समीर शिवाजीराव पाटिल, भोपाल मध्य प्रदेश
शनिवार 10 फरवरी को दक्षिण कैरोलिना की एक चुनाव रैली में अमेरिका के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष डोनाल्ड ट्रम्प ने एक वक्तव्य दिया। लब्बो-लुआब यह था कि यदि कोई यूरोपीय देश नाटो को निर्धारित अपने रक्षा बजट का दो प्रतिशत योगदान नहीं देता तो किसी बाहरी आक्रमण की सूरत में वे उस देश को सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं दे सकते। बरक्स वह रूस को ऐसे देश पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित करेंगे। इस बयान ने ‘बागड़ बिल्ले’ के आगमन से दड़बे के मुर्गों के बीच मचने वाले कोहराम की सी स्थिति पैदा कर दी। यूरोप और अमेरिका के तमाम नेता इस पर विरोध और रुदन कर रहे हैं। इनमें से कई इसमें श्वेत-आंग्ल-ईसाई एकता का अवसान भी देख रहे हैं।
सनद रहे, नाटो यानी उत्तर अटलांटिक संधि संगठन एक सैन्य गठबन्धन है। इसके तहत किसी सदस्य देश पर हमला समूचे गठबन्धन पर आक्रमण माना जाना है। नाटो उसके खिलाफ समेकित प्रतिकार के लिए बाध्य है। इस पृष्ठभूमि में ट्रम्प का बयान घोर अराजकतावादी प्रस्थान की घोषणा है। सच्ची बात यह है कि ट्रम्प का यह बेतुका दिखने वाला बयान अस्ल में वैसा है नहीं। यह अमेरिकी बुद्धिजीवी श्रेष्ठि वर्ग में प्रचलित सुव्यवस्थित विचारणा है। सम्भवत: कुछ पाठकों को स्मरण होगा कि इन्हीं पृष्ठों पर लेखक ने दरकती विश्वव्यवस्था की ओर संकेत किया था। इस विषय में पूर्व का आलेख “महायुद्ध पूर्व की लड़ाइयाँ जहाँ होती हैं, वहाँ इनका आभास भी नहीं होता” उल्लेखनीय है।
यदि इस घटनाक्रम से समस्या के मूल पर आएँ तो हम दुनिया में हो रहे संरचनात्मक बदलाव के संकेतों को नकार नहीं पाएँगे। यहाँ इस कड़ी के हम इसकी पृष्ठभूमि के विश्लेषण की कोशिश ही करेंगे। अपेक्षा रहेगी कि यह हमें आज की स्थिति को ठीक से समझने में सहायक हो।
वर्तमान विश्व-व्यवस्था का पाया औपनिवेशिक लूट से मिली बढ़त और उत्तर द्वितीय विश्वयुद्ध काल के बाद की तकनीकी, मौद्रिक नीति, संगठन एवं विकास और भूमंडलीकरण की संधियाँ हैं। इसका भरपूर लाभ अमेरिका और यूराेप की तथाकथित विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने उठाया है।
पूंजीवादी अर्थतंत्र मुनाफा और बाजार के अधिकतमकरण के सिद्धान्त से परिचालित होता है। अब यहाँ अमेरिकी उद्योगों ने बाजी मारी और दुनियाभर के विकासशील देशों को अपने लिए आधार के रूप में तैयार किया। इस आपसी प्रतिस्पर्धा में यूराेपीय देश के उद्योग पिछड़ रहे हैं। हम जानते हैं कि कम लागत, सस्ते संसाधनों की नीति पर चलते हुए, मानवीय और पर्यावरणीय नुकसान को सहते हुए चीन और उसके पीछे भारत, ब्राजील, फिलीपींस जैसे अनेक देशों ने विकास की एक राह पकड़ी है। यह दुनिया को संरचनात्मक बदलाव की ओर ढकेल रही है।
चीन ने एशिया, अफ्रीका सहित दुनियाभर में कच्चे माल के स्रोतों को अपने प्रभाव में लाकर और तकनीकी हस्तान्तरण कर जो मकाम हासिल किया है, वह तो अमेरिका और उसके नेतृत्त्व वाली विश्वव्यवस्था को चुनौती देने वाला है। भारतीय जनमानस और नेतृत्त्व यहाँ एक निरपेक्षता के साथ खड़ा है। उसके पीछे सबसे बड़ा कारण मानव विकास की आधुनिक परिकल्पना के प्रति असहमति है। यह दीगर बात है कि चीन की महत्वकांक्षा जमीन पर नहीं उतर पाने की एक बड़ी वजह भारत की यह निरपेक्षता भी है!
आज वैश्विक अर्थतंत्र में लाभ का सबसे बड़ा कारक तकनीकी उन्नति है। अमेरिकी प्रभुत्त्व की जड़ इसी बढ़त में है। सैन्य, स्वास्थ्य, कृषि-बीज-खाद-रसायन आदि तकनीकी बढ़त को भुनाने में अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और सरकार का बेजोड़ सामंजस्य है। यूराेप के उपनिवेशवादी रहे देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इस पूँजीवादी माहौल में अमेरिकी कंपनियों से स्पर्धा करने में कई तरह की समस्याएँ अनुभव कर रही हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर सवार भूमंडलीकरण ने राष्ट्र और अर्थव्यवस्था की अवधारणा को बदल कर रख दिया है। वह अन्य सभी मानदंडों को अलग रख कम लागत वाली श्रेष्ठ उत्पादकता के तकाजे पर तौलती है।
आर्थिक मामलों में विकसित देशों के मध्य की प्रतिस्पर्धा कई तरह के विद्ध्वंसक परिणामों की ओर धकेल रही है। नि:संदेह इसमें सबसे बढ़त की स्थिति में अमेरिका है। चाहे लड़ाकू हों या नागरिक विमान, मालवाहक जहाज हों या पनडुब्बी, हर उत्पाद के सौदे में अमरिकी सरकार की भूमिका गाँव के हाट को नियंत्रित करने वाले किसी साहूकार की तरह नजर आती है। हाट में कोई पत्ता उसकी मर्जी के बिना नहीं गिरता। उसकी गुप्त या अनकही शक्ति की बात करें तो रूस से जर्मनी को गैस पहुँचाने वाली नार्ड स्ट्रीम को उड़ाने के आरोप से अमेरिका अब तक असंदिग्ध रूप से बेदाग नहीं निकल पाया है। इस नए खुलेपन के माहौल में क्षेत्रीय भूराजनीतिक संधियाँ अपनी उपयोगिता खो रही है। यूरोपीय संघ या नाटो जैसे संगठनों के पीछे की अर्थशास्त्रीय प्रासंगिकता तेजी से खिसक रही है।
वर्तमान विश्वव्यवस्था में विकसित देश के नागरिक जिन बेहतरीन सुविधाएँ, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा नीतियाँ और अंधाधुंध सब्सिडीज का लाभ उठा रहे हैं, वह अर्थशास्त्रीय दृष्टि से व्यवाहारिक नहीं। जैसे पूर्व में कहा गया है इसके पीछे औपनिवेशिक काल की लूट और औपनिवेशिकोत्तर काल की संधियाँ और संगठनों की कारगुजारियाँ हैं। ऐसी स्थितियाँ टिकाऊ नहीं हुआ करती। विकसित राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाएँ इनके बोझ को गहरे तक अनुभव कर रही है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस सहित प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की विकासदर न्यूनतम अंकों पर है। इसके लिए जो कदम उठाए जाएँगे, उनसे इन देशों के आपसी आर्थिक हितों का टकराना लाजिमी है। उदाहरण के लिए यदि अमेरिका अधिक डॉलर छापकर अपनी अर्थव्यवस्था को सुचारू रखने की कोशिश करता है तो यह दुनिया की मुद्राओं को कमजोर करेगा और यदि अन्य देश डॉलररहित द्विपक्षीय व्यापार की ओर बढ़ते हैं तो वह अमेरिकी प्रभुत्त्व को कम करेगा।
ऐसी आर्थिक अवस्था में अमेरिका विभिन्न सैन्य गठबन्धनों में अपनी क्या भूमिका देखता है? इसकी बानगी अमेरिका के रैंड कॉरपोरेशन के एक अध्यययन में मिलती है। इसका शीर्षक है, “क्या अमेरिकी गठबन्धनों और अग्रिम सैन्य उपस्थिति से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लाभ होता है?” रिपोर्ट में कई बार इस बात का गम्भीरता से जिक्र है कि अमेरिकी विशेषज्ञों द्वारा सैन्य नियुक्ति के आर्थिक कल्याण पर प्रभाव के दावों का मूल्यांकन नहीं किया गया है।
अध्ययन में 1986 से 2006 के वैश्विक गठबन्धन के आँकड़ों के आधार पर निष्कर्ष निकाला है कि नाटो में सहभागिता का व्यापार बढ़ने की वजह से अमेरिकी आर्थिक कल्याण पर मामूली सकारात्मक असर हुआ है। साथ ही यह भी पाया कि सुरक्षात्मक गठबन्धनों की द्विपक्षीय व्यापार से बड़ी और सांख्यिकीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संगति होती है। किन्तु शोध के अनुसार अमेरिकी आर्थिक कल्याण के दृष्टिकोण से कई प्रश्न अभी अनुत्तरित हैं, जो और अध्ययन की माँग करते हैं। मसलन – अब तक यह स्थापित नहींं हो पाया है कि सैन्य गठबन्धन से व्यापार में बढ़ोतरी होती है या अमेरिका प्रमुख व्यापारिक साझेदारों के साथ सैन्य सहयोग की अधिक सम्भावना रखता है? अर्थशास्त्रियों ने अब तक यह आकलन नहीं किया है कि क्या ये द्विपक्षीय व्यापार और निवेश के उच्च स्तर ही बने रहते हैं या कि समग्र अमेरिकी व्यापार और निवेश के उच्च स्तर में भी परिवर्तित होते हैं। और अन्तत: कि इससे ( अमेरिका का) आर्थिक कल्याण होता है या सिर्फ किसी अन्य, गैर-सहयोगी देशों की आर्थिक गतिविधि का अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ओर मुड़ाव भर होता है।
नाटो जैसे सैन्य गठबंधन के सम्बन्ध में ऐसा अर्थशास्त्रीय विश्लेषण यह गवाही देता हैं कि अमेरिकी बुद्धिजीवी वर्ग की सोच सैन्य गठबन्धन को जिस लाभ या आर्थिक कल्याण के नजरिए से देखती है, उसमें सभी नाटो देश समान धरातल पर नहीं हैं। पूर्व उपनिवेशी देशों को यह भले ही बुरा मालूम हो किन्तु यह तो सच ही है कि अमेरिका अपनी सुरक्षा (या किसी भी हित) के लिए नाटो जैसे सैन्य गठबंधन पर उस तरह निर्भर नहीं, जैसे कि अन्य यूरोपीय देश।
इस बाबत हमारे नीतिशास्त्र तो बाल्यकाल से ही पंचतंत्र कथाओं में यह शिक्षा देते आए हैं कि आश्रित और आश्रयदाता के बीच समानता न कभी हुई है न कभी होगी। जाहिर है, नाटो के अन्य देशों को सुरक्षा मुहैया कराने वाला अमेरिकी श्रेष्ठि वर्ग उनसे अपनी इच्छा और हितों के प्रति जायज सम्मान की अपेक्षा करता है। ऐसे में, ‘नाटो दड़बे’ के निवासियों को व्यवहारिक धरातल पर अपनी यथार्थ और अमेरिकी की स्थिति का आकलन कर तदनुसार नीति बनानी होगी। पर बड़ा सवाल यह है कि इस ‘बागड़ बिल्ले’ को दड़बे की उपादेयता की समझ वाली घंटी कौन बाँधेगा?
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(नोट : #अपनीडिजिटलडायरी के शुरुआती और सुधी-सदस्यों में से एक हैं समीर। भोपाल, मध्य प्रदेश में नौकरी करते हैं। उज्जैन के रहने वाले हैं। पढ़ने, लिखने में स्वाभाविक रुचि रखते हैं। वैचारिक लेखों के साथ कभी-कभी उतनी ही विचारशील कविताएँ, व्यंग्य आदि भी लिखते हैं। डायरी के पन्नों पर लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराया करते हैं।)