अनुज राज पाठक, दिल्ली
वेद के छह अङ्गों में एक अङ्ग व्याकरण है, जिसके विषय में सामान्य तौर पर हमने पूर्व की कड़ियों (नीचे उनकी लिंक्स दी गई हैं, पढ़ी जा सकती हैं।) में जानने का प्रयास किया। संस्कृत अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में व्याकरण पढ़ने की दो विधियाँ प्रचलित हैं। एक- पाणीनीय शब्दानुशासन के क्रम अनुसार, दूसरी- प्रक्रिया के अनुसार।
पाणिनीय शब्दानुशासन में दिए सूत्रों के क्रम अनुसार जिस पद्धति में पढ़ा जाता है, उसे ‘आर्ष-पद्धति’ कहते हैं। दूसरी पद्धति में विविध प्रकरण जैसे ‘संज्ञा’ से जुड़े जितने सूत्र प्राप्त होते हैं, एक जगह एकत्र कर ‘संज्ञा प्रकरण’ पढ़ना। इसे ‘प्रक्रिया पद्धति’ कहते हैं। प्रक्रिया पद्धति की प्रसिद्धि में आचार्य भट्टोजी दीक्षित का बहुत योगदान है। इनके प्रक्रिया ग्रन्थ संस्कृत व्याकरण अध्येताओं के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुए। इन्होंने छात्रों हेतु सरल, व्याकरण, अध्ययन पद्धतियों को प्रारम्भ कर लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया।
वहीं ‘काशिका’ नामक ग्रन्थ के रचयिता वामन और जयादित्य ने पहली पद्धति का अनुसरण और प्रचार किया। बहुत समय बाद महर्षि दयानन्द सरस्वती ने काशिकाकर की तरह ‘आर्ष पद्धति’ का अनुसरण कर वैदिक वाङ्गमय के पठन-पाठन विधि का प्रचार प्रसार किया। आधुनिक भारत के इतिहास में वैदिक वाङ्गमय के प्रचार-प्रसार में महर्षि दयानन्द सरस्वती का योगदान अतुलनीय है। उन्होंने प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को भी पुन: प्रारम्भ किया।
संस्कृत शिक्षण क्षेत्र में वेदाङ्गो में व्याकरण का अध्ययन-अध्यापन कभी बन्द नहीं हुआ, न कभी कमतर रहा। फिर भी व्याकरण अध्ययन के महत्त्व को बताने तथा प्रेरित करने के लिए विविध उक्तियाँ, कथाएँ प्रचलित रहीं। इस सन्दर्भ मेंं एक कहानी और उसमें कहा गया श्लोक स्मरण आ रहा है। वह कुछ यूँ है :
दो घनिष्ठ मित्र थे। एक- विद्वान परन्तु गरीब था। दूसरा- धनी परन्तु विद्वान नहीं था। इन दोनों मित्रों की संतानें हुईं। गरीब मित्र के यहाँ एक कन्या। वह सुन्दर और पिता की तरह ही विदुषी हुई। जबकि दूसरे के यहाँ पुत्र हुआ। उसका पढ़ने-लिखने में मन कम ही लगता था। दोनों बच्चे बड़े हुए तो धनवान् व्यक्ति ने अपने मित्र के सामने प्रस्ताव रखा कि क्यों न अपनी मित्रता को रिश्ते में बदल दिया जाए। अपने दोनों बच्चों का विवाह कर दिया जाए। यह प्रस्ताव सुनकर लड़की के पिता चिन्तित हो गए। वह बेटी को ऐसे व्यक्ति के साथ ब्याहना नहीं चाहते थे, जो अक्षरशत्रु हो। लेकिन मित्र को सीधे तौर पर मना भी नहीं कर सकते थे। ऐसे में वह बहुत परेशान हो गए। उन्हें परेशान देखकर उनकी बेटी ने कारण जानना चाहा, तो उन्होंने बता दिया। तब बेटी ने एक युक्ति सुझाई। उसने अपने पिता से कहा, “आप अपने मित्र से कहिए कि विवाह के लिए मेरी बेटी की एक आसान सी शर्त है। मैं एक श्लोक में संस्कृत के कुछ शब्दों का अर्थ करने पर अटकी हुई हूँ, अगर उनका पुत्र सही अर्थ बता देता है तो मैं उससे विवाह कर लूँगी”।
बात तय हुई और धनवान् व्यक्ति के पुत्र के सामने उस लड़की ने यह श्लोक सुनाया :
“यस्य षष्ठी चतुर्थी च विहस्य च विहाय च।
यस्याहं च द्वितीया स्याद् द्वितीया स्यामहं कथम्।।”
लड़की ने युवक से इसका सही अर्थ पूछा। साथ ही, ‘विहस्य’, ‘विहाय’, ‘अहम्’ और ‘कथम्’ की उचित, उपयुक्त विभक्तियाँ जानने की इच्छा जताई। तब लड़के ने अपने अल्पज्ञान के आधार पर ‘विहस्य’ शब्द को छठी विभक्ति का बताया क्योंकि उसके अन्त में ‘स्य’ प्रत्यय लगा है। ऐसे ही ‘विहाय’ के अन्त में ‘अय’ प्रत्यय के आधार पर उसे चतुर्थी विभक्ति का बता दिया। साथ ही, ‘अहम् और कथम्’ में ‘म्’ प्रत्यय होने के कारण उसे द्वितीय विभक्ति के रूप में बता दिया। और बस, वहीं से फैसला हो गया।
इसके बाद युवती ने पिता के धनवान् मित्र को श्लोक का अर्थ बताया, जिसमें उसका जवाब भी छिपा था :
“जिसके लिए ‘विहस्य’ शब्द छठी विभक्ति का है और ‘विहाय’ शब्द चतुर्थी विभक्ति का। ‘अहम् और कथम्’ द्वितीया विभक्ति का हो सकता है। उनमें कोई अन्तर नहीं है। मैं ऐसे व्यक्ति की पत्नी (द्वितीया) कैसे हो सकती हूँ?”
इस कहानी का भाव यह है कि किसी शब्द के अन्त में ‘स्य’ लगने मात्र से वह छठवीं विभक्ति का नहीं हो जाता, और न ही ‘अय’ लगने से चतुर्थी विभक्ति का हो जाता है। ‘विहस्य’ और ‘विहाय’ ये दोनों अव्यय पद हैं। इनके रूप नहीं चलते। इसी तरह ‘अहम्’ और ‘कथम्’ में अन्त में ‘म्’ होने से वे द्वितीया विभक्ति के रूप नहीं हो जाते। ‘अहम्’ शब्द के अंत में ‘म्’ होता है, फिर भी वह प्रथमा विभक्ति-एकवचन का रूप है।
इस श्लोक से हमें यह भी ज्ञात होता है कि तत्कालीन युवतियाँ वेदाङ्गाें में मुख-रूप व्याकरण जानने वाले अर्थात् भाषा का शुद्ध प्रयोग करने वाले व्यक्ति से विवाह प्राथमिकता देती रही होंगी। या फिर यह भी सम्भव है, किसी वैयाकरण ने युवती के माध्यम से यह श्लोक कहला दिया होगा। भाषा के शुद्ध प्रयोग की महत्ता बताने के लिए क्योंकि भाषा की शुद्धता व्यक्ति के व्यक्तित्व को सुन्दर ही तो बनाती है।
इस प्रकार हमने इस शृंखला में संस्कृत वाङ्गमय में एक भाग व्याकरण के विषय में सामान्यत: जाना, आगे अन्य विषयों को भी देखेंगे।
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
(अनुज से संस्कृत सीखने के लिए भी उनके नंबर +91 92504 63713 पर संपर्क किया जा सकता है)
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इस श्रृंखला की पिछली 10 कड़ियाँ
17 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण में ‘गणपाठ’ क्या है?
16 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : बच्चे का नाम कैसा हो- सुन्दर और सार्थक या नया और निरर्थक?
15 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : शब्द नित्य है, ऐसा सिद्धान्त मान्य कैसे हुआ?
14 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : पंडित जी पूजा कराते वक़्त ‘यजामि’ या ‘यजते’ कहें, तो क्या मतलब?
13 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण की धुरी किसे माना जाता है?
12- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘पाणिनि व्याकरण’ के बारे में विदेशी विशेषज्ञों ने क्या कहा, पढ़िएगा!
11- संस्कृत की संस्कृति : पतंजलि ने क्यों कहा कि पाणिनि का शास्त्र महान् और सुविचारित है
10- संस्कृत की संस्कृति : “संस्कृत व्याकरण मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना!”
9- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : आज की संस्कृत पाणिनि तक कैसे पहुँची?
8- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : भाषा और व्याकरण का स्रोत क्या है?