Valmiki and Ram-Sita

आख़िर क्यों महर्षि वाल्मीकि को भगवान राम का समकालीन मानने के लिए ठोस आधार नहीं है?

कमलाकांत त्रिपाठी, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश से

पूर्व में बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के जिन प्रसंगों का उल्लेख किया गया, वही वाल्मीकि और राम को समकालीन बनाते हैं। ये प्रसंग ख़ुद वाल्मीकि द्वारा लिखे हुए होने का आभास देते हैं। किन्तु सवाल है कि वाल्मीकि अपने बारे में लिखते समय दूसरे चरित्रों की तरह अन्य पुरुष में क्यों लिखेंगे? रचनाकार का, किसी भी कलाकर का, अपनी कलाकृति में अपने नाम का उल्लेख तक भारतीय परम्परा के प्रतिकूल है। ऐसे में वाल्मीकि अपना ही गुणगान कैसे करेंगे? उत्तरकाण्ड के एक प्रसंग में पात्र के रूप में वाल्मीकि की सत्यनिष्ठा पर लम्बा व्याख्यान चलता है जिसका केवल एक अंश पिछले लेख में उद्धृत है।

मूल मुद्दा है कि क्या बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के वर्णित प्रसंगों के अनुरूप वाल्मीकि को राम का समकालीन माना जा सकता है? यह इतिहास और भाषाविज्ञान दोनों का विषय है। कट्टर परम्परावादियों को छोड़ दें, तो मेरी जानकारी में इतिहास या भाषाविज्ञान का कोई विद्वान वाल्मीकि को राम का समकालीन नहीं मानता। यह ज़रूर सर्वमान्य है कि वाल्मीकि लौकिक संस्कृत के आदिकवि हैं। सवाल है लौकिक संस्कृत, साहित्य की भाषा कब बनी?

वैदिक युग की मानक भाषा केवल आर्ष ग्रन्थों (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्‌) तक सीमित है। वैदिक युग की समाप्ति पर भिन्न-भिन्न क्षेत्र की प्राकृतों (पालि उनमें से एक क्षेत्र विशेष की प्राकृत थी) के साथ व्यवहार यानी बोलचाल में वैदिक भाषा से उद्भूत उसका एक परिवर्तित रूप प्रचलित हो गया था। वह अलग-अलग इलाक़ों और अलग-अलग समुदायों में भिन्नता लिए हुए था। ऐसे में इस वैदिकेत्तर भाषा के विभिन्न रूपों को परिष्कृत और संस्कारित कर एक ऐसी समावेशी और सर्वमान्य मानक भाषा की निर्मिति का दुस्तर कार्य पाणिनि द्वारा सम्पन्न हुआ, जो पूरे देश के लिए हर तरह के साहित्य-सृजन, पठन-पाठन की भाषा बन सके। इसके अतिरिक्त देश भर के विद्वज्जनों के बीच ज्ञान-विज्ञान के आदान-प्रदान के लिए सम्पर्क भाषा का काम भी कर सके। वही भाषा संस्कृत है, जो युगों-युगों के उत्कृष्ट सृजन को अपने भीतर सँजोए, देश भर के संस्कृत विद्वानों के लिए आज भी गम्य, भारतीय प्रतिभा का कालातीत दर्पण बन गई।

उपरोक्त भाषाई संक्रमण काल में वैदिक भाषा से उद्भूत जो भाषा व्यवहार में प्रचलित हो गई थी, उसमें एकरूपता लाने और उसके मानकीकरण के लिए उसे व्याकरण के अनुशासन में बाँधने का प्रयास पाणिनि के पहले भी हुआ था। किन्तु सम्बन्धित आचार्यों में मतैक्य नहीं था और किसी का मत सर्वमान्य नहीं हो सका था। पाणिनि ने उस संक्रमण काल की कठिन चुनौती को स्वीकार किया। उन्होंने विभिन्न शाखाओं की वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों का गहन अध्ययन कर उनकी शब्द-सम्पदा को सँजोया। फिर अपने समय में देश के भिन्न-भिन्न भागों में प्रचलित लोक-भाषा के भिन्न-भिन्न रूपों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। दूर-दूर तक यात्राएँ कर विभिन्न समुदायों के विभिन्न पेशों में लगे लोगों द्वारा व्यवहृत शब्दों का संकलन और उनकी व्युत्पत्ति का विश्लेषण किया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, सैनिक, व्यापारी, किसान, रँगरेज, बढ़ई, रसोइए, मोची, ग्वाले, चरवाहे, गड़रिए, बुनकर, कुम्हार आदि अनगिनत पेशेवर लोगों के पेशों में विशेष रूप से प्रयुक्त होनेवाले शब्दों का एक विशाल भंडार एकत्र कर उन्होंने अपनी समावेशी दृष्टि से उन्हें सर्व-स्वीकार्यता और नियमबद्धता की कसौटी पर कसा।

फिर वैदिक भाषा के यास्क-प्रभृत वैयाकरणों तथा प्रचलित भाषा के अपने से पहले के आचार्यों के मतों का सम्यक्‌ समाहार किया। वैदेकित्तर भाषा के एक पूर्व आचार्य शाकटायन का मत था कि सभी संज्ञा शब्द धातुओं में प्रत्यय लगाकर बने हैं। पाणिनि ने मोटे तौर पर इस प्रमेय को स्वीकार कर लिया। किन्तु इसमें इतना जोड़ दिया कि बहुत-से ऐसे शब्द लोकजीवन के व्यवहार में आ गए हैं, जिनकी धातु और जिनमें लगे प्रत्यय पकड़ में नहीं आते। इस तरह विपुल सामग्री एकत्रकर उसके सूक्ष्म मनन-विश्लेषण के उपरान्त उन्होंने आठ अध्यायों के अपने अद्भुत्‌ ग्रन्थ अष्टाध्यायी की रचना की। उसमें उपरोक्त सामग्री का ऐसा सांगोपांग और युक्तिसंगत विवेचन है कि प्रचलित भाषा के पाणिनि के पहले के व्याकरण-ग्रन्थ अप्रासंगिक होकर लुप्त हो गए। उनके बारे में आज उतना ही ज्ञात है, जितना अष्टाध्यायी में आए उनके सन्दर्भों में उपलब्ध है।

पाणिनि के सूत्रों पर कात्यायन ने वार्तिक लिखे और पतंजलि ने अपना प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ महाभाष्य लिखा जिससे संस्कृत का सर्वमान्य रूप निखरकर सामने आया। वाल्मीकि का रामायण इसी संस्कृत भाषा का आदि काव्य है। दुर्भाग्य से पाणिनि का काल निर्विवाद रूप से तय नहीं है। विद्वानों ने उनका कालखण्ड सातवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व के बीच माना है। इससे इतना तो निश्चित है कि वाल्मीकीय रामायण की रचना पाँचवी शताब्दी ईसापूर्व के पहले नहीं हो सकती थी। यदि वाल्मीकि को पतंजलि (दूसरी शताब्दी ई. पू.) का भी परवर्ती माना जाए तब तो उनका काल पहली शताब्दी ईसापूर्व के पहले नहीं जा सकता। इन सीमाओं के भीतर वाल्मीकि का काल मोटे तौर पर पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व से पहली शताब्दी ई. पू. के बीच माना जा सकता है। अधिकांश इतिहासकार रामकथा को आधुनिक अर्थ में इतिहास मानते ही नहीं। इधर कुछ इतिहासकारों ने इस दिशा में जो काम किया है उसके आधार पर रामायण काल को 2,500 ईसापूर्व के बाद नहीं रखा जा सकता।

अस्तु, किसी भी व्याख्या या प्रमेय के अनुरूप, वाल्मीकि को राम का समकालीन सिद्ध करने का कोई तात्त्विक आधार नहीं बनता। यह प्रश्न रामायण के बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड में वर्णित वाल्मीकि और राम दोनों से एक साथ जुड़े हुए प्रसंगों के कारण उठा है। यह विसंगति इसी प्रमेय को पुष्ट करती है कि वाल्मीकि को राम का समकालीन चित्रित करनेवाले बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के ये प्रसंग बाद के प्रक्षिप्त है। वस्तुत: बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड पूरे के पूरे प्रक्षिप्त हैं। आगे इस पर और विचार होगा।
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(उत्तर प्रदेश की गोरखपुर यूनिवर्सिटी के पूर्व व्याख्याता और भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी रहे कमलाकांत जी ने यह लेख मूल रूप से फेसबुक पर लिखा है। इसे उनकी अनुमति से मामूली संशोधन के साथ #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। इस लेख में उन्होंने जो व्याख्या दी है, वह उनकी अपनी है।) 
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