Toran-Garh

शिवाजी ‘महाराज’ : सह्याद्रि के कन्धों पर बसे किले ललकार रहे थे, “उठो बगावत करो” और…

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

शिवाजी राजे दयाशील थे। ममतालु थे। लेकिन कुछ मामलों में वज्र से भी कठोर थे। भोसलों की जागीर में एक गाँव था- राँझे। राँझे का पटेल था बाबाजी भीकाजी गूजर पाटिल। अधिकार के नशे में चूर होकर उसने एक औरत पर बलात्कार किया। एक माँ की, बहन की आबरू लूट ली। शिवाजी राजे गौ-माता और माँ-बहनों के सुख की खातिर रामराज्य का निर्माण करना चाहते थे। और उन्हीं की जागीर में एक पटेल रावणराज्य कर रहा था। इस महापाप की खबर मिली और शिवाजी राजे बेचैन हो उठे। दीया तले अँधेरा? हमारे ही साये में एक औरत बेआबरू हो? नामंजूर, नामंजूर। मराठों के देवघर में औरत देवी की तरह पूजी जाती है। चाहे वह किसी भी जाति या धर्म की हो। और उसी का इतना जघन्य अपमान? वह भी एक जिम्मेदार अधिकारी के हाथों? फिर रामायण और महाभारत हम पढ़ें ही क्यों?

एक औरत की प्रतिष्ठा के लिए राजा रामचन्द्रजी ने रावण का वध किया। लंका भस्मसात हो गई। चौदह परकोटों में संजोई दौलत नष्ट हो गई। भरी सभा में एक औरत की साड़ी की चुन्नट खींची और महाभारत हो गया। इन्हीं रामायण-महाभारत की निर्मिति थी शिवाजी राजे की शख्सियत। शिवाजी राजे ने बाबाजी पाटिल को गिरफ्तार करवाया। न्यायासन के सामने खड़ाकर सख्त जाँच-पड़ताल की। राजे स्त्रियों की अस्मत के लिए हिन्दवी स्वराज्य का निर्माण करना चाहते थे। उन्होंने हुक्म फरमाया, “इस हरामखोर, बदफैली, पाटिल के हाथ-पाँव तोड़ डालो। पटेली करने का अधिकार छीन लो।” पटेल के हाथ-पाँव तोड़ दिए गए। अधिकार खारिज हुए। इस कठोर शिवशासन का दिन था दिनाँक- 28 जनवरी, साल 1645 का। राजे का न्याय कठोर और समतौल था।

इंसाफ के तराजू पर शिवाजी राजे मक्खी भी बैठने नहीं देते थे। अत्याचार उन्हें ख्यालों में भी गँवारा न थे। राँझे पुणे के दक्षिण में, सात कोस की दूर पर शिवगंगा नदी के किनारे है। इस कठोर न्यायदान के समय राजे की उमर थी केवल चौदह साल, ग्यारह माह। इस न्याय से लोग यह भी समझ गए कि राजे को क्या अच्छा नहीं लगता। सुल्तानी अमल में सरदार और अमलदार औरतों की आबरू पर खुले आम डाका डालते थे। राँझे के पाटिल ने भी उन्हीं का अनुसरण किया था। लेकिन बादशाही और शिवशाही में अन्तर था। शिवबा ने पाटिल को कठोर दंड देकर यह जनता को दिखा दिया। सदियों से तड़पती, कलपती प्रजा को दिलासा मिली। शिवबा के दोस्तों को, राजकाज में इंसाफ कैसे किया जाना चाहिए, इसका सबक मिला।

सैनिकी सुरक्षा की दृष्टि से प्राकृतिक रूप से अजेय, सह्याद्रि जैसा भू-भाग शायद ही कहीं मिले। उन्नत गिरि-शिखरों का, भीषण दर्रों का तथा दुर्गम किले-परकोटों का सह्यप्रदेश सिर्फ निकम्मे, गाफिल राजाओं की वजह से गुलामी को ढोए जा रहा था। सह्याद्रि को चाह थी बुद्धिबल से युक्त किसी बागी की। सह्याद्रि के चौड़े, ऊँचे कन्धों पर बसे सभी किले सुल्तानी सत्ता से तंग आ चुके थे। मानो वे युवकों को ललकार रहे थे, “उठो, बगावत करो। स्वतंत्रता का झंडा हमारी पगड़ी में खोंस दो। हमारे कन्धों पर चढ़ जाओ। हमारे हिरदे में छिप जाओ। हमारी पीठ पीछे छिपकर दुश्मनों से लड़ो। जय तुम्हारी है। तुम और हम आजाद होंगे। सार्वभौम होंगे।”

अजेय सह्यादि के सीने पर खड़ा था एक अभेद्य गढ़, तोरणागढ़। मानो ध्रुव के निश्चय के साथ, अहिल्या की श्रद्धा के साथ यह गढ़ बगावत की राह तक रहा था। पुणे जिले के वेला ताल्लुके में यह गढ़ है। पुणे की नैऋत्य में, नाक की सीध में, दस कोस की दूरी पर यह औघड़ गढ़ है। किला एकदम मजबूत है। खड़ी पहाड़ी चट्टानों और पाताल की थाह लेने वाले गहरे दर्रे। यही तो तोरणगढ़ की शान है। इन ऊँची सीधी-सपाट चट्टानों पर चढ़ने की हिम्मत है, तो सिर्फ हवा की। और ऊपर से उतरने का साहस है, तो सिर्फ पानी की धार में। इस किले का बुधला मचान गेंडे की खूँखार मुद्रा में खड़ा है। झुँजार मचान तो हवा के लिए भी दुर्लघ्य है। इस मचान पर जाने के लिए एकदम सँकरी, सिर्फ चार अँगुली चौड़ी राह है। नीचे मुँह बाए खड़ी है अत्यन्त गहरी खाई।

तोरण किला शक्तिशाली था। बाकी किले भी इसी तरह मजबूत थे। पर थे सुल्तान के पाँव के नीचे दबे हुए। पूरे साढ़े तीन सौ साल से वे गुलाम थे। यहाँ चाँद सूरज उगते थे अँधेरे में। ढलते भी अँधेरे में ही थे। अँधेरा था कि हटने का नाम ही नहीं ले रहा था। वैसे गिरि-कन्दराओं के इस गहन, गूढ़ प्रदेश में राज करने की ताकत थी तो सिर्फ मराठों और शेरों में। लेकिन वही मराठा पुश्त-दर-पुश्त सुल्तान के सामने सलाम बजा रहा था। सुल्तानों की ठोकरें, गालियाँ खाकर भी उसका लहू उबलता नहीं था। मानो मराठों के मन ही मर चुके थे। और शेष रही थी जिन्दा लाश। तोरणगढ़ पर बैठी तोरणजाई भवानी महिषासुर को मार रही थी। लेकिन जान-बूझकर निर्बल बने उसके भक्त महिषासुर की चाकरी कर रहे थे। किन्तु शिवाजी राजे तोरणगढ़ पर हमला करने की ताक में थे।

शिवाजी राजे और उनके जानी दोस्त सुल्तानशाही पर पहला मोर्चा लगाने को उत्सुक थे। कसमें-वादे हो चुके थे। राजे के इशारे भर की देरी थी। लेकिन इशारा देने का यह काम बारूद के गोदाम में जलती मशाल रखने जैसा खतरनाक था। बलाढ्य बादशाहों के खिलाफ बगावत करनी थी। पर राजे के चित्त में चीते का दुर्दम्य आत्मविश्वास, अचूक अटकलें और निश्चित खयाल थे। उनके इशारे के पीछे भवानीशंकरजी का अधिष्ठान था। श्रीकृष्णजी का तत्त्वज्ञान था। उस एक इशारे से सुप्त ज्वालामुखी फट पड़ने वाला था।

आखिर एक दिन राजे ने इशारा किया। बस, मावलपट्टी का शिव त्रिशूल लेकर उठ खड़ा हुआ। शक्ति शतावधि शस्त्र लेकर जाग गई। साढ़े तीन सौ सालों से मिट्टी की बाँबी में सोया ऐरावत उसे फोड़कर, जाले झटककर पाँव की बेड़ियों को तोड़कर, राजनिष्ठा के झूठे खयालों को रौंदता हुआ चीत्कार कर बाहर आया। इस विस्मयकारी नए साक्षात्कार से जमीन आसमान चकित रह गए। सुल्तान मुहम्मद आदिलशाह के खिलाफ बगावत? वह भी एक छोकरे के इशारे पर? देखते ही देखते यह बवंडर उड़ा किला तोरणगढ़ की ओर। शिवाजी राजे के पीछे-पीछे दौड़ती मावलसेना तोरणगढ़ में घुस गई। किले पर स्वराज्य का झंडा फहराने लगा।

साढ़े तीन सौ सालों की अँधेरी रात के बाद तोरणा पर यह नया सवेरा आया था। बादशाह की लापरवाही के कारण यह बुलन्द किला राजे की अंजुलि में बड़ी आसानी से आ गया। सुरक्षा की दृष्टि से किले का प्रबन्ध करते समय धन से भरी गागर मिली। इसे भवानी माँ का प्रसाद समझा गया। इसके बाद सबकी आकाँक्षाओं ने उड़ान भरी। तीन कोस दूर खड़े मुरुम्बदेव के प्रचंड पहाड़ की तरफ। तय हुआ कि वहाँ एक मजबूत किला बाँधना है। हर क्षण समूहूर्त का ही था। ढाँचा बन गया। तैयारी की गई। किला बाँधने का काम भी शुरू हो गया। मंसूबा हुआ कि स्वराज्य की राजधानी यहाँ पर बनेगी। किले का नाम रखा गया राजगढ़।

आकाँक्षा को विश्राम कहाँ? नए स्वराज्य की शक्ति बढ़ाने के लिए राजे और उनके जानी दोस्त जान हथेली पर लिए खड़े थे। उनकी हिम्मत, जिद देखकर नई सृष्टि का निर्माण करने वाले विश्वामित्र भी दाद देते। कल के छोकरे कालचक्र को मनचाही दिशा में घुमाने को उद्यत हाे चुके थे।
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ 
11- शिवाजी ‘महाराज’ : दुष्टों को सजा देने के लिए शिवाजी राजे अपनी सामर्थ्य बढ़ा रहे थे
10- शिवाजी ‘महाराज’ : आदिलशाही फौज ने पुणे को रौंद डाला था, पर अब भाग्य ने करवट ली थी
9- शिवाजी ‘महाराज’ : “करे खाने को मोहताज… कहे तुका, भगवन्! अब तो नींद से जागो”
8- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवबा ने सूरज, सूरज ने शिवबा को देखा…पता नहीं कौन चकाचौंध हुआ
7- शिवाजी ‘महाराज’ : रात के अंधियारे में शिवाजी का जन्म…. क्रान्ति हमेशा अँधेरे से अंकुरित होती है
6- शिवाजी ‘महाराज’ : मन की सनक और सुल्तान ने जिजाऊ साहब का मायका उजाड़ डाला
5- शिवाजी ‘महाराज’ : …जब एक हाथी के कारण रिश्तों में कभी न पटने वाली दरार आ गई
4- शिवाजी ‘महाराज’ : मराठाओं को ख्याल भी नहीं था कि उनकी बगावत से सल्तनतें ढह जाएँगी
3- शिवाजी ‘महाराज’ : महज पखवाड़े भर की लड़ाई और मराठों का सूरमा राजा, पठाणों का मातहत हुआ
2- शिवाजी ‘महाराज’ : आक्रान्ताओं से पहले….. दुग्धधवल चाँदनी में नहाती थी महाराष्ट्र की राज्यश्री!
1- शिवाजी ‘महाराज’ : किहाँ किहाँ का प्रथम मधुर स्वर….

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