अनुज राज पाठक, दिल्ली
आज ‘विश्व संस्कृत दिवस’ है। हमारी प्राचीन परम्परा में उत्सव मनाए जाते थे। लेकिन आजकल हम ‘दिवस’ मनाते हैं। ऐसे ही दिवस मनाने की आधुनिक परम्परा में संस्कृत दिवस भी मनाया जा रहा है। हालाँकि ऐसा नहीं है कि इस दिन संस्कृत पैदा हुई, इसलिए यह मनाया जाता है। अपितु, सरकार ने इस दिन को ‘संस्कृत दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की, इसलिए इसे मनाते हैं। श्रावणी पूर्णिमा को ही संस्कृत दिन मनाने के पीछे एक और कारण है। यह कि प्राचीन परम्परा में इस पूर्णिमा को अध्ययन आरम्भ होता था। इसी कारण यह दिन चुना गया।
सो, आज हम विविध संस्कृतभाषाविदों, संस्कृत अध्येताओं से ‘संस्कृत दिवस’ की शुभकामनाएँ सुन सकते हैं। अभी हाल में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के अध्यक्ष श्री सोमनाथ जी ने भी चन्द्रयान अभियान की सफलता के बाद एक कार्यक्रम में संस्कृत साहित्य के विषय में सकारात्मक बात कही। उससे संस्कृत जगत में जहाँ गर्व की भावना का संचार हुआ, वहीं दूसरी तरफ संस्कृत के प्रति नकारात्मक भाव रखने वालों में रोष पैदा हुआ।
संस्कृतज्ञ ऐसा मानते हैं कि संस्कृत में संसार का सभी ज्ञान है। जबकि अन्य व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि संस्कृत केवल भाषा मात्र है। दोनों तरह के विचार रखने वाले अपने-अपने मत के प्रति दुराग्रही प्रतीत होते हैं। क्योंकि वस्तुत: संस्कृत के विषय में दोनों ही अपने मत को पूर्ण सत्य मानते के कारण परस्पर विरोध में खड़े हैं। जबकि होना यह चाहिए कि संस्कृत को एक भाषा के तौर पर ज्ञान का माध्यम माना जाए। और दूसरा- यह भी माना जाए कि संस्कृत स्वयं ज्ञान है। अथवा यूँ कि समग्र ज्ञान का एक भाग भी है।
यह दोनों ही बातें सभी भाषाओं और सभी ज्ञान के भागों पर घटित होती है। चीजें समग्र रूप से किसी ज्ञान का भाग भी होती हैं और स्वयं में ज्ञान भी। संसार में सभी चीजें अपना व्यष्टि-समष्टि रूप रखती हैं। बस, उनकी परिधि की सीमाओं के आधार पर देखने-समझने की आवश्यकता होती है। लिहाजा, हम कोशिश करेंगे कि इस विषय पर एक श्रृंखला चला सकें। इसमें प्रयास रहेगा कि हम संस्कृत के विविध पक्षों से पाठकों को परिचित करा सकें, स्वयं भी हो सकें। ताकि हम अपनी प्राचीन धरोहर संस्कृत के वास्तविक रूप को जान-पहचान सकें।
पुन: संस्कृत दिवस की अशेष शुभकामनाएँ।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)