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हम ‘काम’ और ‘नौकरी’ में फ़र्क नहीं जानते और नारायण मूर्ति जी की निन्दा करते हैं!

नीलेश द्विवेदी, भाेपाल मध्य प्रदेश

अभी 26 अक्टूबर को सूचना-प्रौद्योगिकी क्षेत्र की बड़ी भारतीय कम्पनी ‘इन्फोसिस’ के संस्थापक नारायण मूर्ति जी का बयान आया। इसमें उन्होंने कहा, “अगर भारत को तरक़्क़ी करनी है, तो हर भारतीय, ख़ासकर युवाओं को ख़ुद से कहना होगा कि यह मेरा देश है और इसके लिए मैं सप्ताह में 70 घंटे भी काम करना चाहता हूँ।” इसके आगे-पीछे भी उन्होंने बहुत सी बातें कहीं। लेकिन जैसा कि अमूमन मीडिया और सोशल मीडिया में होता है, आधे-अधूरे तथ्यों पर ही बहस शुरू हो जाती है, इस मामले में वही हुआ। बहस ज़ारी है।

बहस क्यों कहना चाहिए, सीधे तौर पर नारायण मूर्ति जी की निन्दा होने लगी है। उन्हें निशाने पर लिया जाने लगा है। कुछ मीडिया, सोशल मीडिया मंचों पर तो 10-15 मिनट के वीडियाे भी जारी हो चुके हैं। इनमें तमाम लोगों की राय दिखाई गई है। अधिकांश लोग इस बात की आलोचना ही कर रहे हैं। इस पर तंज कस रहे हैं कि उनसे सप्ताह में 70 घंटे काम करने की अपेक्षा की जा रही है। यानी सप्ताह के छह दिनों में रोज़ लगभग 12 घंटे। इस तरह की ‘अपेक्षा’ को काम करने वालों के शोषण की सम्भावनाओं से भी जोड़ा जा रहा है।

जबकि बात ऐसी है नहीं, क्योंकि नारायण मूर्ति जी ने ‘काम’ करने की बात है। किसी भी सन्दर्भ से यह नहीं कहा है कि युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे ‘नौकरी’ करने की मंशा रखनी चाहिए। लेकिन चूँकि अंग्रेजों ने पीढ़ियों से हमारे दिमाग़ों में जो ग़ुलाम मानसिकता भर दी है, उसके कारण हमने ‘नौकरी’ को ही ‘काम’ मान लिया है। और चूँकि ‘नौकरी’ ताे आठ घंटे की भी बमुश्क़िल ही होती है। उन घंटों में भी अधिकांश लोग अधिक से अधिक समय तफ़रीह में काटने की जुगाड़ में रहते हैं। वो तो महीने के पहले हफ़्ते में बँधी तनख़्वाह का मोह कहें या मज़बूरी, जिसकी वजह से बिना मन से भी नौकरी करनी पड़ती है। वरना, तो एक झटके में उससे मुँह मोड़ लें।

सो, इसीलिए जैसे ही सप्ताह में 70 घंटों तक ‘काम’ की बात आई, बड़ी संख्या लोग बेचैन हो गए। बेवजह निन्दा पुराण में अपने-अपने अध्याय जोड़ने लगे। जबकि नारायण मूर्ति जी का मन्तव्य सिर्फ़ ‘काम’ से जुड़ा हुआ था, जो उन्होंने ख़ुद भी किया है। कर के दिखाया है। सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सबसे आगे कुछ करने की चाह उनमें थी। उसके लिए उन्होंने सप्ताह में घंटे तो क्या, न दिन देखे, न रात और इतनी बड़ी कम्पनी खड़ी कर दी। उस कम्पनी से आज हज़ारों ‘नौकरी की मानसिकता रखने वाले’ लाभान्वित हो रहे हैं। देश लाभ ले रहा है। दुनिया को फ़ायदा हो रहा है। यूँ, नारायण मूर्ति जी और उनकी कम्पनी का चौतरफ़ा तरक़्क़ी में योगदान हो रहा है।

इसी तरह के उदाहरण दूसरे कई क्षेत्रों में भी भरे पड़े हैं। प्रख्यात बाँसुरी वादक हरि प्रसाद चौरसिया जी। उन्होंने दिन में 12, 14, 16 घंटे तक ‘काम’ किया। अपने संगीत, अपनी रियाज़ के लिए। अपने विद्यार्थियों को सिखाने के लिए। आज भी कर रहे हैं। आज उनके सैकड़ों शिष्य बिना किसी की ‘नौकरी’ किए अपने पैरों पर खड़े हैं। स्वयं के संस्थान चला रहे हैं। देश की तरक़्क़ी में अपनी तरह से योगदान दे रहे हैं।

ऐसे ही, अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, शाहरुख़ ख़ान जैसे कई अभिनेताओं के बारे में कहा जाता है कि वे अपनी ढलती उम्र के बावज़ूद आज भी रोज़ 18-18 घंटे काम कर रहे हैं। दूसरी कलाओं, साहित्य और उद्यमिता के क्षेत्र में भी ऐसे तमाम लोग हैं, जो ‘काम’ करते वक़्त घड़ी देखना ही भूल जाते हैं, क्योंकि वह उनके मन का होता है। उनका ज़ूनून होता है। जिसे अनवरत, अनगिनत घंटों तक करते रहने में भी उन्हें आनन्द मिलता है। उसे करते हुए वे ख़ुद तरक़्क़ी के पायदान चढ़ते जाते हैं। अपने साथ-साथ ‘नौकरी की मानसिकता रखने वाले’ हज़ारों लोगों की तरक़्क़ी का माध्यम बनते हैं। इस तरह देश की तरक़्क़ी में भी योगदान देते हैं।

बात सिर्फ़ इतनी ही है, जो नारायण मूर्ति जी ने कही। हालाँकि इस तरह की बात समझने के लिए ‘ग़ुलाम मानसिकता से आज़ादी’ बेहद ज़रूरी है, जो अब तक हमें नसीब नहीं हुई है!

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