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‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण की धुरी किसे माना जाता है?

अनुज राज पाठक, दिल्ली

पाणिनीय व्याकरण के प्रसंग में हमने बहुत से प्राचीन और अर्वाचीन आचार्यों विद्वानों के मत देखे। इस सन्दर्भ में हमें आज संस्कृत व्याकरण के नाम पर चारों तरफ पाणिनि व्याकरण ही सर्वमान्य दिखाई देता है। तो सवाल हो सकता है कि इस व्याकरण की ऐसी क्या विशेषताएँ हैं, जिस कारण यह इतना लोकप्रिय हुआ? इसका उत्तर हम आज व्याकरण के उदाहरणों से समझने का प्रयास करेंगे। 

ऐसी मान्यता है कि उत्तरोत्तर मानव की बुद्धि संकुचित होती चली गई। इसी कारण लोक व्यवहार में संस्कृत भाषा का भी ह्रास होने लगा। साथ ही, संस्कृत वाङ्मय के साथ-साथ संस्कृत व्याकरण भी संक्षेप की तरफ बढ़ता गया। संस्कृत भाषा के इसी ह्रास के कारण आचार्य पाणिनि के समय ही संस्कृतभाषा का स्वरूप अत्यन्त अव्यवस्थित हो चला था। बहुत सी धातुएँ और शब्द विलुप्त हो गए थे। लेकिन उन धातुओं के आधार पर बने शब्द प्रचलित थे। इसी तरह बहुत प्रकृतियाँ व्यवहार में थीं, लेकिन उनसे बनने वाले शब्द लुप्त हो गए थे।

ऐसे में, इन सब समस्याओं के समाधान का श्रमसाध्य कार्य आचार्य पाणिनि ने प्रारम्भ किया। क्योंकि प्रकृति का ज्ञान न हो, शब्द का हो तब भी और शब्द का ज्ञान न हो, प्रकृति का हो तब भी, दोनों स्थितियों में शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की व्याख्या करना व्याकरणविद् के लिए भी कठिन है। आचार्य पाणिनि के समय ऐसे सहस्रों शब्द और प्रकृतियाँ प्रचलन में थीं। सो , उनके परस्पर अर्थ सम्बन्ध की समस्या का निराकरण उन्होंने शुरू किया।

व्याकरण का मुख्य आधार ही शब्द और अर्थ का सम्बन्ध है। और शब्दार्थ सम्बन्ध का मुख्य आधार लोक व्यवहार होता है। पाणिनि ने अपनी अनुपम मेधा से इस कार्य को सम्पन्न कर दिया। उन्होंने अपने नियमों में अनंत काल तक के लिए प्रकृति और प्रत्ययों को सुरक्षित कर दिया। यह प्रकृति और प्रत्यय संस्कृत व्याकरण की धुरी हैं। इनके माध्यम से अनंत शब्दों का ज्ञान सम्भव है। विपुल शब्द राशि का निर्माण भी सम्भव है। क्योंकि ये धातुएँ अनेक अर्थों को समाहित किए होती हैं। इनमें विविध प्रत्यय आदि लगाकर शब्दों का निर्माण हो पाता है।

जैसे – रम् धातु से राम, रमा, रमते, रमण आदि। इसी तरह उपसर्ग के प्रयोग से – आहार, विहार, प्रहार, संहार आदि। इसी प्रकार संस्कृत में मानव, मानुष और मनुष्य तीनों शब्द प्राय: समान अर्थ में प्रयोग होते हैं। लेकिन इनकी विवेचना पर ज्ञात होता है कि इनके प्रकृति और प्रत्यय में अन्तर है। मानव की मूल प्रकृति मनु है। वहीं मनुष्य और मानुष की प्रकृति मनुष् है। 

आचार्य पाणिनि के इस कार्य के महत्त्व को बताते हुए भारतीय दर्शन के महान आचार्य कुमारिल भट्ट कहते हैं,

“(संस्कृतभाषा का) जितना स्वाभाविक शब्दसमूह नष्ट हो गया था, उसके उपलक्षक (= ज्ञान कराने वाले) एकमात्र व्याकरणशास्त्र के नियम वा उसके द्वारा निर्दिष्ट रूप हैं।” (यावा‌श्च अकृतको विनष्टः शब्दराशिः, तस्य व्याकरणमेवेकम् उपलक्षणम्, तदुपलक्षितरूपाणि च।” तन्त्र-वातिक १।३।१२)

इस प्रकार पाणिनीय नियमों से विविध शब्द के अर्थ ज्ञान सम्भव है। जो शब्द साधुत्व की दृष्टि से भी उचित जान पड़ता है। क्योंकि व्याकरण का महत्त्व ही शब्दों की शुद्धता का ज्ञान कराना है।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।) 
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