Kondhana Fort

शिवाजी ‘महाराज’ : तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंढाणा किले को में जीत लूँगा”

बाबा साहब पुरन्दरे द्वारा लिखित और ‘महाराज’ शीर्षक से हिन्दी में प्रकाशित पुस्तक से

महाराज ने औरंगजेब के खिलाफ युद्ध छेड़ने का फैसला किया। राजधानी के सामने सिर्फ छह कोस की दूरी पर था कोंढाणा उर्फ सिंहगढ़। सबसे पहले उसी को जीतकर इस मुहिम का शुभारम्भ करने का इरादा था उनका। राजगढ़ से सिंहगढ़ साफ-साफ नजर आता था। रोज ही सैकड़ों बार दिखाई देता था सिंहगढ़। लेकिन उसे जीतना इतना आसान नहीं था। सिंहगढ़ का मुगल किलेदार उदयभान राठौड़ बहुत ही बहादुर था। दिन-रात कड़ा पहरा रखा था उसने किले पर। इसीलिए उसका बड़ा दबदबा था। अनुशासन का बहुत पाबन्द था वह। कोई बेवफाई कर रहा है या पहरे में ढील दे रहा है, ऐसा वहम आया नहीं और उसने उस अपराधी को सजा-ए-मौत सुना दी। किले के कई लोगों को उसने ऐसे ही आरोप रखकर मार डाला था।

सिंहगढ़ मुहिम के लिए महाराज ने मावल जवामर्दों को राजगढ़ पर बुला लिया। कोंकण के उमरठ गाँव के सूबेदार तान्हाजी मालुसरे को भी महाराज ने थैली भेजकर बुलाया। सन्देशा पाते ही तन्हाजी ताबड़तोड़ निकले। उनके साथ उनका छोटा भाई सूर्याजी भी चला आया। रणबाँकुरों को राजसभा में बुलाकर उनके सामने महाराज ने सिंहगढ़ जीतने का मंसूबा रखा। सिंहगढ़ याने कोंढाणा को जीतना महाभुजंग के फन का लालमणि उठा लाने जैसा जोखिमभरा काम था। मौत से खेलना ही था। पर महाराज ने सिंहगढ़ मुहिम की बात उठाई और इससे पहले कि कोई कुछ बोलता, तान्हाजीराव मालुसरे बोल उठे, “महाराज, कोंडाणा किले को में जीत लूँगा!” कैसी हिम्मत!

नई मुहिम का पहला नारियल सिंहगढ़ को दहलीज पर फूटने वाला था। इस जोखम भरे कार्य का नारियल तान्हाजीराव ने उठा लिया। सभी खुश हुए। सिंहगढ़ के बारे में महाराज बेफिक्र हो गए। तान्हाजीराव का वचन, बेल का पत्ता था। एक बार वह बेलपत्र उठा ले तो फिर वह शिवशंकर के मस्तक पर ही गिरेगा। बीच में कहीं नहीं गिरने का। ढाल की तरह उनकी रक्षा करने वाला सूर्याजी भी साथ में था। सूर्याजी, दूसरा तान्हाजी ही था। एक को छुपा लो, दूसरे को बाहर निकालो। कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।

तान्हाजी की हिम्मत की महाराज ने दाद दी। उन्हें पान का बीड़ा और वस्त्र देकर विदा किया। महाराज और माँसाहब का आशीर्वाद लेकर तान्हाजी निकले। उन्होंने देखा कि बादलों की ओट में खड़ा कोंढाणा उन्हें बुला रहा है। तान्हाजी और सूर्याजी कोंढाणा-मुहिम की तैयारी करने लगे। इस मुहिम के लिए उन्होंने केवल 500 आदमी चुने। जबकि गढ़ पर पूरे 1,500 सैनिक थे। लेकिन तान्हाजी जानते थे कि लड़ाईयाँ संख्याबल से नहीं लड़ी जातीं। ऐसा होता तो जसवन्त सिंह और सिद्दी जौहर भी आसानी से जीत जाते। तान्हाजी मालुसरे ने सिंहगढ़ किला जीतने का बीड़ा उठाया था। वह और उनके छोटे भाई सूर्याजी इस मुहिम के लिए राजगढ़ से चल पड़े। मुगलों पर झपट्टा मारने, सिंह की तरह।

सिंहगढ़ बहुत पुख्ता किला था। चारों तरफ ऊँची चट्टानें। बुर्ज-परकोटों पर दिन-रात कड़े पहरे। तोपों की मोर्चेबन्दी भी एकदम बढ़िया थी। जिस पहाड़ पर यह किला था, उसे घनी झाड़ियों ने लपेट लिया था। किले में प्रवेश करने के लिए दो ही रास्ते थे। एक पुणे की दिशा में। यानी उत्तर में और दूसरा था कल्याण कोंढनपुर की दिशा में। यानी गढ़ की आग्रेय दिशा में। पहले रास्ते की तरफ था पुणे दरवाजा, तो दूसरे की तरफ कल्याण दरवाजा। ये दरवाजे बुलन्द और मजबूत थे। इन दरवाजों से टक्कर लेने की हिम्मत किसी में नहीं थी। भला, शेर के जबड़े में भी कोई घुसता है?

गढ़ के ऊपर का विस्तार कुल्हाड़ी के आकार का था। ईशान कोण में छोटा-सा परकोटे से घिरा मचान था। इसे कहते थे कन्दकड़ा। इस कन्दकड़े से उत्तर की तरफ एक ही समय, कम से कम 15 तोपों को दागने का प्रबन्ध था। किले पर कुल मिलाकर 33 बुर्ज थे। नैऋत्य का झुंजार बुर्ज, वायव्य का हणमन्त बुर्ज और पश्चिम चोटी का कलवतिण बुर्ज। दीखने में शानदार और मोर्चेबन्दी के लिए बेहद मजबूत। किले पर तालाब, कुएँ और टंकियाँ, सब मिलाकर 48 जलाशय थे। पहाड़ के माथे पर एक छोटी-सी टेकरी थी। इस टेकरी पर कौंडिण्येश्वर महादेव का हेमाडपन्ती मन्दिर था। एक झील के किनारे अमृतेश्वर कालभैरव का मन्दिर था। हनुमान, नरसिंह और गणपति भी थे पहाड़ पर। किलेदार की कोठी, गोला बारूद का भंडार, घोड़ों के तबेले, सैनिकों के निवास-स्थान आदि इंतिजाम भी थे ही।

औरंगजेब ने यहाँ किले की ही तरह तगड़ा किलेदार तैनात किया था। उदयभान राठौड़। राजस्थान के भिनाय गाँव का यह निवासी बहुत ही तीखे स्वभाव का था। उसकी निष्ठा प्रखर थी। इस तरह गढ़ सुसज्ज था। चींटी तक सिंहगढ़ में प्रवेश नहीं कर सकती थी। और पहरे सिर्फ गढ़ पर ही नहीं थे। गढ़ के चारों तरफ फैले घने जंगलों में और पहाड़ियों में भी नियमित रूप से गश्त लगती थी। डोनागिरि की कगार और उसके नीचे का दर्रा बहुत ही खतरनाक तथा भयावह था। इसलिए वहाँ कोई नहीं आता-जाता था। और फिर रात के समय वहाँ जाने की किस माई के लाल में हिम्मत थी? पर तान्हाजी की सेना रात के अन्धेरे में उसी तरफ बढ़ रही थी। 
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(नोट : यह श्रृंखला #अपनीडिजिटलडायरी पर डायरी के विशिष्ट सरोकारों के तहत प्रकाशित की जा रही है। छत्रपति शिवाजी के जीवन पर ‘जाणता राजा’ जैसा मशहूर नाटक लिखने और निर्देशित करने वाले महाराष्ट्र के विख्यात नाटककार, इतिहासकार बाबा साहब पुरन्दरे ने एक किताब भी लिखी है। हिन्दी में ‘महाराज’ के नाम से प्रकाशित इस क़िताब में छत्रपति शिवाजी के जीवन-चरित्र को उकेरतीं छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ उसी पुस्तक से ली गईं हैं। इन्हें श्रृंखला के रूप में प्रकाशित करने का उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि पुरन्दरे जी ने जीवनभर शिवाजी महाराज के जीवन-चरित्र को सामने लाने का जो अथक प्रयास किया, उसकी कुछ जानकारी #अपनीडिजिटलडायरी के पाठकों तक भी पहुँचे। इस सामग्री पर #अपनीडिजिटलडायरी किसी तरह के कॉपीराइट का दावा नहीं करती। इससे सम्बन्धित सभी अधिकार बाबा साहब पुरन्दरे और उनके द्वारा प्राधिकृत लोगों के पास सुरक्षित हैं।) 
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शिवाजी ‘महाराज’ श्रृंखला की पिछली 20 कड़ियाँ 
41- शिवाजी ‘महाराज’ : औरंगजेब की जुल्म-जबर्दस्ती खबरें आ रही थीं, महाराज बैचैन थे
40- शिवाजी ‘महाराज’ : जंजीरा का ‘अजेय’ किला मुस्लिम शासकों के कब्जे में कैसे आया?
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36- शिवाजी ‘महाराज’ : शिवाजी की दहाड़ से जब औरंगजेब का दरबार दहल गया!
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34- शिवाजी ‘महाराज’ : मरते दम तक लड़े मुरार बाजी और जाते-जाते मिसाल कायम कर गए
33- शिवाजी ‘महाराज’ : जब ‘शक्तिशाली’ पुरन्दरगढ़ पर चढ़ आए ‘अजेय’ मिर्जा राजा
32- शिवाजी ‘महाराज’ : सिन्धुदुर्ग यानी आदिलशाही और फिरंगियों को शिवाजी की सीधी चुनौती
31- शिवाजी महाराज : जब शिवाजी ने अपनी आऊसाहब को स्वर्ण से तौल दिया
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