समीर पाटिल, दिल्ली से
अभी हाल ही में असग़र वजाहत जी का उपन्यास ‘मन-माटी’ पढ़ा। विभाजन और विस्थापन का गंगा-जमनी दस्तावेज़ है ‘मन-माटी’। मज़हब की बुनियाद पर बने देश के आजाद खयाल वर्ग की एक ओवर-पॉलिटिसाइज, सेक्युलर-राष्ट्र में अपनी जड़ों की तलाश और क़श्मकश की गाथा है, ‘मन-माटी’।
विस्थापन से उपजने वाले दर्द का मानव-निर्मित त्रासदियों में खास मुक़ाम है। हमारे यहाँ यह मुख्यतया भारत के बँटवारे से जुड़ा है। यह एक ऐसे सार्वभौमिक तल को स्पर्श करता है, जिसे मानव देश-काल और संस्कृतियों की सीमाओं से परे जाकर अनुभव कर सकता है। महत्त्वपूर्ण यह है कि इस अनुभव के दौरान पाठक उस पृष्ठभूमि को भी समझता जाता है जहाँ से यह आती है। पाकिस्तान से आने वाले मुख्य पात्र और उनकी अपेक्षाएँ हमें ऐसा ही मौका देते हैं।
साझा गंगा-जमनी पृष्ठभूमि में रचे इस उपन्यास का कैनवास वृहद् है। भारत में बसे सैय्यदों के गाँव से शुरू होकर अठारहवीं सदी के सलीमगढ़, दिल्ली-दरबार, के घातक दाँव-पेंच से होते हुए, मुज़फ्फ़रनगर, फतेहपुर, सूरीनाम होते हुए डबोई तक पहुँचता है। यहाँ पर उपन्यास आत्मकथात्मक हो जाता है। इस जगह लेखक मानव अनुभूतियों के कुछ विरले अनुभवों को कुशलता से दर्ज़ करते हैं। इसी खंड में दूसरा उपन्यास ‘चाहरदर’ है। उपन्यास आज के भारतीय महाद्वीप या आजकल की प्रचलित शब्दावली में कहें तो दक्षिण एशिया के कैनवास पर है। जहाँ वर्तमान दिल्ली, लाहौर, अमृतसर में आधुनिक पीढ़ी कौमी-मजहबी विभाजन काे भोगने के लिए अभिशप्त है। वहीं उपन्यास में बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पंजाब के फनकारों का जाइज़ा लिया गया है। यहाँ भी उपन्यास की अन्तर्धारा दिखती इतिहास के माध्यम से दिखती है। इस माहौल में आधुनिक आदर्श युवाओं का संघर्ष है, एक ठंडी लाचारी है। आधुनिक राजनीतिक दाँव-पेंच, चालबाज़ी और फ़रेब है।
फिक्शन की एक खासियत यह होती है कि वह सत्य का दावा किए बगैर सच और कल्पना की सन्धि से घटना के अन्य आयामों का ‘सत्य’ प्रतिपादित करता है। कृष्न चन्दर, मंटो और खुशवन्त सिंह सहित कई नामी लेखकों ने इसके माध्यम से मानवीय संवेदनाओं को दर्ज़ किया है। बहुपठित विषय पर कथ्य, शैली, प्लॉट के लिहाज से नयापन रखना एक अलग क़िस्म का संघर्ष होता है। असग़र वजाहत जी की भाषा सहज और बाँधने वाली है। उर्दू, पंजाबी, खड़ी बोली का प्रासंगिक प्रयोग है। घटना और परिवेश का चित्रांकन अच्छा है। लोक संस्कृति का गहन अन्तरंग परिचय देखने को मिलता है।
उपन्यास के पात्र और रूपलेखा कुछ उन्हीं आधुनिकता की सीमाओं में क़ैद हैं, जिन्हें बड़े कैनवास पर उपन्यास त्रासदी की जड़ स्थापित करता है। इस भाग में वर्तमान सामाजिक जीवन का आभासीपन, राजनीतिक प्रतिबद्धताएँ, जड़ों से विलगाव के साथ ही सच्चे सुकून की तलाश और उसे न पाने की अन्तर्वेदना भी सामने आती है। आज का परिवेश जहाँ राजनीति और सामाजिक सत्ता ही सर्वस्व है और मानवीय संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं, उसे यह उपन्यास बखूबी बयाँ करता है। अनायास यह विचार भी आता है कि आजकल बड़े उपन्यास लिखने पढ़ने का फैशन नहीं रहा। यदि ‘मन-माटी’ पुराने क्लासिकल शैली में विशद् रूप से लिखा जाता तो शायद कई अनछुए पहलुओं पर रोशनी सामने आती।
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(समीर का यह लेख दैनिक भास्कर की ‘अहा ज़िन्दगी’ पत्रिका में हाल ही में छपा है। आभार सहित इसे उनकी अनुमति से #अपनीडिजिटलडायरी पर लिया गया है। समीर डायरी के लिए भी समय-समय पर लिखते रहते हैं।)