Holi Train

धन्य है यह त्योहार, जिसमें सब रंग बदलते हैं… जय होली, जियो होली

द्वारिकानाथ पांडेय, कानपुर, उत्तर प्रदेश से

लखनऊ का चारबाग रेलवे स्टेशन। रोज से लगभग दोगुनी भीड़। हर एक पैर जल्दी-जल्दी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रहा था। टिकट के लिए लगी लाइन इतनी लम्बी थी कि उसने प्लेटफॉर्म की ओर जाने वाले मार्ग को भी छेंक रखा था।
शाम का वक्त था और आज काम का आखिरी दिन। होली की छुट्टियांँ आज से शुरू हो रही थीं। लोग अपने-अपने घर पहुँचने के लिए ट्रेनों में सवार हो रहे थे। पूछताछ केन्द्र पर जमा भारी भीड़ बता रही थी कि लोग किस कदर अपने सुकून तक पहुँचने के लिए आतुर थे। छात्रों, दैनिक कामगार और ऑफिस के कर्मचारियों की भीड़ ज्यादा थी।

रोज किताबों और क्लास नोट्स से भरा बैग आज खुद को हल्का महसूस कर रहा था। क्योंकि आज इसमें बस उतने कपड़े थे, जिनसे चार दिन मौज में काटे जा सके। घर चलाने के लिए घर छोड़कर शहर आए मजदूरों के हाथो में भी आज घर के लिए खुशियों की पोटली थी। किसी ने घर में बच्चों के लिए कपड़े खरीदे हुए थे, तो कोई जरूरत का सामान खरीद कर ले जा रहा था। ऑफिस में पदस्थ कर्मचारियों के चेहरे पर बोनस मिलने की खुशी और हाथों में ऑफिस से मिला गिफ्ट बता रहा था कि रोज-रोज के टारगेट पूरे करने की भागदौड़ से दूर अब कुछ दिन ठहरे हुए गुजरेंगे।

मैं जब स्टेशन पहुंँचा तो मेरी ट्रेन को चलने में करीब 45 मिनट शेष थे। लेकिन ट्रेन एकदम ठसाठस भर चुकी थी। बाथरूम के बाहर तक लोग अपना सामान जमा चुके थे। मैंने प्लेटफॉर्म पर खड़ी ट्रेन का आगे से पीछे तक दो बार चक्कर लगाया कि शायद कहीं खड़े होने भर की जगह मिल जाए। खिड़की से अन्दर देखा तो भीड़ कुछ इस कदर दिखी जैसे किसी ने छल्ली लगाकर आदमियों को भर दिया हो। कहीं बैठने तो क्या ढंग से खड़े होने की भी जगह न थी। चिन्ता की कुछ लकीरों के साथ एक नम्बर डिब्बे के सामने पड़ी पत्थर की सीट पर मैं बैठ गया। अब जब गेट पर ही लटककर जाने का विकल्प मेरे पास बचा था तो मैंने सोचा अभी से धक्का-मुक्की में फँसने का क्या फायदा? ट्रेन चलने के वक्त चढ़ लिया जाएगा।

भीड़ बढ़ती जा रही थी। लोग बराबर आते जा रहे थे और किसी तरह बस खड़े होने की जद्दोजहद कर रहे थे। लड़के- लड़कियाँ, बच्चे-आदमी-बूढ़े सबके साथ यही हाल था। ट्रेन में पैर रखने के लिए भी उन्हें मेहनत करनी पड़ रही थी। प्लेटफॉर्म पर बैठे-बैठे मैने इधर-उधर नजर दौड़ाई। बगल वाले प्लेटफॉर्म पर भी भीड़ का यही हाल था। परिस्थितियाँ कुछ इसी तरह की थीं। ट्रेन की खिड़की से झाँकते चेहरों पर लगा रंग बता रहा था कि जो जहाँ से आया है, वहाँ के रंग में रंगा है। ऑफिस से लेकर कोचिंग के बाहर तक लोग अपने साथियों के साथ होली खेलकर आ रहे थे।

रंग ओढ़े आते-जाते चेहरों को देख उनकी खुशी का अनुमान लगाती मेरी चेतना में अचानक जैसे किसी ने घुसपैठ की हो। मेरे सामने वाले डिब्बे की खिड़की पर अचानक छह-सात लड़कों का झुंड जमा हो गया। वे सब खिड़की से इस तरह अन्दर की ओर झांँक रहे थे, जिससे यह अन्दाजा लगाना मुश्किल नही था कि वे किसी को ढूँढ रहे हैं। सबके चेहरे रंग से पुते हुए थे। हाथों में भी लगा गाढ़ा काला रंग यह बता रहा था कि वह किसी के चेहरे पर लगने वाला है।

कुछ ही देर में यह समझ आ गया कि यह सब साथ में काम करने वाले लोग हैं, जो आज घर जा रहे हैं। सबने मिलकर एक-दूसरे को रंग में डूबा दिया था। लेकिन इनका कोई एक साथी इनके रंगव्यूह से बचकर डिब्बे की भीड़ में शरण ले चुका था। ये अब उसे ही ढूँढ रहे थे। बीच वाली खिड़की के सामने अचानक सभी लड़के ठहर गए और भारी चिल्ल-पों के बीच अपने साथी को बाहर बुलाने लगे। उनके लहजे में निवेदन, आदेश और चेतावनी के साथ-साथ अधिकार का भी भाव झलक रहा था। लेकिन अन्दर भीड़ में शरण लिए इनका साथी टस से मस नहीं हुआ।

बाहर से बुलाने का यह प्रयास असफल हो चुका था। सो, अब लड़कों ने दूसरा दाँव चलाया। उनमें से एक जो सबसे ज्यादा रंगा था, वह बोला, “तुम तीन लोग मेरे साथ आगे के गेट से आओ। बाकी लोग पीछे के गेट से अन्दर जाओ।” सभी लड़के अपने साथी को कुशल रणनीतिकार मानकर उसके आदेशानुसार अपनी पोजीशन लेने लगे। अब एक समूह दो टुकड़ियों में विभाजित हो चुका था। दोनों टुकड़ियों ने गेट से अन्दर घुसने का प्रयास किया। लेकिन भीड़ कुछ इस कदर भरी हुई थी कि बेचारे दोनों दल असफल होकर फिर उसी खिड़की पर आकर जम गए।

एक बार फिर साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाकर अपने साथी को बाहर बुलाने का उपक्रम जारी हुआ। कभी केवल अबीर लगाने का लालच दिया जाता, तो कभी ‘मिलने पर कुकुर जैसे लथेड़ देने’ का भय। किन्तु भीड़ के कवच में खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे उनके साथी पर इनके प्रयासों का कोई असर नहीं हुआ। लड़कों ने आपस में कुछ खुसर-फुसर की और सब वहीं आपस में बातचीत करने लगे। शायद उन्होंने अपनी योजना बदल ली थी। उनमें से दो लड़के गए और कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स और पानी लाकर खाने-पीने लगे।

ट्रेन ने हूटर दे दिया। वह चलने को तैयार थी। सभी लड़के जिस एक नम्बर डिब्बे के बाहर खड़े थे, उसी डिब्बे में किसी तरह ठेल-ठालकर घुस गए। मैंने भी किसी तरह अपने खड़े होने भर की जगह बनाई और टेक लेकर खड़ा हो गया। अपने साथी को रंगने में असफल रहे सभी लड़के मेरे ही आस-पास जमा थे।

ट्रेन ने चलना शुरू कर दिया। कुछ देर में उसने अपनी गति पकड़ ली। आस-पास खड़े लड़कों की बातें सुनकर पता चला कि वह सब लखनऊ की किसी कम्पनी में कर्मचारी हैं। और जिसे वे रंगना चाहते थे, वह भी उसी कंपनी में कार्यरत है, लेकिन किसी बड़े पद पर। सारे कानपुर से ही रोज अप-डाउन करते हैं। आज सब मिलकर अपने ‘कार्यालयी सीनियर’ को रंगना चाहते थे, जिसमे उनके असफल होने का दर्शक मैं स्वयंं था।

अब उनकी योजना थी कि कानपुर उतरने पर वे अपने उस लड़के को रंगकर स्वयं के मस्तक को विजयश्री के तिलक से रंगेंगे। ट्रेन ने जैसे जैसे गति पकड़ी, लोगों में थोड़ी चहल-कदमी भी बढ़ गई। एक के बाद एक कई लोगों ने अपनी लघुशंका के निपटान के लिए बाथरूम का रुख किया। धीरे-धीरे सबने अपने फोन निकाल लिए और अपने आप को व्यस्त कर लिया। मैने भी फोन निकाला और फेसबुक स्क्रॉल करने लगा। बाथरूम के बाहर कुछ देर में चार-पाँच लोग ऐसे एकत्रित हो गए, जिन्हें लघुशंका का समाधान करना था। पूछने पर पता चला कि एक वाशरूम में पानी भरा है, जिस कारण उसे बन्द रखा गया है। इसलिए एक ही शौचालय से सबको काम चलाना पड़ रहा है।

आधुनिकीकरण के बीच भारतीय रेलवे द्वारा अपनी परम्परा को बनाए रखने वाली कार्यशैली देख यह स्पष्ट हुआ कि अब भी कई कर्मठ अफसर ऐसे हैं, जो पूरी तल्लीनता से रेलवे को विकास की दौड़ से महफूज़ रखे हुए हैं। बहरहाल, अपने लक्ष्य को ढूँढते लड़कों के झुंड ने पूरे डिब्बे में नजर दौड़ाई। लेकिन उन्हें कहीं भी उनका साथी नहीं दिखाई पड़ा। उन्नाव स्टेशन पर ट्रेन रुकी, तो दल का नायक फिर पूरे डिब्बे में झांँक आया। लेकिन वह साथी नहीं दिखाई पड़ा। समूह के सदस्यों के मुख पर निराशा के बादल छा गए। उनमें से एक लड़के ने उस लड़के को फोन मिलाकर लोकेशन जाननी चाही। बातचीत सुनकर पता चला कि जिसकी प्रतीक्षा में इन लोगों ने अपने सभी घोड़े खोल रखे हैं, वह तो पिछले स्टेशन पर ही उतर चुका है।

आखिर दल निराश हो गया और इस निराशा का फल इन्हीं के एक साथी को मिला। भगोड़े लड़के की मदद करने के आरोप में सारा रंग उसे ही चुपड़ दिया गया। कुछ देर में ट्रेन कानपुर के कॉलिंग ऑन सिग्नल पर खड़ी हो गई। सभी लड़के वहीं उतर गए। ट्रेन अभी खड़ी ही थी कि तभी उस शौचालय का गेट खुला, जिसमें पानी भरा हुआ बताया गया था। उसमें से एक लड़का बैग टाँगे हुए बाहर निकाला। बाहर निकलते ही उसने आस-पास नजर दौड़ाई और फिर एक सुकून भरी साँस लेते हुए मुझसे बोला, “यहांँ जो लड़के रंगे-पुते खड़े थे, वे चले गए क्या?” मैंने कहा, “हांँ वो तो अभी अभी उतरे हैं नीचे।”

मुझे समझते देर न लगी कि यह ही वह शिकार है, जिसको खोजते हुए उन लड़कों ने अपना पूरा सफर काट दिया। उस लड़के ने धीरे से बाहर झाँक कर देखा तो उसे थोड़ी और राहत मिली। उसके सभी साथी जा चुके थे। वह उतरता, उससे पहले ही मैने एक प्रश्न दागा, “पूरा सफर शौचालय में? सही है गुरू।” उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “अभी यार अपनी गर्लफ्रेंड से मिलना है। और यह सब भूत बना देते। इसलिए लखनऊ में ट्रेन चलने से पहले ही शौचालय में घुस गया था। अब बचने के लिए कुछ तो करना ही था।” उसने फोन निकाला और किसी को कॉल करके 10 मिनट में अपने पहुँचने की सूचना दी और मुस्कुराते हुए ट्रेन से नीचे उतर गया।

कुशल रणनीतिकार की रणनीति सुनकर मैं दंग था और अभी शौचालय की यात्रा में उसके अनुभवों पर विचार ही कर रहा था कि बाहर कुछ शोर सुनाई पड़ा। मैने बाहर झाँककर देखा तो और भी दंग रह गया। हारे हुए समूह ने अभी तक हार नहीं मानी थी। वे सब वहीं छुपकर अपने उस साथी का इन्तजार कर रहे थे। शिकार आखिर उनकी पकड़ में आ गया था। अभी तक मैं जिसकी चतुराई का कायल था, वह अपने हाथों से चेहरे को छुपा रहा था। उनका साथी दल उसे जीभर के रंगो से सराबोर कर रहा था। उनमें से एक लड़के ने बैग में रखी गर्म कोल्ड ड्रिंक की बॉटल निकाली और उसमें रंग की छह-सात पुड़िया उड़ेल दी। काफी छकाने के बाद चंगुल में फँसे प्रतिद्वंद्वी पर पूरी बॉटल उड़ेल दी गई। इस प्रक्रिया के बाद उन सबके पास जितने रंग थे, सभी का प्रयोग उन्होंने कर लिया। अब तक विजय अनुभव कर रहे योद्धा के पास अब चुपचाप रंगवाने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं बचा था। उसकी सफेद शर्ट अब बाकी सभी रंगों में रंग चुकी थी। चेहरे पर रंग की कई परतें चढ़ा दी गई थीं।

रंग चुकने के बाद सभी साथी आपस में मिल गए। रंगा-पुता आशिक भी अब उसी सेना के शामिल हो गया था। सबने टैम्पो स्टैंड की ओर रुख किया। तभी ट्रेन ने फिर हूटर दिया और मैं भी अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गया। रंगव्यूह सफल हुआ। होली की रंगत ऐसे लोगों से ही बरकरार है। धन्य हैं ऐसे धैर्यवान साथी, जो धरती सा धैर्य धरकर अपना रंग जमा गए। धन्य है ऐसे आशिक, जिसने 100 किलोमीटर शौचालय में काट दिए। ताकि प्रेमिका उसे उसी रूप में देख सके, जिससे उसे प्यार है। धन्य है ऐसे दोस्त, जो न खाएँगे न खाने देंगे के भाव के साथ, न मिलेंगे न मिलने देंगे के भाव को चरितार्थ कर रहे थे। धन्य है यह त्योहार, जिसमें सब रंग बदलते हैं। जय होली, जियो होली। 
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(नोट : द्वारिकानाथ युवा हैं। सुन्दर लिखते हैं। यह लेख उनकी लेखनी का प्रमाण है। मूल रूप से कानपुर के हैं। अभी लखनऊ में रहकर पढ़ रहे हैं। साहित्य, सिनेमा, समाज इनके पसन्दीदा विषय हैं। वह होली पर ऐसे कुछ लेखों की श्रृंखला लिख रहे हैं, जिसे उन्होंने #अपनीडिजिटलडायरी पर प्रकाशित करने की सहमति दी है।) 
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