जब कोई ‘दोहरे चरित्र’ के साथ चीन की चुनौती से निपटने की बात करे, तो हँसी क्यूँ न आए भला?

10/7/2020

शुरुआत ताज़ातरीन दो घटनाओं से। अभी आठ तारीख़ की बात है। ख़ुद को राष्ट्रवादी कहने-समझने वाले एक संगठन का सन्देश व्हाट्स ऐप पर प्रसारित हुआ। यह कई समूहों में और तमाम पत्रकारों, बुद्धजीवियों, आदि के पास पहुँचा। लिखा था, “भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े पहलुओं पर विचार के लिए ऑनलाइन परिचर्चा आयोजित की गई है। ज़ूम एप्लीकेशन पर। तारीख- नौ जुलाई, दोपहर बाद तीन बजे से।”

जिनके पास ये सन्देश पहुँचा उनमें कुछ के दिमाग़ों में यह खटका। उचित कारण था। उन्होंने आयोजकों को ध्यान दिलाया, “ज़ूम एप्लीकेशन चीन से सम्बन्धित है। बार-बार असुरक्षित भी बताई जा रही है। राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे सम्वेदनशील मसले पर चर्चा के लिए ये मंच ठीक नहीं।”

इस पर आयोजकों ने सामने वालों को अल्पज्ञ बताने की चिर-परिचित शैली में ज़वाब दिया, “आपका शोध कम है। थोड़ा और कीजिए। ख़ुद को अपडेट कीजिए। ज़ूम चीनी एप्लीकेशन नहीं है। हम भारत-विरोधी काम तो कर ही नहीं सकते।” ज़वाब मिलते ही ज़ूम की अधिकृत वेबसाइट की सामग्री और कुछ प्रतिष्ठित समाचार माध्यमों की वेबसाइटों पर आ चुकीं ख़बरों के स्क्रीन शॉट आयोजकों को भेज दिए गए। इसका एकाध बार प्रतिकार हुआ। फिर आयोजकों ने चुप्पी साध लेने की रणनीति अपना ली।

अगले दिन तय समय पर ज़ूम पर ‘भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर विस्तृत चर्चा’ होती पाई गई। इसका फेसबुक पर भी सीधा प्रसारण किया गया। मगर यहीं दूसरी दिलचस्प बात। वह ये कि जिस समय यह चर्चा हो रही थी, उसी वक़्त इसी संगठन से जुड़े युवा कार्यकर्ता नारा दे रहे थे, “लाल गुलामी छोड़कर, बोलो वन्देमातरम्”। सामाजिक माध्यमों के तमाम मंचों (सोशल मीडिया) पर इस नारे के साथ युवाओं के जोश की वज़ह ये थी कि नौ जुलाई को ही संगठन से सम्बद्ध छात्र इकाई का स्थापना दिवस था।

ज़ाहिर है, युवाओं के इस नारे की पृष्ठभूमि तात्कालिक तौर पर, चीन और उसकी विस्तारवादी नीति ने तैयार की थी। हालाँकि दिलचस्प सिलसिला इन दो विरोधाभासी वाकयों पर ख़त्म नहीं होता। कहानी आगे यूँ बढ़ती है कि ‘लाल गुलामी छोड़ने’ का नारा दे रहे कई युवाओं के मोबाइल फोन अब भी चीनी कम्पनियों के ही हैं। इनमें से कई युवा चीन के उत्पादों का बहिष्कार करने की मुहिम को भी बढ़-चढ़कर चला रहे हैं। साथ ही चीन की मोबाइल कम्पनियों के आउटलेट (दुकान) भी खोले बैठे हैं।

अब इन प्रसंगों के साथ नई-पुरानी कुछ ख़बरों और ऐतिहासिक सन्दर्भों पर भी ग़ौर कर लेने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए। पहली ख़बर नौ जुलाई की ही, “भारतीय सेना ने अपने सभी जवानों-अफ़सराें को 89 एप्लीकेशन्स का इस्तेमाल बन्द करने का आदेश दिया है। इनमें ज़ूम, फेसबुक दोनों शामिल हैं। इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा माना गया है। इन एप्लीकेशन्स को हटाने के लिए 15 जुलाई तक की तारीख़ दी गई है।”

सेना की यह ख़बर ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ सहित देश के लगभग सभी समाचार माध्यमों में है। इसके अलावा ‘बिज़नेस इनसाइडर-इंडिया’ ने इसी छह अप्रैल को एक ख़बर दी। इसमें ज़ूम के संस्थापक एरिक युआन, जो कि चीनी मूल के अमेरिकी नागरिक हैं, ने माना कि उनका एक बड़ा सर्वर चीन में है। उनकी एप्लीकेशन पर होने वाली मीटिंग वग़ैरह की कॉल चीन स्थित उस सर्वर से होकर उनके तकनीशियनों तक पहुँचीं। इसके लिए युआन ने माफ़ी भी माँगी। लेकिन चीनियों की ख़ास आदत के मुताबिक, प्रभावितों की पूरी जानकारी उन्होंने नहीं दी। उसे छिपा लिया।

अगली ख़बर, फोर्ब्स पत्रिका से। बीती तीन अप्रैल को आई। इसमें विशेषज्ञों के हवाले से बताया गया कि ज़ूम पर होने वाली मीटिंग आदि की ‘एन्क्रिप्शन कीज़’ चीन के तकनीशियनों की पहुँच में हैं। दरअसल जब किसी जानकारी को कूट शब्दावली (कोड वर्डिंग) के माध्यम से सुरक्षित कर दिया जाता है, तो उसे ‘एन्क्रिप्शन’ कहते हैं। एन्क्रिप्शन को खोलने के लिए वैसी ही ख़ास कुँजी या चाबी होती है, वह ‘एन्क्रिप्शन की’ कहलाती है।

अगली, थोड़ी पुरानी ख़बर। अमेरिकी समाचार समूह- सीएनएन ने फरवरी 2019 में दी थी। इसमें बताया था कि चीन विदेश में रह रहे अपने छात्रों/नागरिकों से विभिन्न हथकंडे अपनाकर जासूसी करा रहा है। उनके माध्यम से दूसरे देशों की सम्वेदनशील सूचनाएँ हासिल कर रहा है। इसके लिए उन पर दबाव बनाता है। उन्हें प्रोत्साहित भी करता है।

अब कुछ ऐतिहासिक तथ्य। यूँ ही, याद रखने के लिए। दुनिया की किसी भी ताक़त ने जब भी विस्तारवादी महात्वाकाँक्षा पाली, भारत को निशाना ज़रूर बनाया है। यूनानी, मंगोल, तुर्क, मुग़ल, अंग्रेज, फ्रांसीसी, डच, पुर्तगाली और अब इस क्रम काे आगे बढ़ाते हुए वर्तमान में चीनी। दूसरी बात। किसी भी विदेशी आक्रान्ता या विस्तारवादी ताक़त से हम तभी मुकाबला कर सके, जब हमने सुविधाएँ छोड़ीं। कुर्बानियाँ दीं। त्याग किया।

महाराणा प्रताप जंगल-जंगल भटके। घास की रोटियाँ खाईं लेकिन सुविधा के लिए विदेशियों के सामने झुके नहीं। शिवाजी ने आक्रान्ताओं से मुकाबले के लिए लम्बा वक़्त पहाड़ों-जंगलों में छापामार युद्ध करते हुए बिताया। गुरु गोविन्द ने नौनिहाल ‘साहिबज़ादे’ न्योछावर कर दिए। अंग्रेजों को भगाने के लिए बहुसँख्य आबादी को ‘असहयोग’ करना पड़ा। लगातार ‘ख़िलाफ़त’ व ‘सविनय अवज्ञा’ करनी पड़ी। तब कहीं देश आज़ाद हुआ।

मज़ेदार बात है कि शुरुआत में ही जिस संगठन का सन्दर्भ दिया गया, वह ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों का ज़िक्र भी अक़्सर बढ़-चढ़कर करता है। पर आज जब चीन की चुनौती की चुनौती के मद्देनज़र इतिहास की सीख को वर्तमान में लागू करने की ज़रूरत आई तो वही ‘दोहरे चरित्र’ में दिखता है। क्या ये हास्यास्पद नहीं है? ऐसे रवैये पर हँसी क्यूँ न आए भला?

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