अनुज राज पाठक, दिल्ली
चारों वेदों के उपलब्ध सबसे प्राचीन भाष्यकार आचार्य सायण अपनी ऋग्वेद-भाष्य-भूमिका में निरूक्त का लक्षण देते हुए लिखते हैं, “अर्थ ज्ञान के लिए स्वतंत्र रूप से जहाँ पदों का समूह कहा गया है, वही निरुक्त है।” इससे पता चलता है कि निरुक्त शब्दों की व्याख्या करता है। यह सही भी है, क्योंकि निरुक्त भाष्य शैली में उपलब्ध होता है।
यद्यपि यह भाष्य ‘निघंटु’ नामक वैदिक शब्द-कोषों का है। निघंटु से तात्पर्य है ‘निगम’ अर्थात् उदाहरण। उदाहरण दृष्टान्त मात्र होता है, जिसको जानने समझने से उसके समान अनेक चीजों का ज्ञान स्वत: हो जाता है। इन उदाहरण रूप वैदिक शब्दों की रूढ़ संज्ञा ‘निघंटु’ है।
वास्तव में निघंटु, कोष साहित्य के आरम्भिक स्वरूप के द्योतक हैं। साहित्य में बिखरे हुए शब्दों को एकत्र कर, एक नियम से क्रमबद्ध करना, निघंटुओं की विशेषता थी। आचार्य यास्क ने जिस निघंटु पर अपना निरुक्त लिखा, वह तीन कांडों में विभक्त है। यहाँ जानना आवश्यक है कि विद्वानों के अनुसार यास्क ने अपने निघंटु का निर्माण स्वयं किया है तथा इसमें अपने पूर्व आचार्यों के निघंटुओं की सहायता ली है।
आचार्य के निरुक्त में पहला ‘नैघंटुक कांड’ कहलाता है। इनमें शब्दों के प्रकार तथा पर्यायवाची शब्द संग्रहित हैं। जैसे पृथ्वी के 21 पर्याय गिनाए हैं। इन तीन अध्यायों में लगभग 1,341 शब्दों का संग्रह और कुछ की व्याख्या की गई है। यहाँ यास्क व्याख्या शुरू करने से पहले एक लंबी भूमिका कहते हैं।
दूसरा ‘नैगम कांड’ कहलाता है। इसमें किसी शब्द के पर्याय नहीं दिए हैं अपितु स्वतंत्र शब्द दिए गए हैं। इस कांड में दिए शब्द कठिन हैं। ये शब्द अनेक अर्थ बताते हैं। इनकी बनावट का पता लगाना कठिन है। इसीलिए आचार्य यास्क इन्हें ऐकपदिक निगम ( उदाहरण या प्रयोग) कहते हैं। “अथ यानि अनेकार्थानि एकशब्दानि तानि अतोऽनुक्रमिष्याम। अनवगतसंस्कारांश्च निगमान्। तत् ऐकपदिकम् इत्याचक्षते” (नि० 4/1)।
अन्तिम कांड ‘दैवत कांड’ के नाम से जाना जाता है। इसमें विविध देवताओं के नाम हैं। ये पर्याय नहीं, अपितु स्वतंत्र हैं। इनकी विशेषता है कि इन नामों के द्वारा देवताओं की प्रधानतया स्तुति की जाती है। इनकी व्याख्या आचार्य यास्क ने विस्तृत रूप से की है। देवताओं के विषय में आचार्य ने खूब प्रकाश डाला है। इसमें देवताओं के साथ-साथ यज्ञों के विषय में भी वर्णन है, साथ ही दार्शनिक विषयों को बताया गया है।
आचार्य के निरुक्त को देखकर कहा जा सकता है कि वैदिक या कहें भारतीय संस्कृति और धर्म का इतिहास निरुक्त के आश्रय से खड़ा है। निरुक्त ही भारतीय संस्कृति के प्राचीन साक्ष्य के रूप में हमारे सामने दिखाई देता है।
आगे हम नियुक्त के कांडों की विषयवस्तु पर संक्षेप में दृष्टि डालेंगे।
#SanskritKiSanskriti
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(नोट : अनुज दिल्ली में संस्कृत शिक्षक हैं। #अपनीडिजिटलडायरी के संस्थापकों में शामिल हैं। अच्छा लिखते हैं। इससे पहले डायरी पर ही ‘भारतीय दर्शन’ और ‘मृच्छकटिकम्’ जैसी श्रृंखलाओं के जरिए अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। समय-समय पर दूसरे विषयों पर समृद्ध लेख लिखते रहते हैं।)
(अनुज से संस्कृत सीखने के लिए भी उनके नंबर +91 92504 63713 पर संपर्क किया जा सकता है)
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इस श्रृंखला की पिछली 10 कड़ियाँ
19 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : सुनना बड़ा महत्त्वपूर्ण है, सुनेंगे नहीं तो बोलेंगे कैसे?
18 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : मैं ऐसे व्यक्ति की पत्नी कैसे हो सकती हूँ?
17 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण में ‘गणपाठ’ क्या है?
16 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : बच्चे का नाम कैसा हो- सुन्दर और सार्थक या नया और निरर्थक?
15 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : शब्द नित्य है, ऐसा सिद्धान्त मान्य कैसे हुआ?
14 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : पंडित जी पूजा कराते वक़्त ‘यजामि’ या ‘यजते’ कहें, तो क्या मतलब?
13 – ‘संस्कृत की संस्कृति’ : संस्कृत व्याकरण की धुरी किसे माना जाता है?
12- ‘संस्कृत की संस्कृति’ : ‘पाणिनि व्याकरण’ के बारे में विदेशी विशेषज्ञों ने क्या कहा, पढ़िएगा!
11- संस्कृत की संस्कृति : पतंजलि ने क्यों कहा कि पाणिनि का शास्त्र महान् और सुविचारित है
10- संस्कृत की संस्कृति : “संस्कृत व्याकरण मानव मस्तिष्क की प्रतिभा का आश्चर्यतम नमूना!”
बहुत उपयोगी और समीचीन लेख शृंखला। आभार।