बेटा! मेरे नाम की चिट्ठी भेज दे, अब भगवान मुझे बुला ले

ये एक माँ के बोल हैं। सुनकर मन खिन्न रहा दिनभर। समझ नहीं आया कि क्या करूँ, किससे कहूँ। कैसे मदद करूँ। उस माँ की, जिसे किसी से शिकायत नहीं है। बस एक इल्तिजा है। यही कि कोई “भगवान को चिट्ठी लिख दे कि इस बूढ़ी औरत को वह अपने पास बुला ले।”

कैसा दुखद संयोग है। पूरी दुनिया ‘मदर्स डे’ मना रही है। हाँ, ‘मदर्स डे’। क्योंकि हमारे यहाँ माँ के लिए कोई एक दिन मनाने की रवायत ही नहीं रही। यह पश्चिम से आया, इसीलिए ‘मदर्स डे’ के नाम से ही प्रचलित हो गया। लेकिन यहाँ बात उस माँ की है, जिसके मन में यह विचार आया। मैंने अपने कानों से उस बुज़ुर्ग महिला को ऐसा कहते सुना। मैं स्तब्ध रह गया। मैं अकेला नहीं था सुनने वालों में। तीन लोग और थे। उनमें से एक ने बोला, “माँ तेरे नाम की चिट्ठी भेज दी है। भगवान जल्द ही बुला लेगा।” इसके बाद यही बात वह माँ कई बार दोहराती रही, “आज ही बुला ले। तू बोल उसे कि मुझे ले जाए। आज ही ले जाए।”

कोई राह चलता व्यक्ति इस महिला को पागल भी करार दे सकता है। किन्तु आज मुझे लगा कि जैसे व्यक्ति पागल नहीं होता। उसे हालात ऐसा बना देते हैं, कि उसके व्यवहार को तथाकथित सभ्य समाज स्वीकार नहीं कर पाता। शायद इस ‘माँ’ के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। इस माँ की मानसिक दशा ऐसी है कि कोई इनसे कह दे चलो घर छोड़ आऊँ, तो कहती है, “हाँ-हाँ चल बहू तुझे भी मारेगी।”

मैंने आसपास से थोड़ी जानकारी जुटाने का प्रयास किया। पता चला कि इस माँ के दो बेटे हैं। दोनों सरकारी नौकरी में हैं। दोनों शादीशुदा और बच्चों के पिता हैं। यह बुज़ुर्ग महिला उस मध्यवर्गीय परिवार की सबसे बड़ी सदस्या हैं। बहुत मुमकिन है कि राशन कॉर्ड में “मुखिया” के तौर पर नाम भी दर्ज हो। बहुत मुमकिन है कि जन-धन खाता भी हो। खाते में सब्सिडी भी आती हो। लेकिन यह सब अटकलबाज़ी ही है। सत्य तो सिर्फ़ यही है कि दो बेटों की माँ आज सड़क पर है। वह पूरे दिन फुटपाथ पर बैठकर हर आने-जाने वाले से कुछ न कुछ माँगती रहती है।

मैं रोज़ाना ड्यूटी देते हुए झुर्रियों भरे इसके चेहरे को देखता रहता हूँ। बड़ा शान्त-सा चेहरा है। बस झुर्रियाँ बोलती रहती हैं। जो कोई इन झुर्रियों की पुकार सुन पाता है, वह कुछ देकर चला जाता है। ये चेहरा बस तभी खिलता है, जब कोई कुछ दे दे। देने वाला अधिकतर कुछ खाने को दे जाता है। बूढ़ी आँखों को किसी देने वाले का इन्तज़ार भी नहीं रहता। ये आँखें एकदम खाली-सी रहती हैं। एकदम शांत। मैं रोज़ाना उन्हें देखता हूँ और सोच में पड़ जाता हूँ। आज उनकी ऐसी माँग देखी तो लगा जैसे वे अपने जीवन की समस्त उपलब्धियों को उलट-पलटकर देखती रहती हैं। किसी को क्या मालूम कि सोचती रहती हों, आखिर जीवन और संतान से क्या पाया?

मुझे पहले भी कुछ नहीं सूझ रहा था। अब कुछ नहीं सूझ रहा है। मैं कल दोबारा जाऊँगा, उसी जगह अपनी ड्यूटी करने। वे दोबारा मिलेंगी वहीं बैठी हुई। वैसी ही निःशब्द आँखें लिए। पर हाँ, आज ख़ास तौर पर इतना ज़रूर कहूँगा, परदेसियों का दिवस है इसलिए उन्हीं की भाषा में ‘HAPPY MOTHERS DAY’… और एक कामना भी कि काश! चन्द खुशियाँ इस माँ की झोली में भी आ गिरें।

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