अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 30/8/2022
कहते हैं किसी को किसी से उपदेश सुनना अच्छा नहीं लगता। लेकिन पत्नी या प्रेमिका उपदेश दे तो वह भी मनोहर लगता है। और काव्य को पत्नी/प्रेयसी के उपदेश की तरह ही मनोहारी माना गया है। वही काव्य अगर नाट्य-रूप में हो, तो सोने पर सुहागा। संस्कृत साहित्य के महाकवि शूद्रक ने ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक के माध्यम से जीवन के विविध पक्षों और मानव मन के विभिन्न मनोवैज्ञानिक आयामों का चित्रण इस नाट्य रूप में बड़ी कुशलता से किया है।
हमारा जीवन कभी एक सा नहीं रहता लेकिन व्यक्ति प्राय: परिवर्तनों को सहज रूप से स्वीकार भी नहीं कर पाता। लेकिन सत्य यह भी है कि जिसने जीवन के परिवर्तनों को स्वीकार कर लिया, उनसे कुछ सीख लिया, वह एक दिन ‘मिट्टी की गाड़ी’ नहीं, अपितु ‘सोने की गाड़ी’ का अधिकारी हो जाता है। ‘मृच्छकटिकम्’ का मर्म यही है। इसमें बच्चे के खिलौना-रूप छोटी सी मिट्टी की गाड़ी को माध्यम बनाकर शूद्रक ने बड़ा सन्देश दिया है। ऐसा सन्देश जो सदियों बाद, आज भी प्रासंगिक है। उतना ही प्रेरक है, जैसा सदियों पहले तब हुआ, जिस दौर में इसे लिखा गया।
यही कारण है कि इस नाटक को यहाँ श्रृंखलाबद्ध कहानी की तरह प्रस्तुत करने की पहल की गई है। ताकि #अपनीडिजिटलडायरी के पाठक और उनके माध्यम से अन्य लोग भी इस महान् कृति से संबद्ध हो सकें। इसके मर्म से कुछ लाभ उठा सकें। आख़िर डायरी के निहित उद्देश्यों में यही सब तो है। मुझे अपर हर्ष हो रहा है कि मैं इस कार्य का निमित्त बन रहा हूँ। निश्चित रूप से इस पूरे नाटक से इस तरह गुज़र जाने का अवसर मुझे भी बहुत लाभान्वित करने वाला है। और मुझे पूरा भरोसा है कि डायरी के पाठक भी इसका हृदय से आनंद लेंगे।
अब आगे…
किसी भी पुस्तक को पढ़ने से पहले हम पुस्तक के लेखक का परिचय अवश्य जानना चाहते हैं। इस लिहाज़ से देखें तो ‘मृच्छकटिकम्’ के लेखक शूद्रक के विषय में थोड़ा विवाद है। यह कि ये राजा थे या कवि। प्राय: विद्वान इन्हें राजा और और कवि दोनों मानने के पक्ष में दिखाई देते हैं। वहीं नाटक के प्रारम्भ में परिचय देते हुए शूद्रक स्वयं कहते हैं, ‘नाटक ‘मंच प्रबंधक का कहना है कि ‘मृच्छकटिकम्’ का कवि एक बुद्धिमान राजा है, जिसे ‘शूद्रक’ के नाम से जाना गया। प्रस्तावना में बताया गया है कि शूद्रक ने ‘ऋग्वेद’ , ¹सामवेद’ , ‘गणित’, ‘कामशास्त्र’ और हाथियों को प्रशिक्षित करने की कला का ज्ञान प्राप्त किया था। अश्वमेध यज्ञ भी किया और 110 बरस की आयु में अग्नि में प्रवेश कर ‘समाधि’ ली। इससे पहले वे परम्परा अनुसार अपने पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर गए।
हालाँकि, यह सब उन्होंने किस काल में किया या यूँ कहें कि वे ख़ुद किस काल-खंड में हुए, इस पर भी कुछ मतभेद हैं। ठीक उसी तरह, जैसे संस्कृत के अधिकतर रचनाकारों के समय-निर्धारण में मतभेद हुआ करते हैं। इसका कारण सम्भवत: ये है कि भारतीय ज्ञान परम्परा के रचनाकार अपने जीवन चरित के विषय में लगभग मौन हैं। और आधुनिक दृष्टि के विद्वान भारत की संस्कृत-परम्परा के ज्ञान-वैभव को देखकर विस्मित कम, ईर्ष्यालु अधिक प्रतीत हुए। इसलिए वे संस्कृत लेखकों के समय निर्धारण में हमेशा दुविधा ग्रस्त भी दिखाई दिए।
दरअसल, आधुनिक विद्वान सब कुछ ईसा के आस-पास के समय में समेट दिया करते हैं। इस कारण ‘रामायण’, ‘महाभारत’ तो छोड़िए वेदों के काल-निर्धारण में भी त्रुटि साफ़ नज़र आती है। ‘वेद’, जिनका समय सहस्राब्दियों पूर्व का है, उन्हें ईसा से 2,000 साल पहले तक मानने का निष्कर्ष दे दिया गया है। ऐसे में, कल्पना की जा सकती है कि अन्य रचनाओं और रचनाकारों के बारे में स्थिति क्या होगी।
ख़ैर, हम यहाँ इस विवाद में न पड़कर ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक के सार-तत्त्व को ग्रहण करने की कोशिश करें तो बेहतर होगा। तो अगले ‘मंगलवार’ से रू-ब-रू होइए ‘मृच्छकटिकम्’ की कहानी से। सिलसिलेवार तरीके से।
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(अनुज राज पाठक संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)
अनुज इस सुन्दर शृंखला के लिए अग्रिम शुभकामनाएं. इसी तरह से digital के माध्यम से इस नवीन पीढ़ी को लाभान्वित करते रहोगे. धन्यवाद.
आभार सर आप का प्रोत्साहन हमें प्रेरित करता है