हेमा से लता और फिर ‘भारत रत्न’ लता मंगेशकर: ये संघर्ष, साधना, सादगी के सफर का नाम है!

नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश से, 28/9/2020

लता मंगेशकर की ज़िन्दगी का शायद ही कोई पहलू ऐसा होगा, जिसे छुआ न गया हो। जिसके बारे में लिखा या पढ़ा न गया हो। फिर भी आज जब वे जीवन के 92वें पड़ाव पर पहुँची हैं, तो उनकी उम्र के बीते 91 साल के सफर के कुछ अहम मुकामों पर फिर नजर डाली जा सकती है। क्योंकि यह कोई सामान्य सफर नहीं है। हेमा से लता और फिर ‘भारत रत्न’ लता मंगेशकर, संघर्ष, साधना और सादगी के सफर का नाम है। जिससे हम कभी भी, कितनी बार भी रू-ब-रू हों, हमें प्रेरणा ही मिलती है। ये बताता है कि ‘भारत रत्न’ कोई यूँ ही नहीं हो जाता।

हेमा से लता का सफर उम्र के पहले पड़ाव से ही शुरू हो जाता है। पिता दीनानाथ मंगेशकर की ‘बलवन्त संगीत मंडली’ के नाम से मराठी नाटक कम्पनी थी। इसके मंचित नाटकों में अहम महिला किरदार अक्सर ‘मास्टर दीनानाथ’ ख़ुद निभाया करते थे। ऐसे ही एक नाटक ‘भावबन्धन’ में उन्होंने ‘लतिका’ नाम का किरदार निभाया। इससे वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी बड़ी बेटी ‘हेमा’ का नाम ‘लतिका’ से प्रेरित होकर लता रख दिया। 

सफर का अगला पड़ाव 13 साल की उम्र। यहाँ से संघर्ष शुरू होता है। पिता का 1942 में निधन हो जाता है। सबसे बड़ी होने के नाते तीन छोटी बहनों- मीना, आशा, ऊषा और सबसे छोटे भाई ह्रदयनाथ सहित परिवार की जिम्मेदारी लता के कन्धों पर आ जाती है। पढ़ाई-लिखाई हो नहीं पाई थी। बताते हैं, पहले ही दिन लता अपने साथ छोटी बहन आशा को विद्यालय ले गईं। वहाँ शिक्षक ने आशा को कक्षा में बिठाने की इजाज़त नहीं दी। ‘तुनकमिजाज़’ लता ने स्कूल जाना छोड़ दिया। फिर कभी नहीं गईं। लेकिन गीत-संगीत और अभिनय की शिक्षा, माँ शेवन्ती की कोख में आने के वक्त से ही शुरू हो चुकी थी। वह भी ऐसी कि महज पाँच साल की उम्र में आँगन में खेलते-खेलते ही पिता के वरिष्ठ शिष्य चन्द्रकान्त गोखले के गलत गायन को पकड़ लिया। उन्हें टोका और सही गाकर सुना दिया। पिता उस वक़्त घर पर थे नहीं। वे गोखले को कोई सबक देकर वहीं रियाज़ करने का कहकर किसी काम से बाहर चले गए थे। बहरहाल। यही वजह रही कि जब लता का संघर्ष शुरू हुआ तो उन्होंने अभिनय और गायन से ही आगे सफर तय करने का निश्चय किया। पिता के पुराने मित्र थे, मास्टर विनायक दामोदर कर्नाटकी। नवयुग चित्रपट कम्पनी के मालिक थे। उन्होंने इस हुनर से आजीविका कमाने का लता को रास्ता दिखाया। लता ने पैसे कमाने के लिए शुरू-शुरू में कुछ मराठी, हिन्दी फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएँ भी कीं। पर अभिनय उन्हें रास आया नहीं। सो, छोड़ दिया।

इसके बाद पूरी तरह से साधना शुरू हुई। गीत और संगीत को साधने की। ये भी आसान नहीं था, अलबत्ता। पहली ही बार किसी फिल्म में गाने का मौका मिला। फिल्मकार सदाशिवराव नेवरेकर ने ‘किति हसाल’ में उनसे गाना गवाया। लेकिन बात बनी नहीं। फिल्म से गाना बाहर कर दिया गया। आगे हालाँकि, ‘मंगला गौर’ से गायन की शुरुआत हो गई पर अब भी वो बात नहीं थी। इसी बीच चूँकि काम अधिकतर मुम्बई में ही मिलता था, इसलिए पूरा परिवार मध्य प्रदेश के इन्दौर से यहीं आकर बस गया। लता की उम्र का सफर अब तक 16 पड़ाव पार कर चुका था। मुम्बई में वे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के भिंडीबाजार घराने के उस्ताद अमन अली खान की शागिर्दी में गायकी निखारने लगीं। आगे और भी दिग्गज गुरुओं की सोहबत में रहीं। लेकिन जब वे अमन अली खान से सीख रहीं थीं, तभी उन पर फिल्म संगीतकार गुलाम हैदर की नजर पड़ी। उन्होंने लता की प्रतिभा पहचान ली। उन्हें गाने के मौके दिए और दिलवाए भी।

हालाँकि तब भी वाकये दिलचस्प घटे। लता उस वक्त की विख्यात गायिका नूर जहाँ की नकल किया करती थीं। और आवाज तो बला की पतली थी। यही कारण रहा कि जब गुलाम हैदर उन्हें लेकर फिल्मकार शशधर मुखर्जी के पास गए तो उन्होंने लता को इन्हीं आधारों पर खारिज़ कर दिया। उस वक्त मुखर्जी ‘शहीद’ फिल्म बना रहे थे। गुलाम हैदर चाहते थे कि वे इसमें लता को गाने का मौका दें। पर जब वे नहीं माने तो हैदर नाराज़ हो गए। चुनौती दे आए, “एक वक्त आएगा, जब संगीतकार इस लड़की (लता) के पैरों पर गिरकर इससे अपनी फिल्मों में गाने की गुजारिश करेंगे।” बात सच हुई। संघर्ष और साधना रंग लाई। गुलाम हैदर की ही 1948 में आई फिल्म ‘मजबूर’ में लता का गाया गीत, ‘दिल मेरा तोड़ा, ओ मुझे कहीं का न छोड़ा’ हिट हो गया। सफलता का पहला मील का पत्थर। उसके बाद शशधर मुखर्जी तो लता के पास लौटे ही, उनके जैसे न जाने कितने फिल्मकार-संगीतकार भी उनकी चौखट तक पहुँचे। इस गुजारिश के साथ कि वे उनकी फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज़ दे दें। वह सब इतिहास है। ऐतिहासिक है। फिल्म संगीत से, लता से सरोकार रखने वाले अधिकांश लोगों को पता है। 

जाहिर तौर पर ऐसे संघर्ष और साधना के बाद लता की कामयाबी किसी ‘लता’ तक सीमित नहीं रहने वाली थी। रही भी नहीं। वह आगे चलकर शाखाओं-प्रशाखाओं से भरा-पूरा वृक्ष बनी। कहा जाता है कि उन्होंने करीब 36 भाषाओं में 25,000 से अधिक गीत गाए हैं। वह भी ऐसे कि आज जबकि वे गाना छोड़ चुकी हैं, तब भी घर-घर में सुनी जाती हैं। तिस पर भी सादगी ऐसी कि जो उनके सम्पर्क में आ जाए, किस्से कहते नहीं अघाता। ऐसा ही एक किस्सा जाने-माने पार्श्व गायक उदित नारायण ने एक बड़े अख़बार से साझा किया है। वे बताते हैं, “एक बार मेरे घर के पास ही लता जी के गाने की रिकॉर्डिंग थी। मुझे पता चला तो मैंने उनसे गुज़ारिश की कि आप मेरे घर के पास ही हैं। अगर आप हमारे घर आकर हमें आशीर्वाद देंगी तो हम ख़ुद को सौभाग्यशाली समझेंगे। और सच मानिए, वे तुरन्त राजी हो गईं। बिल्कुल सहज भाव से। वे हमारे घर आईं। मेरे माता-पिता भी उस समय मुम्बई आए हुए थे। उनसे लता ताई ने करीब चार घंटे तक बातचीत की। चाय पी। पोहा खाया। बिल्कुल घर के सदस्य की तरह। वह मेरे लिए यादगार अनुभव था। उसे मैं कभी नहीं भूल सकता।”

लता जी को जानने वाले लोग बताते हैं कि वे आज भी घर आने वाले परिचितों को अक्सर ख़ुद अपने हाथों से बनाकर चाय-नाश्ता कराती हैं। वे जिससे मिलती हैं, उसे अपना बना लेती हैं। जो उनके सम्पर्क में आता है, उनका मुरीद हो जाता है। यकीनन, इसीलिए वे ‘भारत रत्न’ हैं।

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