अनुज राज पाठक, दिल्ली
हम आचार्य पाणिनि के व्याकरण की चर्चा कर रहे थे। वास्तव में आचार्य केवल व्याकरण का ग्रन्थ नहीं लिख रहे थे। अपितु वह भारतीय समाज के ऐतिहासिक सूत्र भी अपने ग्रन्थ में पिरो रहे थे। कारण कि तत्कालीन संस्कृत वाङ्गमय और लोकजीवन का कोई भी अंग ऐसा नहीं, जिसका उल्लेख आचार्य में अपने ग्रन्थ में न किया हो।
उनके ग्रन्थ में शिक्षा, वेशभूषा, राज्य-व्यवस्था, भूगोल, भौगोलिक जनपदों , स्थानों, वैदिक शाखाओं, चरणों (चरण एक तरह के वैदिक शाखाओं के स्कूल थे, जो अलग-अलग वेद की शाखा, अलग-अलग गुरु परम्पराओं के प्रतीक थे), गोत्रों, वंशो का परिचय भी प्राप्त होता है। आचार्य की दृष्टि विशद् और विराट थी। इसीलिए उन्होंने सूक्ष्म दृष्टि से शास्त्रों के साथ-साथ समाज का अध्ययन भी किया।
आचार्य लोक में पुकारने के लिए अलग-अलग शब्दों और वाक्यों तक का अपने सूत्रों में उल्लेख करते हैं। नदी के किनारे बने कुओं के पुकारने के नामों का विवरण देते हैं। अलग-अलग किनारों पर अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किस कारण होता था, यह भी देखते हुए आचार्य उन-उन शब्दों के भेदों का वर्णन करते हैं। आचार्य पतंजलि भगवान पाणिनि की इस छानबीन की दृष्टि को देख कहते हैं, “महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य” अर्थात् सूत्रकार की निगाह बहुत पैनी है।
आचार्य पतंजलि ने भगवान पाणिनि को अपने ग्रन्थ में “वृत्तज्ञ आचार्य” कहा है। वृत्तज्ञ से तात्पर्य है कि शब्दों का अर्थों के साथ जो सम्बन्ध है। अर्थों को प्रकट करने हेतु जो प्रत्यय जुड़ते हैं। शब्दों में जो परिवर्तन होते हैं, प्रत्ययों में गुण, वृद्धि आदि जो अनुबन्ध होते हैं, उन सब बातों को जानने वाला।
आचार्य पाणिनि शब्दों के गहन जानकार थे। पाणिनि की प्रसिद्धि को देखकर लगता है कि उनसे पहले और उनके बाद संस्कृत व्याकरण में उनके जैसा कार्य किसी अन्य ने नहीं किया। आचार्य का कार्य पूर्व आचार्यों के कार्यों से भिन्न था। पूर्व आचार्यों का कार्य एकांगी दिखाई देता है। वहीं, पाणिनि समग्र एवं समन्वय की दृष्टि रखते हैं। पहले के कार्यों को अपने नियमों के साथ-साथ विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं। आचार्य का यही समन्वयात्मक दृष्टिकोण सभी के लिए ग्राह्य हो जाता है।
प्रमाणभूत आचार्य पतंजलि भगवान पाणिनि के बारे में कहते हुए लिखते हैं – “पाणिनि का शास्त्र महान् और सुविचारित है”। यह सच है कि आचार्य पाणिनि ने परिश्रम से अपने ग्रन्थ की रचना की, जो संस्कृत व्याकरण के लिए महद् उपकारी सिद्ध हुआ। आज संस्कृत का जो स्वरूप हमारे सामने उपस्थित है, उसमें आचार्य पाणिनि का महान योगदान है। एक प्राचीन वैयाकरण (व्याकरण का ज्ञाता) कहते हैं कि लोक में आचार्य पाणिनि के नाम की धूम हो गई (पाणिनि शब्दो लोके प्रकाशते)। बच्चे-बच्चे के मुख पर आचार्य पाणिनि का नाम था (आकुमारे यश: पाणिने:)।
तो ऐसे महान् आचार्य ने संस्कृत व्याकरण की रचना की है। पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में भगवान पाणिनि कैसे थे? अगली कड़ी में इस पर चर्चा करेंगे, फिर आचार्य के व्याकरण की झलक देखेंगे।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
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इस श्रृंखला की पिछली कड़ियाँ
10- संस्कृत की संस्कृति : “संस्कृत व्याकरण मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना!”
9- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : आज की संस्कृत पाणिनि तक कैसे पहुँची?
8- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : भाषा और व्याकरण का स्रोत क्या है?
7- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : मिलते-जुलते शब्दों का अर्थ महज उच्चारण भेद से कैसे बदलता है!
6- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘अच्छा पाठक’ और ‘अधम पाठक’ किसे कहा गया है और क्यों?
5- संस्कृत की संस्कृति : वर्ण यानी अक्षर आखिर पैदा कैसे होते हैं, कभी सोचा है? ज़वाब पढ़िए!
4- दूषित वाणी वक्ता का विनाश कर देती है….., समझिए कैसे!
3- ‘शिक्षा’ वेदांग की नाक होती है, और नाक न हो तो?
2- संस्कृत एक तकनीक है, एक पद्धति है, एक प्रक्रिया है…!
1- श्रावणी पूर्णिमा को ही ‘विश्व संस्कृत दिवस’ क्यों?