अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 27/9/2022
‘चारुदत्त’ को ‘मैत्रेय’ बताता है, “शकार बलात् वसंतसेना का पीछा करते हुए यहाँ आया था। और वह न्यायालय में वाद दायर करने की बात कहते हुए चला गया। इससे ‘वसंतसेना’ सोचती है कि विदूषक (मैत्रेय) ने बड़ी चतुराई से “शकार बलात् वसंतसेना का पीछा कर रहा था” ऐसा कहकर मेरा मान बढ़ाया है।
‘चारुदत्त’ इस पर ‘शकार’ की अवहेलना करते हुआ कहता है, “वह मूर्ख है और वसंतसेना देवी! आपको पहचाने में भूल हुई। इसीलिए मैंने सेविका जैसा व्यवहार किया है। मुझे आप क्षमा कर देंगी।”
‘वसंतसेना’ भी अचानक घर में प्रवेश कर जाने के लिए ‘चारुदत्त’ से क्षमा माँगती है। फिर कहती है, “अगर आपको अनुचित न लगे तो ये आभूषण आपके पास धरोहर के रूप में रखने आई हूँ। क्योंकि इन्हीं आभूषणों के कारण वे (शकार और उसके सेवक) मेरा पीछा कर रहे थे।”
‘चारुदत्त’ अपने घर को “धरोहर रखने के लिए उपयुक्त नहीं” है, ऐसा कहकर मना करता है। लेकिन ‘वसंतसेना’ कहती है, “धरोहर व्यक्ति के हाथों में रखी जाती है न कि घर में” (पुरुषेषु न्यासा निक्षिप्यन्ते, न पुनर्गेहेषु)
‘चारुदत्त’ ऐसा सुनकर ‘मैत्रेय’ से आभूषण रखने के लिए कह देता है। ‘वसंतसेना’ को आभूषण के बदले ‘मैत्रेय’ आशीर्वाद देता है तो ‘चारुदत्त’ कहता है, “यह आभूषण दान में नहीं मिले हैं, धरोहर हैं।” इस पर दुःखी होकर ‘मैत्रेय’ कहता है, “अगर ऐसा है, तो इन आभूषणों को यदि चोर चुरा ले जाए तो?”
आभूषण रखने के बाद ‘वसंतसेना’ अपने घर जाने की इच्छा रखती है। ‘चारुदत्त’ तब ‘मैत्रेय’ से ‘वसंतसेना’ के साथ उसके घर तक जाने को कहता है। लेकिन इसके लिए ‘मैत्रेय’ मना करते हुए कहता है, “आप ही इस हंस के समान चलने वाली (कलहंसगामिनी) के साथ अच्छे लगेंगे। इसलिए आप ही इसके पीछे-पीछे राजहंस की तरह जाइए।”
इसके बाद ‘वसंतसेना’ को उसके घर छोड़ने के लिए ‘चारुदत्त’ ही चला जाता है।
(यहाँ नाटक का प्रथम अंक समाप्त होता है) (दूसरा अंक शुरू)
‘वसंतसेना’ कुछ सोचती हुई बैठी दिखाई दे रही है। तभी उसकी सेविका आकर सन्देश देती है, “माता ने कहा है, आज तुम स्नान कर के देवताओं की पूजा कर दो।” लेकिन वसंतसेना मना करते हुए कह देती है, “जाओ माता से कह दो, आज मैं स्नान नहीं करूँगी। किसी ब्राह्मण से पूजा करा लें।”
‘वसंतसेना’ की प्रिय सेविका और सखी का नाम ‘मदनिका‘ है। वह चुहल करती है, “आज क्या बात है, जो इतना उदास बैठी हो?” इस पर ‘वसंतसेना’ कहती है, “कोई कारण नहीं है और तुम मुझसे ये क्या कह रही हो।”
मदनिका : “रहने दो, मुझे पता है, किसकी याद आ रही है तुम्हें।”
वसंतसेना : ”हाँ तुम दूसरे के मन की बात पकड़ने में चतुर जो हो।”
“तो बताइए हर्षोत्सव में आपने किस युवाजन को अनुगृहीत किया। बताइए राजा की सेवा करना चाहती हैं या राजमित्र की?” मदनिका जानना चाहती है।
वसंतसेना : “मूर्ख, सेवा नहीं रमण करना चाहती हूँ।”
मदनिका : “अच्छा, तो आप ज्ञान से सुशोभित किसी युवा ब्राह्मण को चाह रही हैं?”
वसंतसेना : “नहीं, ब्राह्मण मेरे लिए पूजनीय हैं।”
मदनिका : “तो क्या किसी व्यापारी पर हृदय अनुरक्त है?”
वसंतसेना : “नहीं नहीं, अत्यंत अनुराग करने वाले व्यक्ति (प्रेयसी) को छोड़कर व्यापारीजन विदेश चले जाते हैं और प्रेयसी महान दुःख सहती है।”
“तो फिर वह कौन है, जिसके विरह में सखी उदास बैठी है?” फिर पूछती है ‘मदनिका’।
वसंतसेना : “वही जो बनियों की बस्ती में रहता है और अपनी दानशीलता के कारण निर्धन हो गया है।”
मदनिका : “ओह तो वह श्रेष्ठ चारुदत्त हैं। लेकिन वे तो दरिद्र हो गए हैं?”
वसंतसेना : “तभी तो उनको चाहती हूँ, क्योंकि दरिद्र पुरुष में अनुरक्त गणिका संसार में निन्दित नहीं होती।(दरिद्ररुषसङ्क्रान्तमना खलु गणिका लोके अवचनीया भवति)
जारी….
—-
(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर मंगलवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)
—
पिछली कड़ियाँ
मृच्छकटिकम्-3 : स्त्री के हृदय में प्रेम नहीं तो उसे नहीं पाया जा सकता
मृच्छकटिकम्-2 : व्यक्ति के गुण अनुराग के कारण होते हैं, बलात् आप किसी का प्रेम नहीं पा सकते
मृच्छकटिकम्-1 : बताओ मित्र, मरण और निर्धनता में तुम्हें क्या अच्छा लगेगा?
परिचय : डायरी पर नई श्रृंखला- ‘मृच्छकटिकम्’… हर मंगलवार