अनुज राज पाठक, दिल्ली से
भारत अपनी समृद्धि और वैभव के कारण हमेशा भारतेत्तर भूभाग के निवासियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। इस आकर्षण के कारण भारत ने अनेक युद्ध देखे और लड़े हैं। इस आकर्षण ने दूसरों को भारत पर आक्रमण हेतु प्रेरित किया। इस सन्दर्भ में प्राय: एक बात बार-बार बोलकर भारतीय मस्तिष्क में बैठा दी गई कि भारत पहले आक्रमण नहीं करता। जो संभवत: सत्य है और नहीं भी। क्योंकि सच्चाई एक यह भी है कि भारत के प्राण श्रीराम ने भारतीय अस्मिता की रक्षा हेतु केवल दूसरे की धरती पर जाकर युद्ध ही नहीं किया, अपितु आक्रान्ता के सभी सहयोगियों को नष्ट भी कर दिया। अत: इस भ्रम से निकलने का प्रयास करें कि भारत और भारत के लोग आक्रमण नहीं करते।
लगता है, आधुनिक भारत के तथाकथित कर्णधारों ने भारतीय पौरुष को निस्तेज करने हेतु इस तरह की विचारसरिणी का निर्माण किया। क्योंकि भारत द्वारा आक्रमण में भारतीय पौरुष अपने बाहुबल से दुश्मन को नष्ट ही कर देता है। लेकिन आधुनिक भारत के कर्णधारों ने भारत के दुश्मनों से रोटी-बेटी का सम्बन्ध बनाकर भारत को नष्ट करने का बीड़ा उठा लिया था, तो कैसे भारत के दुश्मनों को नष्ट होने देते?
दुर्भाग्य से, हम भारत के लोग सदियों की परतंत्रता से निकल, यह समझ ही नहीं पाए कि अपने ही लोग शत्रु के नुमाइन्दे बन भारत को नष्ट करने को तैयार बैठे हैं। यह भी एक तरह का युद्ध ही था, जिसके प्रति हम तैयार ही नहीं थे। इस वैचारिक परतंत्रता की अनुभूति भी हमें दशकों बाद हो पा रही है। लेकिन अब भी हमारे हृदयों में इतना साहस नहीं पैदा हो पा रहा है, जो इस युद्ध के प्रति हम आक्रामक हो पाएँ।
हम इस आक्रमण का उपाय ढूँढ रहे हैं। सच में अगर उपाय ढूँढने हैं, तो भारतीय बौद्धिक सम्पदा रामायण, महाभारत, कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन करना होगा। जो हमें ‘शठे शाठ्य’ के आचरण का आदेश देता है। जो युद्ध में नैतिकता की बात तब तक करता है, जब तक शत्रु नैतिक हो। अन्यथा साम-दाम-दण्ड-भेद की श्रृंखला के उपाय सुझाता है। किसी युद्धक समूह से बचाव के बहुत से उपाय होते हैं।
इसीलिए कुछ उपाय केवल भ्रम मात्र हैं, जिन्हें अपनाना आत्महत्या ही हैं। इसमें खुद का केवल बचाव ही बचाव करते रहना युद्ध में पराजय का कारण होता है। बचाव केवल आगे आक्रमण की नीति का भाग हो सकता है। बचाव युद्ध का सम्पूर्ण भाग नहीं हो सकता। हम सदियों से केवल और केवल बचाव की मुद्रा में हैं। लेकिन अब आक्रमण करने के लिए उद्धत होना होगा। युद्ध के उपाय सीखने होगें, जो पूर्वजों ने अपनाए हैं।
उपाय वही हैं, जो श्रीराम ने युद्ध में अपनाए। उपाय वही हैं, जो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुझाए। उपाय वही हैं, जो चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को सिखाए। फिर देखिए भारत का शत्रु चाहें वह बाहरी हो या आन्तरिक नष्ट ही होगा। सिंह स्थिरबुद्धि से आक्रमण करता है, इसीलिए राजा बनता है। बलवान हाथी बल का उपयोग मात्र अनियंत्रित (मदमत्त) अवस्था में ही कर पाता है, इसीलिए वह अंकुश से नियंत्रित रहता है। लिहाजा, युद्ध सिंह की तरह होना चाहिए। विजय सुनिश्चित है। यही उपाय हैं। विजय का यही एक मात्र रास्ता है।
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(नोट : अनुज #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। लगातार डायरी के लिए लिखते रहते हैं।)