नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश से
मामला ‘रोचक-सोचक’ है। देश के एक बड़े अख़बार ने आज 19 अप्रैल को ही ये ख़बर दी है कि मध्य प्रदेश में गधे कम हो गए हैं। हाँ, ख़बर जानवर की ही है। बीते 10 साल में, यानी साल 2012 से 2022 के बीच 70 फ़ीसद तादाद इनकी कम हो गई है। राज्य पशुपालन विभाग का ये आँकड़ा है। हालाँकि आम जनता को इससे शायद ज़्यादा मतलब न हो। बल्कि कुछ तो ये भी कह सकते हैं कि हमें क्या? “गधे ही तो हैं, कम हो गए तो अच्छा ही हुआ न?” पर ठहरिए और थोड़ा ध्यान दीजिएगा। पारिस्थितिकी-तंत्र (इको-सिस्टम) में कोई भी जीव-जानवर ग़ैरज़रूरी नहीं होता। ऐसे में, गधों की संख्या कम होने पर भी सकारात्मक नज़रिए से थोड़ा विचार किया जा सकता है।
तो समझने का मामला शुरू करते हैं, सनातन-पुरातन से। मगध के सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु आचार्य चाणक्य को पूरा हिन्दुस्तान आज तक याद करता है। उन्होंने अपने महान् ग्रन्थ “नीति शास्त्र’ के छठवें अध्याय में गर्दभ यानि गधे का भी महत्त्व बताया है। इसके 17वें श्लोक में लिखा है, “सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न पश्यति। सन्तुष्टश्चरतो नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्।।” मतलब कितनी भी थकान आदि होने के बावजूद भार ढोते रहना। या दूसरे शब्दों में कहें तो आलस्य छोड़कर लगातार अपना काम करते रहना। इस प्रक्रिया में शीत-उष्ण यानि ठंडी-गर्मी का परवा न करना। और जो प्राप्त है, उसमें सन्तुष्ट होकर विचरण करना। ये तीन बातें गधे से सीखने योग्य हैं।
ज्ञान के बाद अब बात विज्ञान की। अमेरिका की एरिज़ोना यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की मानें तो गधे विशेष रूप से मरुस्थल के लिए, ‘इको-सिस्टम इंजीनियर’ की तरह होते हैं। उसे बेहतर और सन्तुलित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इन जगहों पर कुआँ आदि की खुदाई के लिए ये सबसे उपयुक्त होते हैं। क्योंकि ये गहरे-गहरे गड्ढे खोदने में माहिर होते हैं। इसी तरह ‘अमेरिकन डंकी एंड म्यूल सोसायटी’ की वेबसाइट पर जाइए। वहाँ तमाम अध्ययनों के हवाले से उल्लेख मिलेगा कि “गधे वास्तव में ‘गधे’ नहीं होते। बुद्धिमान होते हैं। प्रेम और सम्मान की भाषा समझते हैं। प्यार और इज़्ज़त मिलने पर, उसके एवज़ में कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। मेहनत मशक़्क़त तो करते ही हैं, पालतू जानवरों और घर के सदस्यों की भी अपने तौर-तरीक़े से हमेशा सुरक्षा करते हैं।”
ऐसे ही ब्रिटेन की ‘द डंकी सेंक्चुरी’ नाम की एक वेबसाइट है। वह बताती है, “गधों का इंसान के साथ रिश्ता पुराना, मज़बूत और भावुक क़िस्म का है। ये अमूमन शान्त रहते हैं। इनकी अपनी सोच होती है। समाजी और विश्वासपात्र साथी होते हैं। शिष्ट हैं और सचेत भी। इनकी निर्णय क्षमता तेज होती है। ख़तरे का आभास भी इन्हें जल्दी होता है। यह आभास होते ही ये फिर अड़ियल टट्टू हो जाते हैं। क्योंकि अड़ जाना इनका स्वाभाविक गुण है।”
इसके बाद अब कहानी कुछ आँकड़ों की ज़ुबानी। ‘डाउन टु अर्थ’ नाम की एक बड़ी प्रतिष्ठित पत्रिका है। उसमें अभी दिसम्बर 2022 में ही एक लेख आया था। उसके मुताबिक, “गधे की सम्भवत: ऐसी ही ख़ासियतों की वज़ह से हिन्दुस्तान के आन्ध्र, तेलंगाना जैसे राज्यों सहित दुनिया के कई देशों में उनका माँस भी खाया जाता है। गुजरात में देसी हलारी नस्ल के गधों को पालने वाले तो स्वास्थ्य सम्बन्धी उद्देश्यों से गधी के दूध का सेवन तक करते हैं। यही नहीं, पारम्परिक चीनी चिकित्सा में गधे की त्वचा को उबालकर इजियाओ नामक जिलेटिन तैयार किया जाता है। इससे अनिद्रा, सूखी खाँसी, ख़राब रक्त परिसंचरण आदि का इलाज़ किया जाता है। इसी वज़ह से सिर्फ़ चीन में गधों की खाल की आपूर्ति करने के लिए ही दुनियाभर में हर साल 40-50 लाख गधे क़त्ल कर दिए जाते हैं।”
कुल मिलाकर बात ये कि जिन गधों को ‘गधा’ कहकर अनदेखा और उपेक्षित कर दिया जाता है, वे इतने भी महत्त्वहीन नहीं हैं। लिहाज़ा, उनकी तादाद घटने की ख़बर पर हँसी-मज़ाक से इतर थोड़ा गम्भीरता से विचार करना लाज़िम है। और हँसी-मज़ाक भी करना है, तो चलिए उसी लिहाज़ से सोच लीजिए। इन सवालों का ज़वाब कि “किसी बुद्धिमान् की एहमियत या कहें कि अस्तित्त्व, व्यक्तित्त्व आख़िर कैसे साबित होता है? कैसे बड़ा बनता है?” ज़वाब मिले तो इस निरीह जीव के बारे कुछ अच्छा भी सोच लीजिए। करते बने, तो कर लीजिए। क्योंकि बीते पाँच-सात हजार साल से यह इंसान के किसी न किसी काम ही आ रहा है। और आगे भी आता ही रहेगा!