफ दिखते पानी की तस्वीरें आईं और ऐसा न जाने कितना-कुछ दिखा। इन सब चीजों ने हमें सिखाया कि हम चाहें तो ख़ुद को नियन्त्रित कर अपनी प्रकृति, वन्यजीव और पर्यावरण को बचा सकते हैं।
इसी तरह जब तालाबन्दी के दौरान जब शहरों ने लाखों प्रवासी कामगारों को पनाह नहीं दी तो उन्हें अपने गाँव, अपनी मिट्टी की अहमियत पता चली। वे पाँव-पाँव ही उसे गले लगाने लौट पड़े। इधर, जब शहर के शहर प्रवासी कामगारों से खाली हो गए, तो उन्हें भी इन मेहनतकशों का महत्त्व पता चला। जब स्थिति कुछ सामान्य हुई और कारखानों को चलाने के लिए, इमारतें बनाने के लिए, लोग नहीं मिले तो शहरियों ने ग्रामीण कामगारों को पलक-पाँवड़े बिछाकर वापस बुलाया।
इतना ही नहीं। लोगों को सावधानी बरतने के दैनिक अनुशासन की सीख कोरोना ने दी। सेहत दुरुस्त रखने के लिए नियमित व्यायाम की अहमियत को समझाया। हमें मजबूर किया कि हम उस पर ध्यान दें। उसे आजमाएँ, अपनाएँ। मुश्किल वक्त में परिवार का, परिजनों का आपस में एक-दूसरे को मिलने वाला सम्बल कितना मायने रखता है, यह भी कोरोना नाम की विषाणु-विपदा ने हमें सिखाया है। इससे हम निश्चित रूप से अपने सम्बन्धों, अपने परिजनों, अपने बुजुर्गों के प्रति और ज्यादा संवेदनशील हुए हैं। इसके कारण हमारी कई पुरानी परम्पराएँ, पुराने नुस्खे, दशकों पीछे छूट गए मनोरंजन के साधन हमें वापस मिले हैं। इसने हमें भविष्य के मद्देनज़र आधुनिक तकनीक के साथ चहलकदमी करते हुए आगे बढ़ना सिखाया है। साथ ही हमें आत्मनिर्भरता की तरफ़ भी प्रेरित किया है। बल्कि कहें कि मज़बूर किया है।
ऐसी लम्बी सूची है। निष्पक्ष भाव और शान्त चित्त से विचार करें, तो हम पाएँगे कि कोरोना का यह दौर हमें बहुत सारे सकारात्मक अनुभव भी दे रहा है। बस, अँधियारे के बीच रोशनी की इन मद्धम किरणों को देखने, इन्हें पहचानने, इनको मान्यता देने की जरूरत है। ऐसा करना हमारे ‘आत्म-सम्बल’ के लिए, हौसले के लिए भी जरूरी है। और आज ‘विषाणु प्रशंसा दिवस’ के बहाने हम ये कर सकते हैं। कर सके तो कोरोना जैसी किसी भी विपदा को हराना आसान हो जाएगा।