नीलेश द्विवेदी, भोपाल, मध्य प्रदेश
अभी 13 सितम्बर को एक ख़बर आई कि कांग्रेस के नेतृत्त्व वाले विपक्षी दलों के गठबन्धन ने देश के 14 नामी पत्रकारों और कुछ न्यूज़ चैनलों का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया है। गठबन्धन की ओर से इनके नामों की सूची भी जारी की गई। उसके बाद से ही देशभर में एक बहस सी चल रही है कि विपक्षी गठबन्धन ने ये सही किया या ग़लत? इससे उसे नुकसान होगा या फ़ायदा? एक वर्ग को तो इस तरह के फ़ैसले पर काफी अचरज है। हालाँकि इस फ़ैसले में आश्यर्च या इतनी बहस-मुबाहिसे की ज़्यादा गुंजाइश है नहीं।
इसे यूँ एक कहावत की नज़र से समझते हैं। हम में से बहुतों ने बड़े-बुज़ुर्गों को किसी न किसी मसले पर यह कहते हुए अक्सर सुना होगा कि ‘हम्माम में सब नंगे हैं’। मतलब कि बाहर से कोई कितने भी रंगीन पर्दों में नज़र आता हो, हम्माम (गुसलख़ाने का भीतरी कमरा, जहाँ ख़ास तौर पर गर्म पानी का इंतिज़ाम हुआ करता था) में नहाते वक़्त सब बिना कपड़ों के होते हैं। यही बड़ी सच्चाई है। लेकिन इसे किसी न किसी तरह दबाए-छिपाए रखने की कोशिशें सब करते हैं। जिससे, जैसे बन पड़े, वैसे। थोड़ी लाज-शर्म के कारण।
हिन्दुस्तान में जहाँ तक मीडिया, या उसी की तरह ख़ुद को ‘बौद्धिक’ कहने और समझने वाले वर्ग का त’अल्लुक़ तो उस पर भी यही बात लागू होती है, पूरी तरह। भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले तक यह वर्ग भी ख़ुद को ख़ूबसूरत आवरणों में ढँक कर रखने में सफल था। अलबत्ता, उसकी अपनी विचारधाराएँ, प्रतिबद्धताएँ तब भी थीं ही। और वह उन्हें पूरी शिद्दत से पोषित, पल्लवित, प्रचारित, प्रसारित भी कर ही रहा था। हम्माम के भीतर अपने पूरे कपड़े उतार कर नहाने वालों की तरह।
लेकिन जैसे ही नरेन्द्र मोदी ने देश की सत्ता सँभाली तो उनकी ‘अपनी कार्यशैली’ के कारण हम्माम के भीतर किया जाने वाला कृत्य खुले-‘आम सड़कों पर आ गया। मीडिया, सोशल मीडिया, शिक्षा, विज्ञान, फिल्म, संस्कृति, कला, साहित्य, हर जगह स्पष्ट रूप से दो वर्ग नज़र आने लगे। एक- ‘नरेन्द्र मोदी का विरोधी’, जो ख़ुद को देश के लोकतंत्र, संविधान, साझा संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता, आदि का पैरोकार बताता है। और ‘मोदी’ को भर-भर के गालियाँ देता है। दूसरे अर्थों में, उनकी निर्विवाद लोकप्रियता की आड़ में अपनी दुकानें चमकाता है।
दूसरा वर्ग- ‘नरेन्द्र मोदी का समर्थक’, जो ख़ुद को बहुप्रचारित राष्ट्रवाद, आर्थिक विकास, ग़ुलामी के निशानों से मुक्ति की कोशिशों, आदि के साथ मज़बूती से खड़ा हुआ पाता है। अलबत्ता, यह वर्ग भी इस तरह की पैराकारी से अपनी दुकानें ही चमकाता है। और ग़ौर करने की बात है कि ‘एक’ की यही चमक अब ‘दूसरे’ (विपक्षी दलों के गठबन्धन का सन्दर्भ ले सकते हैं) को चुभने लगी है। क्योंकि यह वर्ग-भेद अब धीरे-धीरे कट्टर स्वरूप लेता जा रहा है। सो, ज़वाब भी उतनी ही कट्टरता से दिया जाने लगा है। बहिष्कार जैसे फ़ैसलों से।
बात बस, इतनी ही है। और कोई कहे, कुछ भी, दोनों तरफ़ समान अर्थ में इसी तरह से लागू भी है। क्योंकि मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों पर दो दशक से अधिक गुजार चुके ख़ुद नरेन्द्र मोदी भी इतने सालों से यही करते आए हैं, ‘जो पसन्द नहीं या जो आँखों को चुभ जाए, उसका बहिष्कार।’ अलबत्ता, उनकी शैली को ज़्यादातर लोग समझ और मन-बिना मन से स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन अभी जब विपक्षी दलों ने इस शैली में ज़वाब दिया, तो लोगों को हज़म न हुआ क्योंकि ये विपक्ष वाले ‘मोहब्बत की दुकान’ सजाने का दम भरते हैं।
हालाँकि जो चन्द लोग निरपेक्ष क़िस्म के हैं, और बड़े-बुज़ुर्गों की बातों को ज़ेहन में रखते हैं, उन्हें क़त’ई अजरज न हुआ। क्योंकि उन्हें पता है, ‘हम्माम में सब नंगे हैं’, पहले भीतर रहे, अब बाहर हैं।