mrachkatikam-13

मृच्छकटिकम्-13 : काम सदा प्रतिकूल होता है!

अनुज राज पाठक, दिल्ली से

वसंतसेना अपनी सेविका के साथ चारुदत्त से मिलने निकल जाती है। चारुदत्त अपने भवन में बैठे दुःखी मन से अपने दुर्दिनों को याद कर रहा है। साथ ही वसंतसेना के घर गए विदूषक की प्रतिक्षा भी।

तभी विदूषक आकर वसंतसेना के बारे में कहता है, “अहो! वसंतसेना का लोभ और कंजूसी। उसने रत्नावली लेने के अतिरिक्त और कोई बात नहीं की। इतना वैभव होने पर पानी के लिए भी नहीं पूछा। कभी उस वसंतसेना का मुँह नहीं देखूँगा। ठीक ही कहा है कि झगड़ा-रहित ग्राम सभा और लोभ रहित वेश्या असंभव है। इसलिए मित्र चारुदत्त को इस वेश्या से दूर करूँगा।”

चारुदत्त : मित्र! आप आ गए। बैठिए। बताइए कार्य हुआ?

विदूषक : हाँ कार्य बिगड़ गया, क्योंकि उसने रत्नावली स्वीकार कर ली।

चारुदत्त : फिर कार्य कैसे बिगड़ गया?

विदूषक : क्यों नहीं बिगड़ गया? बिना खाया-पिया, चोर द्वारा चोरी किया गया कम मूल्य के आभूषणों के बदले चारों समुद्रों के सारभूत रत्नमाला को खो दिया।

चारुदत्त : ऐसा न कहें मित्र। वसंतसेना ने जिस विश्वास से मेरे पास धरोहर रखी थी, यह उस विश्वास की कीमत है।

विदूषक : मित्र मेरे संताप का कारण दूसरा है। उसने अपनी सखियों के साथ मेरा उपहास किया, आप इस वेश्या से खुद को मुक्त कर लीजिए।

चारुदत्त : मित्र इस समय किसी की निंदा करना व्यर्थ है, क्योंकि इस समय गरीबी ने मुझे उनसे अलग कर दिया है। देखो मित्र जिसके पास धन है, वेश्या स्त्री उसकी है, क्योंकि वह धन के वश में है (यस्यार्थास्तस्य सा कान्ता, धनहार्यो ह्यसौ जनः)

विदूषक अब सोच रहा है कि चारुदत्त जिस प्रकार वसंतसेना के बारे में सोचकर आह भर रहा है, तो मेरे मना करने पर भी ये उसे नहीं छोड़ेगा। कहा भी गया है कि “काम सदा प्रतिकूल होता है”( कामो वाम: )

विदूषक ऐसा सोचकर चारुदत्त से कहता है, “वसंतसेना ने कहा है कि वह आज शाम आप से मिलने आएगी। मैं तो सोचता हूँ, वह जरूर बदले में कुछ और माँगने आएगी।

चारुदत्त : आए, लेकिन संतुष्ट होकर जाए।

सेवक : (प्रवेश कर) आर्य वसंतसेना आप से मिलने आई है।

चारुदत्त : ( प्रसन्नतापूर्वक) मैंने कभी शुभ समाचार देने वाले को खाली हाथ नहीं लौटाया, यह दुपट्टा उपहार में स्वीकार करो।

विट – वसंतसेना देखो देखो, वर्षा के के जल से कीचड़ में सने मेंढक पानी पी रहे हैं, कामातुर मोर आवाज दे रहा है, पुष्प युक्त कदंब का वृक्ष दीपक सा लग रहा है, कुल को कलंकित करने वाले सन्यासी की तरह चंद्रमा बादलों से घिरा है, नीच कुल में उत्पन्न युवती की तरह बिजली एक जगह नहीं ठहरती।

वसंतसेना : आप ने ठीक कहा , ऐसा लग रहा है इस प्रकार यह गर्जन मुझे बारंबार रोकती हुई क्रोधित सौत की तरह रात्रि को मेरा रास्ता रोक रही है।

विट : ऐसा ही मानो, यह उलाहना है।

वसंतसेना : विद्वान्! स्त्री स्वभाव से ही ईर्ष्यालु होती है (स्त्री स्वभाव: दुर्विदग्धा) तो फिर रात्रि को उलाहना देने से क्या लाभ? देखो – बादल गरजें, चाहे बरसें अथवा वज्र गिराएँ, किंतु रमण के लिए उत्सुक स्त्रियाँ सर्दी-गर्मी नहीं देखती। (मेघा वर्षन्तु गर्जन्तु मुचन्त्वशनिमेव वा। गणयन्ति न शीतोष्णं रमणाभिसुखाः स्त्रियः)

वसंतसेना : हे मेघ तुम निर्लज्ज हो, क्योंकि मैं प्रियतम के घर जा रही हूँ और तुम मुझे अपने गर्जन से डरा रहे हो और अपने जल धारारूपी हाथों से मेरा स्पर्श कर रहे हो। (जलधर ! निर्लज्जस्त्वं यन्मां दयितस्य वेश्म गच्छन्तीम्। स्वनितेन भीषयित्वा धाराहस्तैः परामृशसि।।)

वसंतसेना : हे इन्द्र! क्या मैं तुम में कभी अनुरक्त थी? जिस कारण तुम बादलों के सिंहनाद से गरज रहे हो। प्रियतम को चाहने वाली मैं और आप मेरा रास्ता वर्षा की धाराओं से रोक रहे हो?( भो शक्र ! किं ते ह्यहं पूर्वरतिप्रसक्ता यत्त्वं नदस्यम्बुद-सिंहनादैः। न युक्तमेतत् प्रियकाङ्क्षिाताया मार्गं निरोद्धुं मम वर्षपातैः।।)

वसंतसेना : हे इन्द्र! चाहे गर्जना करो, अथवा वर्षा करो। चाहे बारंबार वज्र छोड़ो। किंतु प्रियतम के पास जाने वाली कामिनी को तुम नहीं रोक सकते। (गर्ज वा वर्ष वा शक्र मुश्च वा शतशोऽशनिम्। न शक्या हि स्त्रियो रोधुं प्रस्थिता दयितं प्रति।।)

विट : देवी! क्यों बिजली को उलाहना दे रही हो? यह तो उपकार ही कर रही है। यह बार-बार अपनी रोशनी से तुम्हारे प्रियतम का मार्ग दिखा रही है।

वसंतसेना : आप ठीक कह रहे हैं, यह उनका ही घर है…

जारी….
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(अनुज राज पाठक की ‘मृच्छकटिकम्’ श्रृंखला हर बुधवार को। अनुज संस्कृत शिक्षक हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से ताल्लुक रखते हैं। दिल्ली में पढ़ाते हैं। वहीं रहते हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापक सदस्यों में एक हैं। इससे पहले ‘भारतीय-दर्शन’ के नाम से डायरी पर 51 से अधिक कड़ियों की लोकप्रिय श्रृंखला चला चुके हैं।)

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