Mayavi Amba-10

‘मायावी अंबा और शैतान’ : पुजारी ने उस लड़के में ‘उसे’ सूँघ लिया था और हमें भी!

ऋचा लखेड़ा, वरिष्ठ लेखक, दिल्ली

# 20 साल और एक दिन #

हम कभी कमजोर पात्रों में नहीं रहते। कमजोर शरीरों को ठिकाना नहीं बनाते क्योंकि उनके मानस-पटल बहुत कोमल होते हैं। उनके विचारों के कण अक्सर इस तरह से गिरकर टूट-फूट जाते हैं, जैसे तेज गर्मी के दिनों में तपते फुटपाथ पर कोई तरबूज गिरता है। हाथ की पकड़ ढीली हुई नहीं कि बस फिसल गया। पलक झपकते ही जमीन पर। ऊपरी कठोर आवरण टुकड़े-टुकड़े हुआ और भीतर का मुलायम गूदा पूरा बाहर बिखर गया। सब मिट्‌टी में मिल जाता है। बेकार हो जाता है। ऐसे ही, कमजोर पात्रों में हमारे रहने से अंत हमेशा बुरा ही होता है। हमारे लिए और उसके लिए भी। वैसे, हम एक और नियम का भी पालन करते हैं। वह ये कि हम एक बार जिस शरीर में आ गए, उसे छोड़ते नहीं हैं। हम उसे अपने जैसा बनाने का मंसूबा रखते हैं।

माँ, हमेशा लड़के को ही ज्यादा प्यार करने वाली थी। माँ के भरपूर लाड़-प्यार से बच्चा मौज में था। लगता है, लड़का भी जान गया था माँ उसके दुलार से बँधी हुई है। सो, वह बड़ा-बड़ा होते जिद्दी होने लगा। सुंदर और गोलमटोल था, पर चीखता बहुत था। मूडी किस्म का था। हमने उसके भीतर की कमजोरी को जान लिया था। नाजुक मिजाज, स्वार्थी और कायर। भीतर से बहुत मजबूत नहीं था। बल्कि उसका ध्यान बाहरी दुनिया पर रहता था। इस उम्मीद में रहता था कि कोई और उसके लिए कुछ कर जाए। इसीलिए हम में से किसी ने भी उसे नहीं चुना। एक ही कोख में पले-बढ़े भाई–बहन के बीच इससे ज्यादा अंतर हो नहीं सकता था।

कई बार हम भी झमेले में पड़ जाते थे। जैसे, एक बार उसका भाई भगवान की पाषाण-प्रतिमा को देखकर आकर्षित हो गया। मंदिर में चला गया। चमकदार सफेद चीनी मिट्‌टी की प्रतिमा थी। होंठ एकदम सुर्ख लाल। चमकीले पीले वस्त्र और आभूषण। उस प्रतिमा को छूना वर्जित था। इसके बावजूद उस लड़के ने उसे छू लिया और गाँव के पुजारी ने उसे देख भी लिया। फिर क्या था, उसने उस लड़के की बेंत से पिटाई कर दी।

“तेरी हिम्मत कैसे हुई इस कतार में आने की? गंदे खून वाले!” ऐसा कहते हुए गाँव के पुजारी ने उसे तब तक मारा, जब तक उसकी चमड़ी नहीं उधड़ गई। खून नहीं बहने लगी।

पुजारी ने उस लड़के में ‘उसे’ सूँघ लिया था। और एक तरह से हमें भी। आखिर वे दोनों एक ही कोख से जो जन्मे थे। भाई के साथ हुए बर्ताव से वह ऐसी तिलमिला उठी कि हमने उसके अनगढ़ क्रोध की धारा अपने भीतर दौड़ते हुए महसूस की थी। उसी गुस्से में उसने उस रोज गाँव के पुजारी को धक्का मार दिया था। इससे वह पीठ के बल जा गिरा। उसने आँखें फेर दीं और जुबान लड़खड़ा गई उसकी। वह फिर कभी सीधे खड़े होकर नहीं चल सका।

उस समय हम भी दखल दे सकते थे। बदला लेने में उसकी मदद कर सकते थे। लेकिन वह हमारी नहीं सुनती थी। खुद अपने काबू में रहना चाहती थी। एक लक्ष्मण रेखा खींच रखी थी उसने। वह कुछ ऐसी खासियतों की मालिक थी, जो उसे न उसके पिता से मिली थीं, न माँ से और न ही किन्हीं रिश्तेदारों से।

हम इससे पहले जिन शरीरों में भी रहे, वह उन सब से अलग थी। ऊपर वाले ने जब उसमें जान डाली, तभी कुछ विशिष्टताएँ भी उसमें रोप दी थीं। ऐसा हमेशा ही होता है। वह ऊपर वाला हर किसी में कुछ न कुछ ऐसी खासियतें डालता है, जो एक को दूसरे से अलग करती हैं। इसीलिए दो अँगुलियों के निशान भी एक जैसे नहीं होते। यह हमारे लिए भी कुतूहल का विषय ही था।

वह हमेशा हमसे सावधान रहा करती थी। तो क्या हमारे सिर में बालों की जगह साँप लहराते थे? या हम में कहीं बिच्छू का डंक था? या फिर हम में से खून टपकता रहता था? नहीं, ऐसा कुछ नहीं था। पर उसके जेहन में शायद अपने पूर्व जन्मों की कुछ स्मृतियाँ ठहरी हुई थीं। ऐसी, जो हमसे जुड़ी हुई थीं। इसीलिए मुमकिन है, उसे यह भी याद हो कि हम क्या-कुछ कर सकते थे। लिहाजा वह हम पर निगाह रखती थी ताकि वह खुद पर से कभी अपना नियंत्रण खो न दे।
जब उसका बेढंगापन जाता रहा, तो हमने विकट गर्व से उसे देखा। उसके भीतर अब जो विकसित हुआ था, उसे लोग चरित्र कहते हैं। वह सक्षम, कठोर और दूरदर्शी हो गई थी। उसने अपनी कोमलता की जगह सामर्थ्य को अपनाया था। वहीं तीव्र इच्छा के बदले में अस्तित्त्व बचाए रखने की क्षमता को। उसे अब किसी व्यक्ति की जरूरत नहीं थी, जो बताता कि जिस संसार में वह जन्मी है, उससे आगे जहाँ और भी हैं। उनसे भी आगे और हैं। वह अब अपनी इच्छा से हमें बुलाती थी। केवल उसी वक्त खुद को पूरी तरह अभिव्यक्त करने की हमें इजाजत होती थी।

साल-दर-साल बीतते गए और दूसरों के मुकाबले उसकी शख्सियत का फर्क अधिक साफ दिखने लगा। बल्कि उसने तो अपने बचपने में ही समझ लिया था कि उसकी हस्ती कुछ बेढब है। तात्त्विक रूप से रहस्यमय है। जटिल है। कई बार उसकी शख्सियत का फर्क सामने भी आ जाता था। मसलन- वह अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह घुटनों के बल कभी नहीं चली। बजाय इसके, अपने नन्हे पैरों पर चलकर खुद अपने लिए खाना लेने जाती थी। हमने महसूस किया था, जब वह जोतसोमा के जंगलों में जीवन की प्रचुरता देख आश्चर्य से उछल पड़ी थी। वहाँ हरियाली की सुगंध से वह हक्का-बक्का थी। लेकिन तब भी उसने अपने आप को रोका था। मेंढक की तरह उछलकर किसी तालाब में कूद जाने की भीतर से जोर मारती वृत्ति को उसने उतने ही पुरजोर तरीके से दबाया था। जंगल के अँधेरे में छिपे भयानक जीव-जंतुओं का डर बताकर उसने अपनी इच्छा को दबा लिया था। उसके भीतर जो शक्ति दबी हुई थी, उसकी सच्ची प्रकृति को खोजने में वह हिचकिचा जाती थी। सुरक्षा की दीवार के तौर पर हम उसके भीतर थे। इसके बावजूद अपनी दुनिया और हमारे बीच वही दीवार बनकर खड़ी थी।

लिहाजा, हमने इंतजार किया। रेखा पार करना हमेशा अपने आप में दर्दनाक था। हम चुक गए थे। सो, वर्षों तो उसके भीतर ही गहराई में कहीं दुबक कर सोए रहे। सब्र के साथ अपना वक्त आने का इंतजार करते रहे। क्योंकि वह विकट समय बस, आने ही वाला था।

जल्द ही, उसके पास कोई और रास्ता नहीं बचेगा। पर इस वक्त, हमें बस इंतजार करना था।

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(नोट :  यह श्रृंखला एनडीटीवी की पत्रकार और लेखक ऋचा लखेड़ा की ‘प्रभात प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक ‘मायावी अंबा और शैतान’ पर आधारित है। इस पुस्तक में ऋचा ने हिन्दुस्तान के कई अन्दरूनी इलाक़ों में आज भी व्याप्त कुरीति ‘डायन’ प्रथा को प्रभावी तरीक़े से उकेरा है। ऐसे सामाजिक मसलों से #अपनीडिजिटलडायरी का सरोकार है। इसीलिए प्रकाशक से पूर्व अनुमति लेकर #‘डायरी’ पर यह श्रृंखला चलाई जा रही है। पुस्तक पर पूरा कॉपीराइट लेखक और प्रकाशक का है। इसे किसी भी रूप में इस्तेमाल करना कानूनी कार्यवाही को बुलावा दे सकता है।) 
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पुस्तक की पिछली कड़ियाँ 

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