Satyaprem ki Katha

‘सत्यप्रेम की कथा‘ : फिल्मी कहानी से ज़्यादा प्रभावी-प्रेरक ये अस्ल ज़िन्दगी की, पढ़िए!

टीम डायरी

अभी पिछले साल ही एक हिन्दी फिल्म आई थी, ‘सत्यप्रेम की कथा’। बॉक्स ऑफिस इस फिल्म को 100 करोड़ी बताता है। फिर भी ज़्यादा चर्चित नहीं हुई। कहीं कमज़ाेर रही होगी शायद। लेकिन यहाँ हम जो अस्ल ज़िन्दगी वाली ‘सत्यप्रेम की कथा’ कह रहे हैं, वह क़तई कमज़ोर नहीं है। बल्कि प्रभावी, प्रेरक और रोचक-सोचक है। 

ये कहानी है, इस्कॉन (इन्टरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस) मन्दिर वृन्दावन के साधु ‘सत्यप्रेमदास’ की। उनकी उम्र है 55 साल के क़रीब। मध्य प्रदेश के शहर भोपाल के रहने वाले हैं। अभी तीन-साढ़े तीन साल पहले ही वह इस्कॉन में समर्पित साधु की तरह शामिल हुए हैं। इससे पहले तक करोड़ों की दौलत थी उनके पास। सब दान कर दी। अब भगवान की सेवा, भक्ति में लगे हैं। हालाँकि यह बदलाव इनमें अचानक नहीं हुआ। 

सत्यप्रेमदास ने ख़ुद एक अख़बार को बताया कि जब वे महज़ 28 साल के थे, तभी उन्हें जीवन के सभी सुख, आराम हासिल हो चुके थे। होटल प्रबन्धन की पढ़ाई के बाद उन्होंने मुम्बई के ‘ताज़’, दिल्ली के ‘ली मैरेडियन’, भोपाल के ‘जहाँनुमा’, जैसे कई आलीशान होटलों में शीर्ष पदों पर रहकर सेवाएँ दीं। ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी जिए। काफ़ी ज़मीन-जाइदाद इकट्‌ठी की। मतलब जीवन की सभी अदद इच्छाएँ पूरी हो रही थीं। 

लेकिन तभी इन्टरवल हो गया। वैसे ही, जैसे फिल्मों में होता है। जहाँ से अमूमन फिल्म की कहानी नया मोड़ लेती है। ताे उसी तरह, सत्यप्रेमदास की ज़िन्दगी ने भी नया मोड़ लिया। साल 2005 में उन्हें पता चला कि उन्हें पार्किन्सन नाम की बीमारी हो गई है। कई डॉक्टरों को दिखाया, मगर बीमारी दिनों-दिन गम्भीर होती गई। इलाज़ का कोई असर नहीं हुआ। हाथ-पैर काँपने लगे। आड़े-टेढ़े होने लगे। डॉक्टरों ने कह दिया कि अब इलाज़ के स्तर पर ज़्यादा कुछ हो नहीं सकता। उन्हें ऐसे ही रहना होगा। इससे वह अवसाद में चले गए।

इसी बीच, उनके पिता का भी निधन हो गया। यहाँ उनके लिए सब शून्य हो चुका था। पर तभी शून्य से आगे की यात्रा के लिए नई किरण दिख गई। पिताजी के अन्तिम संस्कार के लिए जिस वाहन में जा रहे थे, उसमें गीता का श्लोक और उनका अर्थ लिखा हुआ था, ‘क्या लेकर आए हो, क्या लेकर जाओगे।” इसे देखते ही उन्हें माँ की सीख भी याद हो आई। वे अक्सर कहा करती थीं कि गीता पढ़ा करो। लेकिन उस पर उन्होंने अब तक ध्यान नहीं दिया था। मगर अब उनके सामने वही सीख एक आख़िरी विकल्प के तौर पर बची थी। 

लिहाज़ा, आगे का रास्ता उन्होंने गीता के अध्ययन और मनन-चिन्तन के साथ तय करने का निश्चय किया। श्रीकृष्ण की भक्ति में मन लगाया। ध्यान, योग को जीवनशैली का हिस्सा बनाया। धीरे-धीरे बीमारी की स्थिति में सुधार होने लगा। अब तक साल 2020 का आ गया था। स्वास्थ्य में सुधार से उत्साह बढ़ा हुआ था और आगे का रास्ता भी साफ़ दिख रहा था। सो, उसी पर चलते हुए उन्होंने अपनी पूरी ज़मीन-जाइदाद बेच दी। जो पैसा मिला, उसे इस्कॉन को दान कर दिया। ख़ुद इस्कॉन की परम्परा से दीक्षित हुए और माँ के साथ जाकर वृन्दावन में रहने लगे। 

अब सत्यप्रेमदास स्वस्थ हैं, सत् चित् आनन्द में हैं, कृष्णभक्ति में रमे हैं क्योंकि उन्हें ‘सत्यप्रेम’ मिल चुका है। 

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