संदीप नाईक, देवास, मध्य प्रदेश से, 9/2/2022
पटरियों ने हमेशा समानान्तर रहकर मूक साथ निभाया। पहाड़ों ने धरती और आकाश के बीच रहकर जोड़ने का काम किया। नदियाँ अपने उद्गम से निकलीं तो समुद्र में मिल जाने तक कल-कल करती रहीं। उसका रोना किसी ने नहीं देखा। अनथक चलती रहीं, जोड़तीं रहीं। जो मिला, उसे अपने में समा लिया और कभी उफ्फ़ नहीं किया किसी से।
सूरज और चाँद एक दूसरे के पूरक। जैसे, एक सिक्के के दो पहलू पर कभी मौका नहीं मिला संग साथ रहने का। एक की उपस्थिति दूसरे का विलोप। एक उजाला, एक अँधेरा। और इस अँधेरे-उजाले के खेल में हजारों सितारे डूबते-उभरते रहे। पर कुल मिलाकर समझ ये आया कि यही सच है। उजास और अँधेरे के बरक्स ही जीवन जीना पड़ता है।
जीवन जैसे लम्बी अन्धी सुरंग था। और इससे गुजरते हुए दूसरी ओर के किनारे पर आलोक होने की आश्वस्ति ही ज़िन्दा रखती थी। पर एक-एक कदम पर क्षोभ, अवसाद, तनाव और संघर्ष का अपना महत्व भी था। इनसे पार पाए बिना उस झिलमिलाते प्रकाश पर्व का सुख मिल नहीं सकता था। पर ये भी एक दूजे के सम्पूरक ही थे।
जड़ें हमेशा गहन अँधियारे में रहीं। यहाँ-वहाँ से खाद-पानी खींचती रहीं और सींचती रहीं उर्ध्व पथ पर बढ़ती डालियों को। ताकि वे कलियों, फूलों को जन्म दे सकें। कि फल आ सकें एक दिन, जिनके बीजों से वंश बेल चलती रहें। सभ्यता जीवित रहे, फले-फूले और पल्लवित होते रहे संसार में। यह अनूठा संयोजन रहा। तभी आज संसार में एक तिहाई पानी के साम्राज्य के बाद हरियाली का राज है, इस धरा पर।
हम सबके आसपास भी ऐसे कितने ही क्षितिजनुमा आसरे हैं। बेहद कड़वे सच हैं। पर वे कभी नहीं कहते कि हम जुड़े हैं। समझ और समर्पण के बीच सब कुछ समिधा बनाकर जीवन यज्ञ में समाहित कर दिया पर उफ्फ़ तक नहीं की किसी ने। दूर से एक साथ होने का भान बना रहता है सबको। कभी किसी ने किसी को प्रस्ताव नहीं दिया। पर जो सृष्टि के आरम्भ से आज तक बहुत कोमल तन्तुओं से जुड़े हैं, उसे कोई न समझ पाया है, न तोड़ पाया है। और यह समझने और जुड़ने के लिए कभी कोई दिन या तयशुदा वक्त मुकर्रर नहीं था। पर सब कुछ आज भी एकदम नवीन, नूतन और अनूठा है।
शायद मुझे लगता है कि हमें संग-साथ रहने के लिए किसी मौके या क्षण की आवश्यकता नहीं होती। जब भी यह किसी क्षण किया गया हो, वह फिर प्रेम तो नहीं। बल्कि, एक अनुतोष और प्रतिफल भरी संविदा ही होगी। और यह भी सच है कि जड़ें कभी उत्तुंग शिखर से, नदियाँ समुद्र से या धरती आकाश से, साँसें आरोह-अवरोह से, ब्रह्म नाद किसी राग से, सूरज चाँद से, सुरंगे अंधियारों से और प्रेम किसी से संविदा नहीं करता।
क्योंकि प्रेम जीवन है, जीवन की अपनी गति है। मदमस्त लय है। अपने-आपको एक सुर में गूँथकर प्रेम राग गाते हुए जीवन बिताना है। इसी से सब होगा। क्षितिज भी होंगे, गहनतम अँधियारे, उद्गम से चरम का मिलन भी। अनहद नाद भी सदैव बजते रहेंगे। और ख्याल रहे कि प्रेम में किसी प्रस्ताव और ठहराव की गुँजाइश भी नहीं होती। वसन्त के बाद पतझड़ और फिर लम्बी वीरानी जरूर आती है जीवन में कि सावन के लिए पर्याप्त अवसर मिल सके। इसलिए कहता हूँ कि फरवरी इश्क का महीना है और इसे इश्क की तरह ही जियो।
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(संदीप जी स्वतंत्र लेखक हैं। डायरी का यह पन्ना उन्होंने लाड़-प्यार से हमें उपलब्ध कराया है। फरवरी का महीना जो है… यह डायरी के प्रेम का भी प्रतीक है। टीम डायरी उनकी आभारी है।)
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