नीलेश द्विवेदी, भोपाल मध्य प्रदेश से; 2/8/2020
आज (अगस्त का पहला रविवार) मित्रता दिवस था। इस मौके पर कुछ मित्रों के साथ शुभकामना और बधाई सन्देशों का आदान-प्रदान हुआ। इनमें एक मित्र ऐसे रह गए, जिनकी कोई प्रतिक्रिया मुझे मिल नहीं सकी। दौर ऐसा है कि प्रतिक्रिया न मिलने पर चिन्ता लाज़िम हो जाती है। मुझे भी हुई तो मैंने उन्हें फोन कर लिया। फोन पर सम्पर्क स्थापित होते ही उनकी थकी सी आवाज़ सुनाई दी। मैंने पूछा तो उन्होंने बताया, “पिताजी की तबीयत ठीक नहीं है। बीते 24 घंटे से अस्पताल में भर्ती हैं। रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) नियन्त्रित नहीं हो रहा है।” यह सुनकर मैंने उन्हें यथासम्भव ढाँढस दिया। इस पर वे कुछ भावुक हो गए। मैंने जोर देकर वज़ह जानना चाही ताे उन्होंने बताया, “इन दिनों मैं ख़ुद विचित्र मनोदशा से गुजर रहा हूँ। ऐसा लगता है, जैसे मुझे ‘फोबिया’ हो गया है। गन्दगी से दूर भागता हूँ। हर समय। यहाँ तक कि सड़कों, गलियों में इधर-उधर दिखने वाले कचरे से भी परेशानी होने लगी है। इस चक्कर में कहीं आने-जाने से भी बचता हूँ। किसी को पान, गुटखा खाए हुए देखता हूँ तो उससे अलग हो जाता हूँ। और फिर कोरोना काल की आर्थिक सुस्ती, परिजनों और ख़ुद के संक्रमित हो जाने की लगातार आशंका ऊपर से।”
इन सब बातों को सुनने के बाद मैंने उन्हें सम्वेदना के कुछ शब्द कहे। अपनी ओर से सुझाव दिए क्योंकि उस वक़्त यही कर सकता था। वे मुझसे लगभग 350 किलोमीटर दूर एक दूसरे शहर में जो हैं। अलबत्ता उनकी बातें सुनकर मुझे उनसे जुड़े एक-दो तथ्य और ध्यान में आए। इनमें एक तो यही कि उनका सामाजिक दायरा बहुत ही समृद्ध है। सिर्फ सामाजिक माध्यमों (सोशल मीडिया के मंचों) पर ही नहीं, वास्तविक जीवन में भी उनके इर्द-ग़िर्द दोस्तों की कोई कमी नहीं है। सैकड़ों की तादाद में होंगे। परिवार भी भरा-पूरा है। इसके बावज़ूद पारिवारिक कारोबार सम्हालने वाले मेरे वह मित्र ख़ुद को अकेला सा महसूस कर रहे हैं। इसीलिए उनके बहाने मेरे दिमाग में आज फिर यह सवाल कौंध गया कि आख़िर ऐसा है क्यूँ? ‘दोस्तों’ की भारी भीड़ में भी अक्सर हम ख़ुद को अकेला क्यूँ पाते हैं? और इस समस्या का समाधान क्या हाे सकता है? तो यहाँ इन सवालों के ज़वाब मुझे यूँ मिलते हैं कि असल में हमारे ‘आभासी मित्रों’ का दायरा भले ही तेजी से बढ़ रहा हो पर उसमें मित्रता का, सम्वेदना का, सहकार का, सहयोग का ‘आभास’ नदारद होता है। इसीलिए मित्रता के उस बड़े दायरे से हमारा निकट जुड़ाव नहीं होता।
लिहाज़ा फिर बात आ जाती है समाधान की। ताे इसका सबसे अव्वल समाधान तो यही हो सकता है कि भारी-भरकम ‘आभासी दुनिया’ के भीतर या उससे बाहर भी, हमें एकाध सच्चा मित्र ही अपने साथ जुड़ा दिखे तो उसकी मित्रता, जैसे हो सके, सहेज ली जाए। इसके लिए हमें अपने ‘अहं’, अपने ‘दर्प’ से नीचे आना पड़े, तो भी कुछ जाएगा नहीं। बात फ़ायदे की ही रहेगी। और अगर हम किसी वज़ह से यह न कर पाएँ, तो अपने किसी शौक से दोस्ती तो कर ही सकते हैं। जैसे, भोपाल के ही कुछ लोगों की मिसाल देता हूँ। इनमें एक हैं संत हिरदाराम नगर के व्यवसायी रतन तनवानी। इन्होंने पक्षियों को दाना डालने के अपने ‘शौक’ से दोस्ती की है। रोज सुबह थैला भर दाने लेकर निकलते हैं। लगभग 10 किलोग्राम। आस-पास के जंगल, बाग-बगीचों आदि में लगे पेड़ों पर पक्षियों के लिए दाने रखकर आते हैं। बीते 10 साल से वे लगातार यह कर रहे हैं। नियम से। इसी तरह एक बीमा कम्पनी में काम करने वाले विकास गुप्ता हैं। उन्हें जंगली जानवरों की तस्वीरें खींचने का शौक है। उन्होंने 20,000 तस्वीरों का संग्रह बना लिया है अब तक। ऐसे और भी लोग हैं, जिनके ‘शौक’ ने शायद ही उन्हें कभी अकेलापन महसूस होने दिया हो।
पालतू जानवरों या बाग़बानी आदि से ‘दोस्ती’ भी एक शानदार नुस्ख़ा है। दिल्ली में रहने वाले एक मित्र का उदाहरण है। वे बेहद सम्वेनशील किस्म के इन्सान हैं। इसीलिए अक्सर परेशान भी रहते थे। दिमाग में अजीब-अजीब ख़्याल आया करते थे। मुझसे भी कई बार अपनी परेशानी साझा कर लिया करते थे। पर इस तरह उन्हें फौरी राहत ही मिलती थी। इसी बीच एक दिन उनकी पत्नी एक श्वान घर ले आईं। अब वे उस पालतू जानवर का साथ पाकर पहले की तुलना मे कहीं ज़्यादा खुश रहने लगे हैं। ऐसे ही अपने पसन्दीदा संगीत और किताबों से ‘दोस्ती’ भी हमें कभी निराश नहीं करती। हमेशा एक नई दिशा, नई ऊर्जा ही देती है। ऐसे तमाम विकल्पों के साथ एक और ख़ास बात होती है कि इनकी कोई अपेक्षाएँ हम पर दबाव नहीं बनातीं। होती ही नहीं हैं। इसके अलावा ये हमें अपना मनपसन्द विकल्प चुनने की भी पूरी आज़ादी देते हैं। और जब हम ऐसा करते हैं तो ये किसी ‘दो-पाए’ की तरह बुरा मानकर मुँह भी नहीं फुलाते। तो फिर भला ऐसे विकल्पों काे आजमाने में बुराई क्या है? क्योंकि हम लोगों को, हालात को नहीं बदल सकते। पर अपने तौर-तरीके तो बदल ही सकते हैं। अपनी बेहतरी, अपने सुकून के लिए?