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मृच्छकटिकम्-7 : दूसरों का उपकार करना ही सज्जनों का धन है

अनुज राज पाठक, दिल्ली से, 18/10/2022

“आर्य चारुदत्त का नाम लेने से मेरी इतनी सेवा हो रही है। धन्य हो आर्य चारुदत्त, धरती पर मात्र आप जीवित हैं। बाकी तो बस साँसें ले रहे हैं (पृथिव्यां त्वमेको जीवसि, शेष: पुनर्जन: श्वसिति)

‘संवाहक’ ऐसा सोचकर  ‘वसंतसेना’ के पैरों में गिर जाता है और कहता है, “मान्या! आप तो आसन पर बैठ जाएँ, आप क्यों खड़ी हो गई हैं?”

वसंतसेना : (आसन पर बैठकर) वे दानी होने के कारण कैसे धनी रह सकते हैं।

संवाहक : आप ने बिल्कुल सत्य कहा क्योंकि “दूसरों का सत्कार करना ही सज्जन व्यक्ति का धन होता है। किसका धन विनाशी नहीं है? जो सत्कार करना जानता है, वही सत्कार के साधनों से परिचित होता है”।
(सत्कारधन; खलु सज्जनः कस्य न भवति चलाचलं धनम् । यः पूजयितुमपि जानाति स पूजाविशेषमपि जानाति॥)

वसंतसेना : इसके बाद क्या हुआ

संवाहक : इसके बाद आर्य चारुदत्त ने मुझे नौकर रख लिया था। लेकिन उनके निर्धन होने पर, मैं इस जुआरी वृत्ति से अपना पेट चला रहा हूँ। मेरा भाग्य प्रतिकूल होने से मैं जुए में दस सोने के सिक्के हार गया हूँ।

तभी बाहर माथुर की आवाज आती है “मैं नष्ट हो गया, मैं लूट गया”

वसंतसेना से संवाहक : ये दोनों मुझे खोजते आ रहे रहें हैं, आप जो उचित समझें वही करें।

मदनिका से वसंतसेना : मदनिके! बसेरा वाले वृक्ष के सूख जाने से पक्षिगण इधर-उधर भटकते हैं। जाओ उन दोनों को यह आभूषण दे दो और कहना “यह आभूषण संवाहक ही दे रहा है” ऐसा समझें।

‘मदनिका’ आभूषण ले जाकर माथुर को दे देती है। ‘माथुर’ संवाहक को ‘ऋण मुक्त हुआ’, ऐसा कहकर और फिर से जुआ खेलने का निमंत्रण देकर, वहाँ से चला जाता है।

‘संवाहक’ को ‘वसंतसेना’ अपने घर जाने को कहती है। वहीं ‘संवाहक’ उपकार के बदले में शरीर मालिश की कला ‘मदनिका’ को सीखने के लिए पूछता है। लेकिन संवाहक से ‘वसंतसेना’ कहती है कि वह आर्य चारूदत्त की सेवा करे।

‘संवाहक’ मन में सोचता है, इस बुद्धिमती ‘वसंतसेना’ से कितनी चतुराई से प्रत्युपकार का बदला लेने से मना कर दिया। लेकिन फिर कहता है, “आर्ये मैं इन जुआरियों के द्वारा किए गए अपमान से बौद्ध भिक्षुक हो जाऊँगा।”

‘वसंतसेना’ ऐसा करने के लिए मना करती है। “फिर भी बौद्ध भिक्षुक हो जाऊँगा”, ऐसा कहता हुआ ‘संवाहक’ वहाँ से चला जाता है।

इधर, ‘वसंतसेना’ के सामने ही ‘वसंतसेना’ को न देखने का बहाना करता हुआ ‘कर्णपूरक’ प्रवेश करता है। चेटी से वह पूछता है, “आर्या वसंतसेना कहाँ है? कहाँ है?”

चेटी : दुष्ट मानव ! सामने बैठी आर्या वसंतसेना को नहीं देख पा रहा है?

कर्णपूरक : आर्ये ! प्रणाम।

वसंतसेना : कर्णपूरक आज तुम बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे हो?

कर्णपूरक : आर्या आप आज वंचित रह गईं, जो आज आप मेरा वीरतापूर्ण कार्य नहीं देख पाईं।

वसंतसेना : अच्छा?

कर्णपूरक : हां, तो आर्या आप सुनें, वह आपका खुण्टमोहक नामक दुष्ट हाथी, खूँटे को तोड़कर, महावत को मारकर, उपद्रव करता हुआ, राजमार्ग पर उतर आया। जिसे देख लोग चिल्लाने लगे और भागती हुई भयभीत स्त्रियों की पायजेबों की जोड़ी पैरों से गिरने लगी। रत्न जड़ी हुई करधानियाँ कमर से खिसककर गिरने लगीं तथा रत्नजड़ित हाथों के कंगन हाथ से टूटकर गिरने लगे। इसके बाद दुष्ट हाथी उज्ययिनी नगरी को रौंदता हुआ जा रहा था। तभी उसने अपनी सूंड से एक बौद्ध भिक्षु को पकड़ लिया। भिक्षुक के दंड कमंडलु गिर गए। भिक्षुक दया के लिए चिल्ला रहा था। आप सुनें मेरी वीरता, उस भिक्षुक को देखकर आप के अन्न पर पला हुआ यह सेवक लोहे का डंडा लेकर हाथी को ललकार देता है। विंध्याचल की चोटी के समान महाकाय उस हाथी ने डंडे के प्रहार से भिक्षुक को छोड़ दिया।

वसंतसेना : तुमने आज बहुत अच्छा काम किया, इसके बाद क्या हुआ?

कर्णपूरक : आर्ये ! इसके बाद “धन्य हो कर्णपूरक! धन्य हो” इस प्रकार कहती हुई उज्ययिनी की जनता एक ओर चली गई। लेकिन एक व्यक्ति जो आभूषणों से रहित था, उसने अपना यह दुपट्‌टा मुझे दे दिया।

वसंतसेना : देखो यह दुपट्‌टा क्या चमेली के फूलों से सुगंधित है?

कर्णपूरक : आर्ये ! इसमें मेरे शरीर में लगे मद-जल के कारण सुगंध ठीक से पहचानी नहीं जा रही है।

वसंतसेना : ओह ! देखो नाम लिखा होगा?

कर्णपूरक : आर्ये ! आप खुद ही देख लें, ऐसा कह कर दुपट्‌टा वसंतसेना को दे देता है।

वसंतसेना (देखकर) : अरे यह तो आर्य चारुदत्त का है। और खुशी से ओढ़ लेती है। बदले में कर्णपूरक को आभूषण दे देती है।

जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर मंगलवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)

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