हिन्दी एक कठिन भाषा है! उर्दू, फारसी और अंग्रेजी सीखिए जनाब!!

देवांशु झा, दिल्ली से, 20/8/2020

करीब दस साल पहले एक चैनल से विदा होते हुए जब मैं अपने साथियों से अन्तिम बार मिल रहा था, तब एक कमउम्र लड़की ने मुझसे बाय कहा। मैंने जवाब दिया, “देखो.. जल्दी भेंट होगी!” वह कुछ विस्मय से बोली, “सर आप हिन्दी के बड़े अच्छे और भूले-बिसरे शब्द बोलते हैं।”

मैं आश्चर्य से भर उठा कि ‘भेंट’ अच्छा शब्द होकर भी क्या भूला-बिसरा शब्द हो रहा है? या कि इस शब्द से मेरी भेंट ही बड़े दिनों के बाद हो रही! सच ऐसा ही है। हिन्दी चैनलों की पत्रकारिता का मूल स्वर है.. सरलीकरण। सरल लिखो! सरल लिखो यानी.. स्थान को ‘जगह’ लिखो….समाचार को ‘खबर’ लिखो…..पाठशाला को ‘मदरसा’ लिख दो।.. कठिन को भी ‘कठिन’ नहीं लिखो.. वरना मुश्किल होगी !!

अरे कौन पढ़ता है यह सब यार..! विद्वान सम्पादकों की ऐसी कितनी ही टिप्पणियाँ मैंने सुनी होंगी। दुख यह कि जो पढ़े-लिखे, समझदार लोग हैं वे भी कहते हैं कि मैं कठिन लिखता हूँ। फेसबुक पर भी बहुतेरे लोग ऐसे हैं और निजी जीवन में भी। मैं क्या कठिन लिखता हूँ.. यह मेरी समझ में कभी नहीं आया।

जो लोग मेरी भाषा को कठिन कहते हैं, क्योंकि उसमें कुछ संस्कृतनिष्ठ शब्द होते हैं, वही उर्दू, फारसी के शब्दों का रस घोल-घोल कर पीते हैं। ‘बाज़ीचाए अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे’….और ‘किसी को दे के दिल कोई नवासंज-ए-फुगां क्यों हो..!’ ऐसी कितनी ही अपरिचित शब्दावलियों का अर्थ बतलाते हुए उन्हें गौरव का अनुभव होता है। लेकिन तत्सम शब्दों को पढ़ते हुए वे उदास हो जाते हैं। कितनी अजीब बात है..!

मैं संस्कृत के सुन्दर शब्दों को अपनी भाषा में प्रयोग करते हुए आनन्दित होता हूँ। ऐसा लगता है जैसे अपने महान पूर्वजों को धन्यवाद कह रहा हूँ। संस्कृत के वे शब्द.. शब्दमात्र नहीं.. हमारे संस्कार हैं। हमारी संस्कृति.. वाक्..वांग्मय की आत्माएँ हैं। उन्हें त्याग देना वैसा ही है जैसा कि अपने वृद्ध पितामह को खटिया पर छोड़ देना। उन्हीं के हाल पर।

संस्कृत की विशाल शब्द सम्पदा भारतीय भाषाओं को एकसूत्र में पिरोती है। आज अगर तमिल और मलयालम का कुछ अंश हम समझ पाते हैं.. तो उसका कारण संस्कृत है। एक समान पूजापद्धति ने छोटी-मोटी भिन्नताओं के बाद भी सनातन को जोड़े रखा है तो वह संस्कृत के कारण। संस्कृत न होती तो क्या हम हिन्दी में प्रसाद.. निराला..अज्ञेय.. मुक्तिबोध..दिनकर की कल्पना कर पाते? संस्कृत न होती तो भारत यही भारत रहा होता क्या..? संस्कृत विश्व सभ्यता के इतिहास में आविष्कृत होने वाली सबसे सुन्दर, सुघड़ घटना है। उसे भाषामात्र कहना तो भूल होगी।

हर भाषा का अपना सौन्दर्य है। अपनी शक्ति है। अपनी छटा है। अपनी रागात्मकता है। संस्कृत इन सभी अर्थों में अनन्य है। यह तो कल्पना से भी परे लगता है कि किसी एक पाणिनी जैसी महान प्रतिभा ने ऐसा व्याकरण रचा..ऐसे भाषासूत्र का निर्माण कर डाला कि ब्लूमफील्ड से लेकर नोम चोमस्की तक उसे चुरा लेता है। और एक हम हैं कि अपनी भाषा के दिव्यतम स्वरूप को प्रकट करते हुए शंकाकुल..होते हैं। ग्लानि से भर उठते हैं। हमें कष्ट होता है कि सामने वाला उन शब्दों को नहीं समझ पा रहा। हद है..यह कैसी मानसिकता है!

अगर उन शब्दों के प्रयोग से मेरी भाषा बँधती है.. उसमें कोई रुकावट आती है या वह जड़ीभूत हो जाती है तो मैं अवश्य ही उन पर विचार करूँ। किन्तु कोई व्यक्ति एक साधारण से शब्द या शब्दयुग्म का अर्थ नहीं जानता तो इसमें लेखक की भाषा का क्या दोष? क्या उसे अपनी भाषा को समृद्ध नहीं बनाना चाहिए? अपनी शब्दसम्पदा सम्पन्न नहीं करना चाहिए?

मैं कोई महान लेखक नहीं हूँ। लेकिन लिखते हुए सचेत रहता हूँ। शब्दों के प्रयोग पर ध्यान देता हूँ। उनकी ध्वनियों से कहे का तादात्म्य बिठाता हूँ। यह सब सचेष्ट.. सायास तो होता ही है..और कई बार बस हो जाता है। उनसे मेरी मुक्ति नहीं। कोई उस भाषायी संस्कार से विलगा कर मुझे लेखक रूप में नहीं पा सकता..!
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(देवांशु मूल रूप से देवघर, झारखंड के रहने वाले हैं। पेशे से पत्रकार हैं। फिलहाल दिल्ली में रह रहे हैं। यह लेख उन्हीं की फेसबुक वॉल से उनकी अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी में लिया गया है।)

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