Buddh-Aanand

बुद्ध के आनन्द ने राजकुमारों से पहले एक नाई की प्रव्रज्या क्यों कराई?

द्वारिकानाथ पांडेय, कानपुर, उत्तर प्रदेश से

तथागत बुद्ध के शिष्यों में आनन्द प्रमुख थे। तथागत के सभी शिष्यों में आनन्द को ही भगवन्‌ का सामिप्य सबसे अधिक प्राप्त था। यह आनन्द के जीवन की बड़ी कृत-कृत्यता थी कि उन्हे भगवान के ‘उपस्थापक¹ का पद प्राप्त था। उपस्थापक का कार्य होता था तथागत की सेवा एवम् उनके दैनिक कार्यों की हर छोटी-बड़ी जरूरतों का ध्यान रखना।

बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार ‘धम्मभंडागारिक’ आनन्द आपने नाम के अनुरूप सौम्यता की प्रतिमूर्ति एवम् स्वभाव से मृदु थे। सबसे अधिक बौद्ध वचनों को सुनने का सौभाग्य आनन्द को मिला था और उन्होंने अपनी स्मृति में तथागत की वाणी को ज्यों का त्यों संग्रहित कर लिया था। इसलिए भिक्षु संघ उन्हें ‘धर्म का भंडारी’ अर्थात् ‘धम्मभंडागारिक’ कहकर पुकारने लगा था। बहुश्रुत आनन्द की स्मरण शक्ति ऐसी थी कि वे तथागत के मुख से निकले एक से लेकर  60,000 शब्दो को ठीक से एक क्रम में, बिना एक अक्षर छोड़े स्मरण कर लेते थे। यही कारण था कि स्वयं भगवान दशबल (बुद्ध) ने आनन्द को अपने स्मृतिमान् और बहुश्रुत शिष्यों में प्रधान कहा था।

आनन्द तथागत के सगोत्रीय अर्थात शाक्यवंशीय थे। आनन्द और तथागत के पिता शुद्धोदन और अमृतोदन भाई-भाई थे। इस नाते बुद्ध और आनन्द रिश्ते में चचेरे भाई थे। उम्र में भी आनन्द और सिद्धार्थ समान ही थे। लेकिन सम्पूर्ण विश्व पर करुणा रखने वाले भगवान बुद्ध के लिए इन रिश्तों का क्या मूल्य? मूल्य रहता तो फिर बुद्धत्त्व कैसा? शाक्यवंश जातीय अभिमान में चूर रहने वाली जाति थी। लेकिन शाक्यकुमार आनन्द की प्रव्रज्या के बाद यह अभिमानविलीन हो गया।

बुद्धत्त्व प्राप्त होने के दूसरे वर्ष में कपिलवस्तु के पास अनूपिया क़स्बे में भगवान बुद्ध उपदेश दे रहे थे। बुद्धउपदेशों की प्रतिध्वनि जब शाक्यकुमारों तक पहुंँची तो वे किसी प्रकार माता-पिता से आज्ञा ले तथागत के दर्शन हेतु पधारे। छह शाक्यकुमारों- भद्दीय, अनिरुद्ध, आनन्द, भृगु, किम्बिल और देवदत्त जब भगवान के पास पहुंँचे तो उनके साथ उनका नाई उपालि भी था। वह स्वामिभक्ति के कारण कुमारों के साथ चला आया था। शाक्यकुमारों ने जब बुद्धशासन में रहने का निर्णय किया तो उपालि नाई को अपने सब आभूषण और वस्त्र आदि देकर उसे लौटाने का प्रयास किया। किन्तु नाई ने कुमारों के आभूषण ले जाकर एक वृक्ष पर टांग दिए। साथ ही उद्घोष कर दिया, “जो इन आभूषणों को देखे, वह ले जाए’।” इसके बाद वह बुद्ध के समीप लौट आया।

बुद्धउपदेश सुनकर बौद्ध धम्म के शामिल होने जा रहे शाक्यकुमार आनन्द सबसे पहले जाति के बन्धन को तोड़ते है। वे तथागत से प्रार्थना करते हैं कि सबसे पहले उपालि को प्रव्रजित करें। ताकि बाकी शाक्यराजकुमार नाई का अभिवादन कर सकें, प्रत्युथान करें, इसके सम्मान में खड़े हों, हाथ जोड़े एवम् वन्दन करें। हुआ भी ऐसा ही। तथागत ने पहले उपालि को प्रव्रजित किया और बाद में शाक्यकुमार प्रव्रजित हुए। इस घटना के बाद क्षत्रिय समेत अनेक जातियों ने संन्यास ग्रहण किया। स्थविर आनन्द के प्रयास ने संन्यास-ग्रहण में ब्राह्मणों के एकाधिकार को मिटाया।

वेदान्त ऋषि साधना के क्षेत्र में स्त्रियों की समानता के बड़े पक्षपाती थे। किन्तु सामाजिक आन्दोलन के रूप में स्त्री के तेज को नवीन प्रकर्ष भगवान बुद्ध से मिला। यह भी सम्भव हुआ स्थविर आनन्द के कारण। भगवन् महाविजयी (बुद्ध) की मौसी महाप्रजापति गोतमी ने तीन बार प्रव्रज्या ग्रहण करने की अनुमति मांँगी। किन्तु तीनों बार तथागत ने इंकार कर दिया। तब माता गोमती ने आनन्द से सहायता हेतु प्रार्थना की। लेकिन आनन्द के निवेदन पर शास्ता (बुद्ध को कहा जाता था) ने कहा, “आनन्द ! तुम्हे यह रुचिकर नहीं होना चाहिए कि तथागत के द्वारा साक्षात्कार किए हुए धर्म में स्त्रियाँ भी घर से बेघर हो प्रवज्या ग्रहण करें।” यह सुन आनन्द को चुप होना पड़ा। किन्तु कुछ दिनोपरान्त आनन्द ने पुन: प्रयास करते हुए कहा, “सन्ते ! क्या प्रथागत- प्रवेदित-धर्म मे स्त्रियाँ स्त्रोत- आपत्तिफल, सकृदागामि-फल, अनागामि- फल और अहवफल का साक्षात्कार कर सकती है ?” ज़वाब में बुद्ध बोले,  “साक्षात् कर सकती है आनन्द !” 

फिर क्या था, भगवान् को प्रजापती गौतमी की प्रव्रज्या के लिए आज्ञा देने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस प्रकार भिक्षुणी संघ की स्थापना आनन्द के प्रयत्न से ही हुई। आनन्द भगवान् दशबल (बुद्ध) के बड़े भक्त थे। भगवान को थोड़ा कष्ट होने पर वह विकल हो उठते थे। प्रतिदिन रात्रि में नौ बार एक हाथ में दीपक लेकर और दूसरे हाथ में डंडा लेकर आनन्द मूलगन्ध-कुटी का चक्कर लगाते। ताकि तथागत की निद्रा कोई भंग न कर दे। जब एक बार देवदत्त (भगवान् बुद्ध के विद्रोही शिष्य) के षड्यन्त्र से नीलगिरि नामक मस्त हाथी को शराब पिलाकर भगवान् के ऊपर छोड़ा गया ताकि वह उन्हें हानि पहुंँचा सके, तब आनन्द हाथी को देखकर अपनी जान की परवा न कर भगवान् बुद्ध के सामने खड़े हो गए। भगवान् बुद्ध ने तीन बार मना किया, “आगे से हट जाओ आनन्द”, परन्तु शास्ता के प्रति आनन्द का इतना अगाध प्रेम था कि वे न हटे। अपने प्रेम मे वे शास्ता की आज्ञा की भी परवा नही करते थे।

अपने परिनिर्वाण के समय में अपने समीप आनन्द को न देख तथागत ने भिक्षुओं से आनन्द को बुलाकर लाने का आदेश दिया। भिक्षुओं ने उन्हें ढूँढा तो तथागत के शोक में व्याकुल आनन्द उस विहार में कहीं एक खूंँटी पकड़ रो रहे थे। रोते हुए आनन्द को देखकर दशबल (बुद्ध) बोले, “आनन्द तुमने चिरकाल तक कायिक, मानसिक और वाचिक कर्म से मेरी सेवा की है। तुम अब निर्वाण साधना में लगो। शीघ्र ही मुक्ति मिलेगी।”

भगवान बुद्ध ने अपने अन्तिम उपदेश में भिक्षुओं के समक्ष आनन्द के गुणों का वर्णन किया। आनन्द एवम् अन्य भिक्षुओं को अन्तिम आवश्यक उपदेश देकर शास्ता ने निर्वाण प्राप्त किया। तथागत की सेवा व उपदेशों का सबसे अधिक सामिप्य पाने एवम् तथागत के महापरिनिर्वाण काल तक 40 वर्ष बौद्ध संघ में रहने के उपरान्त भी आनन्द ‘अर्हत् अवस्था’ को प्राप्त नहीं कर सके और इसलिए वह परिनिर्वाण काल में शोक करते हैं। तथागत के परिनिर्वाण के उपरान्त आनन्द कई वर्षो तक जीवित रहे और बौद्ध संघ का यह धम्मभंडागारिक अपने स्मृति के भंडारण से बौद्ध वचनों को समाज तक पहुंँचाता रहा।
—- 
(नोट : द्वारिकानाथ युवा हैं। सुन्दर लिखते हैं। यह लेख उनकी लेखनी का प्रमाण है। मूल रूप से कानपुर के हैं। अभी लखनऊ में रहकर पढ़ रहे हैं। साहित्य, सिनेमा, समाज इनके पसन्दीदा विषय हैं। बुद्ध पूर्णिमा पर लिखा यह लेख उन्होंने स्वयं ही #अपनीडिजिटलडायरी पर प्रकाशित करने की मंशा से भेजा है।) 
—– 
द्वारिकानाथ के पिछले लेख

होली श्रृंखला की कड़ियाँ 
6- देखो न, कैसे मैंने होली मनाई….
5- धन्य है यह त्योहार, जिसमें सब रंग बदलते हैं… जय होली, जियो होली
4. निर्गुण की होरी : गगन मंडल अरूझाई, नित फाग मची है…
3. अवध में होरी : माता सीता के लिए मना करना सम्भव न था, वे तथास्तु बोलीं और मूर्छित हो गईं
2. जो रस बरस रहा बरसाने, सो रस तीन लोक में न
1. भूत, पिशाच, बटोरी…. दिगम्बर खेलें मसाने में होरी

सोशल मीडिया पर शेयर करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *