विशी दाहिया, बहादुरगढ़, हरियाणा से, 8/3/2022
चलो जीती हूँ आज से, मैं सिर्फ़ अपने लिए।
भूल जाती हूँ बचपन से, जीना माता-पिता के लिए
शादी के बाद पति और बच्चों के लिए
चलो तोड़ती हूँ, आज सारे बन्धन, मैं सिर्फ़ अपने लिए।
चलो मुश्किल है मुझे समझना, आसान बनाती हूँ, सबके लिए
छोड़ती हूँ ससुराल में, सबकी हाँ में हाँ मिलाना
शादी के बाद सिन्दूर और बिन्दी लगाना
चलो छोड़ती हूँ हर क़दम पे, मैं रिश्तों का बोझ उठाना।
मगर मुश्किल है सब निभाना, चलो आसान बनाती हूँ सबके लिए
रोक देती हूँ ख़ुद को दान-वस्तु, पिता के लिए बनना
शादी के बाद अग्नि-परीक्षा देना
चलो छोड़ती हूँ हर क़दम पे, मैं त्याग की मूरत बनना।
चलो जीती हूँ आज से, मैं सिर्फ़ अपने लिए
खुली हवा में लहरों की तरह उठने के लिए।
—–
(विशी दाहिया ने ‘अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस’ के मौके पर यह कविता वॉट्सऐप के जरिए #अपनीडिजिटलडायरी को भेजी है। वे डायरी की नियमित पाठक हैं। अपना कारोबार करती हैं। डायरी का खास पॉडकास्ट ‘डायरीवाणी’ भी नियमित सुनती हैं।)